आप भी उस देश चले
गए हैं जहां से ना कोई चिट्ठी ना कोंई सन्देश आते हैं. आपने अपनी एक रचना में लिखा
है कि “मैं फिर से आऊँगा....” पर मैंने तो आपके मोक्ष की कामना की है ताकि आप
जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाओ. वैसे अब ये धरती आप
जैसे धर्मसहिष्णु व सर्वजन हिताय भावना के चाहने वालों के लायक रही भी नहीं है.
मैं अनुभव कर रहा
हूँ की आपके अवसान के बाद लोग आपकी मौत को अपने पक्ष में भुनाने की पुरजोर कोशिश
में लगे हुए हैं. तमाशों व हँसी ठठ्ठों के बीच आपकी राख को उन जगहों पर नदी-नालों
में विसर्जित किया जा रहा है जहां डालने का कोई महत्व नहीं है. हमारे उत्तरांचल
में अवशेष उन्ही जगहों पर विसर्जित किये जाते हैं जहां का जल गंगा नदी तक पहुचता
है. अन्यथा सीधे गंगा में अर्पित किये जाते हैं.
कोटा के एक वकील
स्वनामधन्य श्री दिनेश द्विवेदी जी (मेरे फेसबुक मित्र) ने चम्बल के श्मशान घाट
में अस्थिविसर्जन पर सही अंगुली उठाई है. उन्होंने आपकी मृत्युपरांत फेसबुक पर एक
लतीफा मुल्ला नसरुद्दीन ( a wise man) के बारे में डाला था , मुझे उसका गूढ़
अर्थ बार बार हाँट करता आ रहा है. उस लतीफे को मैं पुन: अपने शब्दों में लिख रहा
हूँ लेकिन मैं निवेदन भी करना चाहता हूँ कि इसे सीधे सीधे अपने सम्बन्ध में बिलकुल
ना लें. लतीफा इस प्रकार है:
एक थे फन्नेखां लम्बरदार,
वे तब की सियासत के बड़े लम्बरदार थे, उनके गाँव के लोगों ने मिलकर उनको लंबरदारी
से हटवा दिया था क्योंकि उसकी फकत लफ्फाजी से व उनकी औलादों/ कारिंदों के
अत्याचारों से सब दुखी थे. एक दिन लम्बरदार जी खुदा को प्यारे हो गए तो दफनाने के
लिए खानदानी कबरिस्तान में ले जाये गए. धार्मिक नियम के अनुसार उनको जमींदोज करने
से पहले उनके बारे में कुछ अच्छे शब्द बोले जाने थे पर लोग थे कि सबके मुंह में
दही जम गया. मौलवी साहब ने वक्त की नजाकत देखते हुए पड़ोसी गाँव से मुल्ला
नसुरुद्दीन को बुला भेजा, मुल्ला
नसुरुद्दीन सारा माजरा समझ गए और कार्यक्रम को आगे बढाते हुए बोले “ लम्बरदार साहब
अपनी औलादों के मुकाबले ‘बहुत अच्छे’ थे”. ऐसा कहते ही कब्र पर मिट्टी डालनी शुरू
हो गयी. पता नहीं लम्बरदार जी को जन्नत नसीब हुयी या नहीं पर उनकी औलादें जश्न
मनाने में व्यस्त ही गयी क्योंकि रोकाने-टोकने वाला कोई ना रहा था.
ज़माना सब देख रहा
है, समझ रहा है पर आपके जाने का गम / भय उन लोगों को ज्यादा सता रहा है जो मानते
थे कि ‘एक सही आदमी गलत पार्टी में’ था. (आपके लोकसभा में दिए गए एक भाषण से
साभार).
आपने ये भी लिखा है
कि ‘मर्जी से जिऊँ और मन से मरूं’ लेकिन आपकी मृत्यु पर एक वारिस का कहना है कि “अटल
जी ने जाने का गलत टाईम चुना, उनको अगले साल उत्तरायण तक भीष्म पितामह की तरह सर
शय्या पर रहना चाहिए था तब उनकी अंतिम यात्रा और कलश यात्राएं ज्यादा भव्य होती.”
उसने अफसोस जाहिर किया कि अपने देश की अधिसंख्य जनता की याददाश्त महज पंद्रह दिन
होने से उनके चपाटों को सम्पैथी वोट लोकसभा के चुनावों में शयद ही मिल पायेगा.
अंत में, जो ये
कहते हुए सुने गए थे “मैं आपको ‘बड़ा’ इसलिए दीख रहा हूँ कि अपने बुजुर्गों के
कन्धों पर सवार हूँ,” वे आपके अवसान के बाद जमीन पर आ गए हैं. खुदा खैर करे.
मैं हूँ आपका एक
प्रशंसक.
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