रोमांच में भी एक तरह
की आनन्दानुभूति होती है. हमारे जीवन में कई ऐसे अवसर आते हैं, जब कुछ नया होने को
होता है और हम अनेक कल्पनाओं के साथ उस क्षण की प्रतीक्षा किया करते हैं.
मेरे इस दीर्घ जीवन
में भी कई क्षण रोमांचित करते रहे हैं, नवीनतम ये है कि मैंने पहली बार दिल्ली की
मैट्रो रेल से यात्रा की है. मैं नियमितरुप से पुस्तकें व समाचार पत्रों का
पाठक रहा हूँ और समसामयिक विषयों पर अपनी
जानकारी अपडेट करता रहता हूँ. दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. मदनलाल खुराना जी
के समय से मैट्रो रेल का निर्माण प्रारम्भ हुआ था, और शीला दीक्षित जी के मुख्यमंत्री
कार्यकाल में मैट्रो रेल का ये बड़ा प्रोजेक्ट कार्यरूप में परीणित हुआ. गत वर्षों
में भी बीच बीच में कई बार दिल्ली आना जाना हुआ. तब इस रेल के लिए जगह जगह सडकों की
खुदाई तथा ऊंचे ऊंचे सीमेंट के स्तम्भ बनते देखे थे. सचमुच ये बहुत बड़ी परियोजना
थी विशेषकर अंडरग्राउण्ड ट्रैक डालना बड़ा दुरूह कार्य था ऊपर बड़ी बड़ी इमारतें और उनके नीचे खुदाई करके रेलवे स्टेशन बनाए गए हैं.
परिवहन के लिए निजी
साधन होने के कारण मेरे पुत्र प्रद्युम्न ने मुझे मैट्रो रेल में सफ़र करने का कोई मौक़ा
नहीं दिया।. परन्तु इस बार मैं हल्द्वानी से ही ठान कर आया था कि मैट्रो रेल के सफ़र का
अनुभव जरूर करूंगा.
ठेठ एसियाड के समय
(इंदिरा गांधी का युग) से ही दिल्ली ने विकास की गति पकड़ी थी, अन्यथा उससे पहले
दिल्ली के किसी सड़क या चौराहे पर सिगनल लाईटें तक नहीं लगी हुयी थी. तब दिल्ली थी
भी बहुत छोटी. मैं सन 1957-58 में दिल्ली की सड़कों पर साईकिल से खूब घूमा था.
सरकारी बसों में सफ़र करना भी बहुत सस्ता और सरल हुआ करता था. सन 1958-59 में एक नई
स्कीम निकाली गयी थी कि छुट्टी के दिनों में महज एक रूपये का टिकट लेकर दिन भर
कहीं भी घूमा जा सक़ता था. बसें भी सीमित थी. कुल 31 रूट थे. 21 नंबर यूनिवर्सिटी आती जाती
थी. आख़िरी 30 नम्बर रेलवे स्टेशन से कालकाजी और 31 नंबर मालवीय नगर जाती थी. ये
दोनों रिमोट रिफ्यूजी बस्तियां थी.
गत चालीस-पचास सालों
में ना जाने इतनी जनता कहाँ से दिल्ली में आ जुटी है. दिल्ली के चारों तरफ दूर दूर
तक बहुमंजिली इमारतों का जंगल खड़ा हो गया है. और ये अभी भी अपना क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है. तब जमुना पार कुछ भी नहीं था, गांधी नगर, शहादरा व गाजियाबाद को आने
जाने के लिए केवल लालकिले के पिछवाड़े वाला यामुनापुल था, जिसमें ऊपर रेल लाइन व
नीचे मोटर+पैदल मार्ग होता था. कनॉटप्लेस, जिसे अब राजीव चौक नाम दिया गया है, तब भी
सुन्दर था. दोहरे चक्र में गोल खम्भों वाली एक सी धवल इमारतें अंग्रेजों के समय की
बनी हुयी हैं. उनकी ही स्थापत्यकला का नमूना हैं. अब आसपास जो ऊंची बिल्डिंग्स दिखती
हैं, वे तब नहीं थी. दिल्ली विश्वविद्यालय, किंग्सवे कैम्प, तीमारपुर, पुराना विधान
सभा भवन, कश्मीरी गेट, दरियागंज, इंडिया गेट, रेसकोर्स.सफदरजंग, लालकिले के सामने जैन मंदिर, गुरुद्वारा,
फुव्वारा, चांदनी चौक, सदर बाजार, पहाड़ गंज, बिड़ला मंदिर, करोलबाग, झंडेवालान,
सब्जीमंडी, सब सिनेमा रील की तरह घूम रहे हैं. पुरानी दिल्ली की सड़क के बीचोंबीच एक ट्राम
धीमी गति से घंटी बजाते हुए चलती थी.
कुतुबमीनार को रेलवे स्टेशन से 17 नंबर बस जाती थी. रास्ते में युसूफ सराय से
आगे जंगल पड़ता था.
आयुर्विज्ञान संस्थान तब बनने लग गया था. पुराने किले की बगल में नया चिड़िया घर बनाया जा रहा था. सन 1958 में प्रगति मैदान में एक प्रदर्शनी लगी थी, जहां अमेरिकी स्टाल पर मैंने पहली बार टेलीवीजन चलता देखा था. तब मेरी समझ में इसके बारे में कुछ नहीं आया था. चूंकि मैं दूर दराज उत्तरांचल के एक अति पिछड़े गाँव से आया था, मेरे लिए दिल्ली एक दूसरी ही दुनिया थी जिसके अनुभव बहुत रोमांचित करने वाले होते थे. दिल्ली यूनिवर्सिटी से पैथोलाजी की ट्रेनिंग लेकर कुछ महीने दिल्ली म्युनिसिपल चिकित्सालय में काम करने के बाद बड़ी वेतन+सुविधाओं के लालच में 10 अगस्त 1960 को दिल्ली छोड़कर लाखेरी राजस्थान चला गया.
आयुर्विज्ञान संस्थान तब बनने लग गया था. पुराने किले की बगल में नया चिड़िया घर बनाया जा रहा था. सन 1958 में प्रगति मैदान में एक प्रदर्शनी लगी थी, जहां अमेरिकी स्टाल पर मैंने पहली बार टेलीवीजन चलता देखा था. तब मेरी समझ में इसके बारे में कुछ नहीं आया था. चूंकि मैं दूर दराज उत्तरांचल के एक अति पिछड़े गाँव से आया था, मेरे लिए दिल्ली एक दूसरी ही दुनिया थी जिसके अनुभव बहुत रोमांचित करने वाले होते थे. दिल्ली यूनिवर्सिटी से पैथोलाजी की ट्रेनिंग लेकर कुछ महीने दिल्ली म्युनिसिपल चिकित्सालय में काम करने के बाद बड़ी वेतन+सुविधाओं के लालच में 10 अगस्त 1960 को दिल्ली छोड़कर लाखेरी राजस्थान चला गया.
दुनिया गोल है. आज फिर से घूम फिर कर दिल्ली आ गया हूँ. वर्तमान विहंगम दिल्ली को युग परिवर्तन की अनुभूति के साथ देख रहा हूँ. रोमांचित हूँ. मेरा पौत्र
सिद्धांत बॉस्टन (अमेरिका) में फिजिक्स इंजीनियरिंग पढ़ रहा है. इन दिनों भारत आया
हुआ है. मैंने उसको अपनी इच्छा बताई कि मुझे मैट्रो ट्रेन के सफ़र का अनुभव करना है
तो उसने मुझको बताया कि शाम-सुबह बिजी आवर्स में तो बहुत भीड़भाड़ रहती है. दोपहर के
समय जाना चाहिए. ठीक 55 साल बाद 11 अगस्त 1915 को उमस भरी दोपहरी में जब हम वैशाली
मैट्रो ट्रेन में दाखिल हुए तो ए.सी. की ठंडक से बहुत राहत महसूस हुई. भीड़ तो तब भी, थी लेकिन एक नौजवान ने तुरंत सीट छोड़ कर मुझे बैठने का आमंत्रण दे दिया. कुछ देर
बाद मुझे मालूम हुआ की दरवाजे के पास वाली छोटी सीटें बुजुर्गों/विकलांगों के लिए
नामांकित की गई है. ये सूचना सीट के पीछे लिखी गयी है. मैं यद्यपि अभी भी दिल से
जवान हूँ, पर ये घटना मुझे बूढ़ा होने का अहसास जरूर करा गयी.
मैंने कई बार मुम्बई
की लोकल ट्रेन में सफ़र किया है, जहाँ लोग धक्का मुक्की करके भागते रहते हैं. बिजी आवर्स में तो हम जैसे लोगों का चढ़ना उतरना बहुत मुश्किल काम है. अपनी विदेश यात्राओं
के दौरान जर्मनी में फ्रेंकफर्ट, थाईलैंड में बैंकाक, तथा अमेरिका के अटलांटा
एयरपोर्ट पर मैट्रो की ही तरह ट्रेन के डिब्बे यात्रियों को उनके निर्धारित गेट तक लाती- ले जाती है. वहां मैंने देखा कि लोग बहुत अनुशासित होते हैं. उसकी थोड़ी झलक
मुझे अपनी मैट्रो में अवश्य मिली ‘क्यू’ में लगने का एटिकेट
दिल्ली वालों में आया है अन्यथा मैंने यहाँ बसों में चढ़ने उतरने वालों को धक्का
मुक्की करते व जेबकतरों के शिकार होते हुए भी देखा है.
वैशाली से आनंद
विहार, प्रीत विहार, निर्माण विहार, कड़कड़दूमा, यमुना विहार, प्रगति मैदान,
इन्द्रप्रस्थ व बाराखम्भा, इसके बाद धरती के अन्दर गुफा से गुजरते हुए राजीव चौक जंक्शन पहुंचे. वहां सिद्धांत ने मुझे ब्लू लाइन, व अन्य रूट पर यलो लाइन या
परपल लाइन ट्रेन के बारे में बताया. ट्रेन में हर स्टेशन आने पर यात्रियों को सूचना
देते हुए सावधान किया जाता रहा. मैट्रो रेल में सस्ते में सफ़र होता है, और समय की बचत
भी बहुत होती है. कुल मिलाकर राजीव चौक पहुँचने के बाद हमने अंडरग्राउंड पालिका बाजार
का भी एक छोटा चक्कर लगाया और उसी रोमांच के साथ घर लौट आये. मैं मन ही मन एक पुरानी
फिल्म का गाना दुहरा रहा था, "ये जिन्दगी के मेले कभी ख़तम ना होंगे, अफसोस
हम ना होंगे."
***
हम भी बदलते हैं और हमारी दुनिया भी। सच है, "ये जिन्दगी के मेले दुनिया में कम न होंगे ..."
जवाब देंहटाएं