बनियाला, सोमेश्वर के पास एक छोटा सा पहाड़ी गाँव, जिसमें मुश्किल से २५ घर ब्राह्मणों के और १० घर शिल्पकारों के थे. ब्राह्मण सभी कर्म-कांड वृत्ति वाले थे इसलिए खेती की जमीन होते हुए भी उस ओर ज्यादा ध्यान नहीं देते थे. जजमानी-निसरौ से ही काफी उगाही हो जाती थी. पूरे इलाके में उनकी जजमानी फ़ैली हुई थी. अब नई पीढ़ी इस वृत्ति वाले धन्धे से दूर होती जा रही थी. कुछ अध्यापक हो गए थे और कुछ सैनिक सेवाओं में चले गए थे. शिल्पकार लोग पहले से पंडितों की सेवा में रहते थे उन्हीं की जमीन पर रहते आ रहे थे, खेती भी उन्ही की जमीन में करते थे पर अब खेती में ज्यादा दम नहीं रह गया था क्योंकि जंगली सुअरों व बंदरों से फसल बचाना कठिन होता जा रहा था. पता नहीं ये नुकसान करने वाले जानवर इतनी संख्या में कैसे पहाड़ों पर बढ़ गए हैं. एक कारण ये भी है कि सरकार ने इनको संरक्षित घोषित किया हुआ है. इसलिए शिल्पकार लोग भी खेती में हाड़-तोड़ मेहनत के बजाय खुली मजदूरी करने में रूचि रखने लगे थे. ये भी था कि नए जमाने की हवा ने उनको ‘दलित’ होने का एहसास करा दिया है, अब वे पंडितों की खुट्टाबर्दारी में रहना भी नहीं चाहते हैं. लेकिन गाँव की सामाजिक व्यवस्थाएं अभी भी बहुत कुछ सामंजस्यपूर्ण थी. सुख-दु:ख, शादी-ब्याह व अन्य कामकाज में सब एक दूसरे के संपर्क में रहते थे. हाँ, अब पहले वाली उंच-नीच व छुआ-छूत जैसी बात नहीं रही, रहनी भी नहीं चाहिए.
पंडित बुद्धिबल्लभ लोहानी का इकलौता बेटा रेवाधर बी.एस.एफ. में भर्ती हो गया था. कहीं दूर पंजाब-कश्मीर की तरफ तैनाती पर चला गया था. पाँच साल बाद जबरदस्ती घर बुला कर ग्वाल्दम के पास गढ़वाल के गाँव देवाल से
उसके लिए एक सुन्दर सी, अल्प पढ़ी-लिखी, दया नाम की दुल्हन ले आये. पहाड़ के रीति रिवाज से सब अनुष्ठान
किये गए.
रेवाधर ने पहले दिन ही उसको बता दिया कि वह पंजाब में महेंद्रकौर नाम की लड़की लडकी से प्यार करता है और उसके साथ रहता है. ये शादी उसने माता-पिता के दबाव में आकर महज खानापूरी के लिए की है. एक नव-विवाहिता के लिए इससे बड़ा आधात क्या हो सकता था कि उसका पति उसका नहीं है और इतना बड़ा धोखा उसके साथ किया गया. वह अंतर्मन से घायल हो गयी, रोती रही, आक्रोशित भी हुई, पर वह अपनी वेदना किस से कहती? कैसे कहती? दुविधा में थी. मायके में केवल माँ थी जो अपनी गरीबी व मजबूरियों में जी रही थी.
रेवाधर की बात सुन कर उसने उसको समर्पण नहीं किया, प्रतिशोध की भावना में जलते हुए वह ना जाने क्या क्या अशुभ सोचने लगी थी. कभी पूरे घर को आग लगाने की बात सोचती थी और कभी आत्महत्या करने की इच्छा की ज्वाला में तपती रही, पर कर कुछ नहीं पाई.
रेवाधर जल्दी ही अपनी नौकरी में लौट गया. माँ-बाप बेटे के इस चरित्र से बेखबर बहू के अजीब व्यवहार से परेशान रहने लगे. एक लडकी कितने सारे सपने संजोकर ससुराल आती है और यदि उसे वहाँ बेचारी दया की तरह दु:ख का रेगिस्तान मिले तो उससे नियमित व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? वह घुटती रही क्योंकि कहीं कोई आशा की किरण नजर नहीं आती थी.
इसी बीच पंडित बुद्धिबल्लभ ने पुराने घर के बगल में ही एक नया मकान बनाने की प्रक्रिया शुरू करवा दी. चार मजदूर+मेसन काम पर लग गए. उन्ही में गाँव का ही एक शिल्पकार लड़का दयाराम ओड़ (मेसन) का काम करने लगा. नाम दयाराम सुनकर लोहानी जी की बहू दया को पता नहीं क्या सूझा उसने उससे कहा, “तुम्हारा नाम दयाराम है और मेरा नाम दया, अजीब संजोग है.”
इस तरह दयाराम व बौराणी दया के बीच संबाद शुरू हुआ. दया उसके लिए चाय नाश्ता का विशेष ध्यान रखने लगी और दयाराम को भी लगने लगा कि बौराणी उसके प्रति आकर्षित है. मनुष्य भावनाओं व कमजोरियों का पुतला है, दोनों में घनिष्ठता बढ़ती गई दैहिक आकर्षण जात-पात धर्म-अधर्म कुछ नहीं देखता है. इस प्रकार दया चोरी छुपे दयाराम से सम्बन्ध बना बैठी. ये उसके आक्रोश की चरम परिणति मानी जा सकती है या शरीर की भूख भी. वे नित्य मिलने लगे. इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छुपते हैं. बात आपस में अन्य कारीगरों तक गई तो उन्होंने मकान मालिक को बता दिया कि "तुम्हारी बहू शिल्पकार के संग लग गयी है." बखेड़ा होना ही था. सास ससुर ने दया की जम कर पिटाई की तो उसने भी मुंह खोला और उनके बेटे के बारे में सब कुछ कह डाला. पंडित बुद्धिबल्लभ उसकी बातों से संतुष्ट नहीं हुए. वे तो उसे जान से मार देते पर अन्य बिरादर बीच-बचाव में आ गए. दयाराम को बुलाया गया अनेक अपशब्दों व गालियों से उसका स्वागत किया गया. उससे कहा गया कि वह दया को वहां से ले जाये क्योंकि वह भ्रष्ट हो चुकी थी. अब उसके लिए लोहानी जी के घर में कोई जगह नहीं थी.
दयाराम ने भी हिम्मत दिखाई. सबके सामने वह दया का हाथ पकड़ कर ले गया. दया ने भी पीछे मुड़कर नहीं देखा. गाँव के लोगों ने छी-छी थू-थू किया, पर जो होना था सो हो गया. दया के पास कोई विकल्प भी नहीं था.
ये घटना लगभग दस साल पुरानी हो चुकी है. दया व दयाराम अभी भी उसी गाँव में रहते हैं. उनके तीन बच्चे हैं. सुखी हैं या दु:खी? इस पर कोई टिप्पणी करना गैरवाजिब होगा पर ये सत्य है कि दोनों प्यार से रहते हैं.
उधर इस कांड के बाद पंडित बुद्धिबल्लभ लोहानी शर्म के मारे अपनी पत्नी सहित गाँव छोड़ कर काठगोदाम आ गए थे. जो मकान बन रहा था वह वैसा ही अधूरा रह गया जिसमे अब सिसौना (बिच्छू घास) उगा हुआ है.
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