आजकल जब दूध ही नकली
बिकता है तो दूध से बनी मिठाईयों की शुद्धता की भी कोई गारंटी नहीं है. इसलिए लोग मावा (खोया) से बनी
मिठाईयों से परहेज करने लगे हैं. वार-त्यौहारों पर स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी
भूले-भटके छापा मारकर नकली मावे को पकड़ कर अखबारों की सुर्ख़ियों में लाते रहते हैं, बाकी साल भर सोते रहते हैं. जो लोग स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हैं, वे वसायुक्त मिठाईयों से दूर
रहते हैं क्योंकि ये कॉलेस्ट्रॉल बढ़ाने के मुख्य स्रोत हैं. वैसे तो ‘मीठा’
हमारी रसना की पहली पसंद रहती है, और अनादि काल से हमारे देश में शुभ कार्यों में
मिठाई शगुनी मानी जाती है. अभी भी हम लोग रिश्तेदारी में मिठाई के डिब्बों का
आदान-प्रदान करना जरूरी व्यवहार मानते हैं. इसलिए कोशिश यह रहती है कि मिठाई विश्वसनीय
हलवाईयों/स्वीट-मार्ट्स से ही खरीदी जाए. बेसन के लड्डू, पेठे की मिठाई आदि कई
मिठाईयां ऐसी होती हैं, जिनमें मिलावट की संभावनाएं बहुत कम होती हैं. हमारे पड़ोस
में रहने वाले गुप्ता जी तो शगुन में गुड़ की डली देना उत्तम मानते हैं.
मिठाई को मिष्टान्न
भी कहा जाता है. बड़े हलवाईयों की दूकानों को जब ‘स्वीट्स’
या ‘स्वीट-मार्ट’ नाम नहीं थे, तब बड़े बड़े अक्षरों में ‘मिष्टान्न
भण्डार’ लिखा रहता था. मिष्टान्न में चीनी, दूध, मावा, मैदा, सूजी,
गेहूं का रस, चावल का आटा, दालों का चूर्ण, गोंद, आरारोट, कोक, साबूदाना आदि
पदार्थ मिलाये जाते हैं. खुले बाजार में उपलब्ध टॉफ़ी-चाकलेट भी बच्चों के पसंदीदा
मिठाईयां होती हैं. बचपन में संतरे के स्वाद+रंग वाले चीनी से बनी ‘विलायती
मिठाई’ की गोलियां चूसने का आनंद कैसे भूला जा सकता है. गेहूं की बोवाई
के बाद गांव में जो गन्ने की पेराई होती थी और गुड़ बनता था, उसकी खुशबू व स्वाद आज तक जेहन
में बसे हुए हैं.
आज से बीस-पच्चीस साल
पहले हम लोग डिटर्जेंट वाले दूध की कल्पना भी नहीं करते थे. हमारे दूध की नदियों
वाले देश को बेईमान मिलावटखोरों ने दाग लगा कर बदनाम कर रखा है. लेकिन ये भी सच है
कि ईमानदारी और नेकी अभी पूरी तरह मरी नहीं है. सब लोग ऐसे नहीं हैं. आगरा का
बेहतरीन पेठा, मथुरा के स्वादिष्ट पेड़े, अल्मोड़ा की बाल मिठाई और सिंगोड़े, मेरठ की
रस मलाई, जयपुर के घेवर, बीकानेर के रसगुल्ले, कोलकता की बंगाली मिठाईयां, मुम्बई
का कराची हलवा, दिल्ली का सोहन हलवा, गुलाब जामुन+कालाजाम, हैदराबाद का मैसूर पाक,
हरियाणा की कुल्फी, कलाकंद (मिल्क केक) और भी बहुतेरी देसी मिठाईयां हैं; खाने
वालों का दिल हो गुलगुल वारे वारे वाह वाह.
अब ‘हलवाई’
तो सिर्फ छोटे-मोटे शहर कस्बों के नुक्कड़-गलियों-बाजारों में पाए जाते हैं, जो जलेबी,
बर्फी, इमरती, कचोरियों, समोसों आदि चटपटे पकवानों से लोगों को तृप्त करते रहते
हैं, बाकी बड़े शहरों में एयरकंडीशन्ड शोरूम्स में ‘स्वीट्स’
या 'स्वीटमार्ट’ बन गए हैं. जहाँ देसी-विदेशी नाम या
ब्रांड के लेबल से सजी रहती हैं. खूब बिकती भी हैं. भाव पूछने की जरूरत नहीं होती
है क्योंकि हर थाल पर कीमत का तमगा लगा होता है. जो चीनी बाजार में 30 से 40 रुपयों
में प्रति किलो बिकती है वह मिठाई बन कर 600-700 तक की ऊंची कीमत में मिलती
है. क्योंकि इसमें पिस्ते, काजू आदि मेवे यानि ड्राई फ्रूट्स का तड़का लगा होता है. अब तो बड़ी
दूकानों में "शुगर-फ्री मिठाईयां" भी मिलती हैं.
जहां तक मुझे जानकारी
है, हमारे देश में मिठाईयां, मैनुअल, यानि कारीगरों के अपने हाथों से बनायी जाती है,
जबकि विकसित देशों में ये काम स्वचालित, साफ़-सुथरी मशीनों से होता है. मिठाई खाने वाले यदि हमारे
कारीगरों की वर्कशाप नहीं देखें तो ज्यादा अच्छा है, ऐसा लोग कहते हैं. जो मिठाई
चांदी के वर्क में थालों में सजी रहती है, उसके खाद्य रंगों व रसायनों के मिलावट के
बारे में भी सजगता की आवश्यकता है.
अंत में शुभ कामना है, ‘बनी रहे ये शहद की दुनिया, खाते रहें रबडी के मालपुवे’.
हाँ, मधुमेह वाले डॉक्टरी सलाह के बिना बदपरहेजी ना करें.
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