शनिवार, 24 मार्च 2018

यादों का झरोखा - ११ - स्व. शरद कुमार तिवारी

स्व. शरदकुमार तिवारी का असल नाम चुन्नीलाल तिवारी था (ये मुझे उनके पुत्र अनिल से मालूम हुआ है). वे मूलरूप से होशंगाबाद, मध्य प्रदेश, के रहने वाले थे. स्वभाव से फक्कड़, मुंहफट, व मनमौजी शरदबाबू सन १९३८ में ए.सी.सी. में नौकरी पर लग गए थे. कोटा के पास गोर्धन पुरा (अटरू) में मिश्रा परिवार में उनका ससुराल था. स्व. कुंजबिहारी मिश्रा उनके सगे साले थे. श्रीमती शारदा तिवारी के मामा लोग यानि दीक्षित परिवार की जड़ें तब लाखेरी में जम चुकी थी. उन्हीं के माध्यम से वे यहाँ आये. कई विभागों में काम करते हुए वे जब अकाउंट्स क्लर्क थे तो सर्वप्रथम मेरी उनसे मुलाक़ात एक साहित्यिक मित्र के रूप में हुई थी. वे उर्दूदां व अजीम शायर थे.

उन दिनों लाखेरी सन्देश’ नाम की एक गृहपत्रिका मैनेजमेंट की तरफ से निकाली जाती थी, जिसमें हम स्थानीय रचनाकारों की रचनाएँ भी छपती थी. शरद बाबू की बगल की टेबल पर स्व. केशवदत्त ‘अनंत’ की सीट होती थी. वे पत्रिका के सम्पादक मंडल में थे. मुझे तब भी कुछ लिखने का शौक चर्राता था. इस प्रकार उन लोगों से नजदीकियां हो गयी. वैसे भी शरद बाबू का परिवार मेरे पड़ोस L- 17 में रहता था. उनका इकलौता पुत्र अनिल उर्फ़ सोना तब एक किशोर बालक था. मेरी फितरत थी कि मैं छोटे बच्चों के साथ छोटा बच्चा बन जाता था. बच्चों के साथ खेलना या शरारत करना मेरा शुगल होता था, जो आज भी ये बरकरार है. अनिल बहुत अच्छे स्टेज कलाकार थे. मैंने उनकी प्रतिभा का भरपूर उपयोग होलिकोत्सव पर आयोजित हास्य सम्मेलनों में किया.

शरद बाबू जिमखाना की क्रिकेट टीम में ओपनर खिलाड़ी होते थे. स्व.शिवप्रसाद गौड़, रामचंद्र चारण, प्रेम प्रकाश वर्मा, श्यामसुंदर सेनी, इब्राहीम हनीफी, रक्षपाल शर्मा, अमृतराय आदि पुराने व नयी प्रतिभाएं टीम में होती थी. मैनेजीरियल स्टाफ भी क्रिकेट के खेल को अंग्रेजों के जमाने से ही प्रोत्साहित किया करता था. बहुत से इंजीनियर्स तथा एड्मिनिस्ट्रेशन के ऑफिसर छुट्टी के दिन मैदान में हुआ करते थे. कोटा से रेलवे की टीम बहुधा लाखेरी आया करती थी. हमारी टीम भी प्रदेश में व प्रदेश के बाहर निमंत्रित की जाती थी.

शरद बाबू टेनिस के भी अच्छे खिलाड़ी थे, और इनडोर गेम्स में भी पूरी दखल रखते थे. जिमखाना की कार्य कारिणी में रहते हुए जब वे लाईब्रेरी के इंचार्ज थे तो उन्होंने बहुत सी समकालीन लेखकों की किताबें तथा पाकेट बुक्स मंगवाई थी. वे खुद भी उपन्यास पढने के शौक़ीन थे.

अनिल ने मुझे बताया है की जब लाखेरी में रेडिओ/ ट्रांजिस्टर नहीं होते थे तो उन्होंने मुम्बई वाले दादाबाबू (मशीनिस्ट, आटा चक्की वाले, स्व. विमला भोंसले अध्यापिका के पिता) से एक ट्रांजिस्टर खरीदा था, जो क्रिकेट कमेंट्री सुनने के जुनून का प्रमाण था. उनके नजदीकी मित्र मंडली में स्व. पी.बी. दीक्षित जो तब कैमिस्ट थे व बाद में जी.एम. रिटायर हुए, अमृतराय जी, जो बाद में डी.जी.एम. रिटायर हुए, मथुरा प्रसाद, जोबनपुत्रा जी, रामचंद्र चारण आदि थे, जो उनके हमप्याला भी हुआ करते थे.

१९७५ में रिटायर होने के एक साल बाद ही उनका कैंसर से देहावसान हो गया था. श्रीमती शारदा तिवारी का सन १९८४ में स्वर्गवास हो गया था. शरद बाबू की सुषमा नाम की एक बेटी भी थी, जो सरकारी स्कूल में अध्यापिका बनी और रिटायरमेंट के बाद स्वर्गवासी हो गयी हैं. वे आजीवन स्वावलम्बी व आत्मनिर्भर रही.

सुपुत्र अनिल तिवारी को सन १९७५ में कलाकारों/ खिलाड़ियों के नाम पर की गयी भर्ती में ए.सी.सी. में नियुक्ति दे दी गयी. पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए करीब १६ साल नौकरी करके १९९१ में वालेंट्री स्कीम के तहत रिटायरमेंट ले लिया। अभी पत्नी सहित कोटा महावीर नगर तृतीय में उसी लाइफ स्टाईल से आनंद पूर्वक रहते हैं. उनका पामरेनियन प्रेम आज भी बदस्तूर है.
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