मंगलवार, 9 अगस्त 2011

पिक्चर बन सकती है

      रिटायरमेंट के बाद मोतीनाथ ने डिलाईट सिनेमा हॉल के ठीक पीछे जमीन खरीद कर एक छोटा सा घर बनाया है. जहां उसका सुखी परिवार रहता है. मोतीनाथ हर नई पिक्चर को देखता हैं और हर बार ये कहता है कि उसकी जिन्दगी पर भी एक पिक्चर बन सकती है.

      उनकी गाथा यों शुरू होती है कि उसके पिता शिवनाथ किसी गाँववाले के साथ बचपन में ही दिल्ली आ गए थे. घर में अति दारिद्य था क्योंकि जोगी जाति के लोग भिक्षा मांगकर अपना भरण पोषण करते थे. द्वाराहाट, जिला अल्मोड़ा के किसी उपराऊ गाँव में उनका घर और जमीन थी. आमतौर पर ये गृहस्थी वाले बाबा लोग बेनाप की जमीन अथवा मन्दिरों के आसपास अपना बसेरा बनाते थे. अब स्थितियां बदल गयी थी; लोग अपनी फकीरी जाति बताने में संकोच करने लगे थे.

      शिवनाथ को अल्पायु में ही दरियागंज के किसी पंजाबी ढाबे में काम पर लगा दिया गया. ढाबे के मालिक ने चार महीनों के बाद शिवनाथ को अपने एक रिश्तेदार डाक्टर चोपड़ा के घर नौकर के रूप में लगा दिया. कुछ समय बाद डा.चोपड़ा एक अंतर्राज्यीय कम्पनी में मेडिकल आफीसर नियुक्त होकर जबलपुर के निकट कारखाने के अस्पताल में आ गए. साथ में शिवनाथ भी जबलपुर आ गया. शिवनाथ वहां डाक्टर परिवार के साथ लगभग दस साल तक रहा. जब डाक्टर का तबादला बम्बई (तब मुम्बई नाम नहीं बदला था) हो गया तो शिवनाथ को बतौर कुक फैक्ट्री के गेस्ट हाउस में स्थाई नौकरी पर रखवा गए. कुछ समय बाद शिवनाथ छुट्टी लेकर अपने गाँव गया और विवाह सूत्र में बांध गया. अगले साल उसको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम रखा गया मोतीनाथ. मोती जब सात-आठ साल का हो गया तो शिवनाथ उसे अपने साथ मध्यप्रदेश ले आया क्योंकि शिवनाथ को इस नए वातावरण में पढाई का महत्व समझ में आ गया था. वह उसे साथ में ले तो आया पर गेस्ट हाउस का अकेलापन उसको रास नहीं आ रहा था.शिवनाथ अनपढ़ जरूर था लेकिन डाक्टर परिवार के साथ रहते हुए उसे सामान्य जानकारियाँ खूब हो गयी थीं. शहर में समाज कल्याण विभाग द्वारा एक अनाथालय संचालित होता था, जहाँ रहने, खाने-पीने व कपड़ों की मुफ्त व्यवस्था के साथ-साथ चहल पहल भी थी. शिवनाथ एक दिन भारी मन से पुत्र को अनाथ बता कर वहां छोड़ आया.

      प्रारम्भ में मोती को घर परिवार की बहुत याद आती रही. पर सब मजबूरी थी धीरे-धीरे वहां के माहौल में ढलता गया. बच्चों को सामान्यतया पढ़ाया तो जाता था पर सप्ताह में एक दिन ढोल बजाते हुए शहर के अन्दर मदद मांगने के लिए भी भेजा जाता था. यहाँ शिवनाथ ने मोती का नाम मोतीसिंह लिखवा दिया ताकि भविष्य में जाति से कोई  पहिचान न सके. मोती सातवी कक्षा तक अनाथालय में ही पढ़ा, उसके बाद एक दिन शिवनाथ अनाथालय वालों से अनुनय-विनय करके मोती को छुडा लाया. इस बीच और भी भाई बहिन हो गए थे, जिनको जाड़ों में मध्यप्रदेश लाया जाता था. इस प्रकार नए अनुभवों के साथ मोतीसिंह आगे बढ़ता रहा. हाई स्कूल पास करके औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान से आई.टी.आई. के लिए प्रवेश ले लिया. वहां कोर्स पूरा होने के बाद मोतीसिंह को बतौर अपरेंटिस अपने कारखाने में लगवा दिया. कालांतर में मोतीसिंह भी स्थाई कर्मचारी हो गया. आर्थिक हालत भी अच्छी हो गयी. सब ठीक चल रहा था.

      एक दिन बम्बई हेड आफिस से ट्रक में कारखाने का कुछ सामान लेकर मंगलस्वामी नाम का एक ड्राइवर उनके गेस्ट हॉउस में रुका. परिचय होने पर उसने बताया वह भी नाथ बिरादारी का है. घनिष्टता बढ़ती गयी. शिवनाथ गदगद थे की हेड आफिस में उनका कोई आदमी है. स्वामी ने बताया कि उसकी एक कन्या विवाह योग्य है. शिवनाथ को बंबई आने का निमंत्रण देकर मंगलस्वामी वापस चला गया. अब चिट्ठी-पत्री का दौर चला. लडकी का फोटो सुन्दर था. शिवनाथ ने मोतीसिंह की शादी शीला से करने की सहमति दे दी. निश्चित कार्यक्रम के अनुसार बाप-बेटा दोनों बम्बई पहुचे. मंगलस्वामी टैक्सी से उनको अपने आवास धारावी के झोपड़-पट्टी में ले गया. वे पहली बार बम्बई गए थे. महानगर की चकाचोंध व स्वामी की आवभगत से दोनों जने बहुत खुश थे. स्वामी ने एक छोटे से समारोह में शीला और मोती की शादी करा दी. नजदीकी लोगों से खूब गिफ्ट भी आये. शिवनाथ के शब्दों में शानदार शादी हो गयी. बहू को लेकर जबलपुर लौट आये.

      जिसकी कल्पना भी नहीं की थी वह हो गया. पड़ोसी व साथियों को दावत दी गयी. देखने वालों ने कमेन्ट भी खूब किये. "बहू हीरोइन की तरह लगती है". हनीमून पीरियड भी लम्बा चला पर धीरे-धीरे घरवालों को शीला की फैशनपरस्ती व ओछापन चुभने लगा. लोग भी बातें बनाने लगे थे. उधर शीला भी उदास व होमसिक रहने लगी. जल्दी जल्दी तीन चक्कर बम्बई के लग भी गए. शीला को ससुराल रास नहीं आ रहा था. बाद में मालूम पडा कि बम्बई में उसका कोई ब्वायफ्रैंड भी है जो बराबर उसके सम्पर्क में है. लेकिन अब क्या हो सकता था? ये सब बातें शादी से पहले देखनी चाहिए थी.

      इस बार शीला गर्भवती थी और बम्बई में ठहरने का अच्छा बहाना मिल गया. बम्बई में उसने पुत्र गोविन्द को जन्म दिया. बहुत जिद करने के बाद महज पन्द्रह दिनों के लिए जबलपुर आई. फिर जब बच्चे को लेकर गयी तो लौटी नहीं. रिश्ते बिगड़ने ही थी. मामला अदालत तक चला गया. शीला गोबिंद भी सोंपने को तैयार नहीं थी. जबलपुर से बम्बई जाकर अदालत में गुहार लगाना, आना-जाना, वकील के चक्कर ये सब परेशानी के शबब थे. अदालत का फैसला आया कि बच्चा तीन वर्ष की उम्र तक माँ के पास रहेगा. तीन वर्ष का होने पर पुन: कस्टडी के लिए गुहार लगाई तो एपिसोड में नया मोड़ आ गया कि शीला खुद भी जबलपुर आना चाहती है. पिछली कटुता भुला कर नया अध्याय शुरू करने का शीला का नाटक अगर कारगर हो जाता तो मोतीसिंह का आगे का जीवन अँधेरे में डूब जाता. हुआ यों कि शीला पूरे नाज-नखरों के साथ आई और घरवालों से बड़े लाड़ प्यार से पेश आ रही थी. अपने बच्चे के भविष्य को बुरी आशंकाओं से बचाने के लिए जो प्लान उसने बनाया, वह बहुत ही चतुर दिमाग की उपज थी वह चाहती थी कि मोतीसिंह अपनी नसबंदी करा ले; उसके लिए उसने मोतीसिंह को मानसिक रूप से तैयार भी कर लिया था. उसके बाद उसका इरादा बम्बई भाग जाने का था, पर भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया. वह बम्बई से गर्भवती होकर आई थी और उसका गर्भपात हो गया. घरवालों के सामने उसकी पोल खुल गयी.

      घर का वातावरण अत्यंत शर्मनाक, दर्दनाक और बोझिल हो गया था. मोतीसिंह एक सप्ताह बाद शीला को बम्बई की गाडी में बैठा कर हमेशा के लिए टा-टा कर आया. लोग पूछते रह गए पर बताने की बात नहीं थी एक साल बाद घर-गाँव जाकर एक सजातीय गरीब की सुन्दर सी लड़की मालती से मोती का पुनर्विवाह हुआ. जिससे बाद में एक लड़का और दो लडकियां हैं. गोविन्द एक सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गया है. उसकी शादी पहाड़ जाकर की गयी. शिवनाथ गत वर्षों में स्वर्ग सिधार गए थे.

      मोतीसिंह अब पुन: मोतीनाथ कहलाना पसंद करता है. अपने पौत्र कमलनाथ को अपने साथ पिक्चर दिखाने ले जाता है और कहता है कि मेरी जिन्दगी पर भी पिक्चर बन सकती है.
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