बुधवार, 27 जून 2012

दिल से

इस भीड़ भरी दुनिया में मैं अकेला बैठा हूँ, न चाहते हुए भी तुमको याद कर रहा हूँ कि मेरी जिंदगी की वीरानी के लिए तुम, सिर्फ तुम जिम्मेदार हो.

आज हमारी शादी की पहली मनहूस सालगिरह है. कमरे में मैं अन्धेरा करके बैठा हुआ हूँ. तुम्हारे द्वारा किया गये दुर्व्यवहार को स्मृरण करके मैं अपना खून जला रहा हूँ. तुम्हारी गुस्ताखियों को मैं कभी क्षमा नहीं कर सकता हूँ.

तुम्हारे खूबसूरत चेहरे के पीछे जो विद्रूपता छिपी है, उसने मेरे सीधे सपाट जीवन को कलुषित कर दिया. तुम अपने अहँकारयुक्त हिकारत भरी मुस्कान के साथ घर छोड़ कर गयी, जिसकी चोट का दर्द मैं लगातार सहला रहा हूँ.

तुम अगर ये सोच रही होंगी कि पिछली बार की तरह मैं तुम्हें फिर से मनाने आऊँगा तो ये तुम्हारी खामखयाली होगी, अब मैं तुमसे पूरी तरह नफरत करता हूँ.

ये शादी वाला पलंग, गद्दे, चादर-तकिये, जिन पर विवाहोत्सव के चिन्ह अभी पुराने नहीं पड़े, मुझे बेहद टीस देने लगे हैं. मैं जल्दी ही इनको घर के बाहर कर दूंगा. दीवारों पर तुम्हारी पसंद के रंग, परदे, व पेंटिंग्स मुझे फूहड़ लगने लगे हैं.

मेरे कमरे में तुम्हारी ड्रेसिंग टेबल पर रखे हुए देशी-विदेशी महंगे सौंदर्य प्रसाधन मुझे गंदे कचरे के समान दीखते हैं. अभी मैंने इनको फेंका नहीं है ताकि परिवार के लोग अन्यथा न लें. इसलिए एक मोटी चादर डाल कर इसे ढक दिया है.

तुमने अच्छा किया कि अपनी दहेज सामग्री के साथ साथ अपने जेवरों का बक्सा भी लेकर गयी अन्यथा ये सोने के सर्प मुझे डसते रहते.

तुम एक बिगडैल, जिद्दी, बद्तमीज़ औरत हो, जिसे अपने बाप के नाम-धाम व धन दौलत का घमंड है. पर तुम खुद क्या हो? तुम्हारी अपनी निजी पहचान क्या है? ये तुमने कभी भी नहीं सोचा होगा पर एक दिन अवश्य ऐसा आएगा कि तुम पाश्चाताप के घूंट पियोगी.

तुम्हारे मिनिस्टर बाप और रईसजादी माँ ने तुम्हारी जंजीर मुझे क्यों पकड़ाई, ये मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ. ये जंजीर भी कच्चे धागों की निकली जिसे तुम बार बार तोड़ने की कोशिश करती रही. मैंने भी ठान लिया है कि अबके तुमको फिर से तोड़ने का दंभपूर्ण मौक़ा नहीं दूंगा.

मैं एक शिक्षक हूँ, मेरे अपने पवित्र संस्कार व आदर्श है, तुम चाहती थी कि मैं भी तुम्हारे आदर्श हीरो अपने जीजा जी की तरह तुम्हारे बाप के तलवे चाटता रहूँ. मैं उनके माया-प्रपंच के सँसार पर थूकता हूँ.

अब मैं तुम्हारा कुछ भी नहीं लगता हूँ. तुम मेरे लिए एक दु:स्वप्न की परछाई मात्र हो.

मैं तुमको अपने रिश्ते की डोर से आजाद करता हूँ, और चाहता हूँ कि तुम अब भूले भटके भी मेरे मन मन्दिर की घंटी बजाने की कोशिश मत करना.
                                               ***

5 टिप्‍पणियां:

  1. खामोश दर्द.. दिल को छू गया....

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  2. कभी दो विश्वों में कुछ भी एक सा नहीं होता है..उनका अलग रहना ही श्रेयस्कर..

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  3. बेचारी अब एक बेवकूफ मास्टर से करेगी अगर शादी तो ये तो होना ही था मिनिस्टर का दामाद बन ही गया था क्यों नहीं कर पाया होगा एक लाल बत्ती का जुगाड़ अपने लिये भी?

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  4. दर्द से भरी कहाँनी ...पढ़कर लगा ...जीवन मे विवेक कितना आवश्यक है ...!!सार्थक कथा ...

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