मेरे एक मित्र ने फेसबुक पर चीड़ का नवप्रस्फुटित पुष्प का चित्र डाल कर जब ये पूछा कि “ये किस चीज का चित्र है?” तो मेरी स्मृति हरी हो गयी और मैं बचपन में अपने कूर्मांचल स्थित गाँवों के पहाड़ों के विशालकाय चीड़ बृक्षों के वनों में काल्पनिक भ्रमण करने लगा. नए बुनियों (बाल चीड़ बृक्ष) से लेकर वृद्ध-झंखाड हुए चीड़ बृक्षों के बारे में कुछ लिखने का मन हुआ. इस विषय में पूरी बोटेनिकल जानकारी हेतु विकिपीडीया द्वारा संग्रहित लेख पढ़ने के लिए अपना कंप्यूटर खोला तो इस विषय में बृहद जानकारी+फोटो-युक्त अनेक लेख मिले. चीड़ कहाँ कहाँ पैदा होता है? पिरामिडनुमा पेड़ कितनी ऊँचाई तक के हो सकते है? कितनी प्रजातियों के चीड़ विश्व में पाए जाते हैं? इसकी लकड़ी, पत्ते व तैलीय अवयवों का क्या क्या उपयोग होता है? तथा लीसा, विरोजा, तारपीन का तेल, डामर व राल का सारा विवरण हिन्दी, अंगरेजी व अन्य भाषाओं में विस्तार से पढ़ कर नई-नई बाते उसमें मिली. लेकिन मैंने जो चीड़ के बारे में समझा था/समझा हूँ, उस पर कुछ पंक्तियाँ अवश्य लिखना चाहता हूँ.
चीड़ की लकड़ी चूल्हों में जलाने का एक मुख्य ईंधन हुआ करती थी. तब कुकिंग गैस जैसी किसी चीज का नाम लोगों को मालूम नहीं था. गांव के हर घर वाले पुराने चीड़ के पेड़ काट/कटवा कर अपना एक टाल बना कर रखते थे. जो गहन तैलीय हिस्सा होता था उसके छिलुके बनाए जाते थे जो देर तक जलते रहते थे, और प्रकाश करने के काम आते थे. आज भी दूर दराज के गाँवों में छिलुकों का प्रयोग अवश्य होता ही होगा. छिलुकों से बहुत झोल (कार्बन) निकलता है. इसका विकल्प मिट्टी का तेल या बिजली बहुत बाद में आयी.
मकान बनाने के लिए भराणे, बांसे, व तख्तों का चिरान विशेष तरीके से किया जाता है. तब जंगलों के लिए सरकारी दखल-क़ानून भी ज्यादा नहीं थे. पेड़ भी इफरात में थे, फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट से इजाजत लेकर उपलब्धता हो जाती थी. चोरी से या पतरौल/रेंजरों की मिलीभगत से भी पेड़ कटते रहे हैं.
चीड़ का पाइनएप्पल जैसा, पर कठोर फल, जिसे कुमायूँ में ‘स्योंत’ कहा जाता है के अन्दर हर फलक में चिलगोजा के टेस्ट वाला एक पंखयुक्त बीज होता है. स्योंत हरा होता है औए परिपक्व होने पर बादामी रंग का हो जाता है. ये बीज गर्मियों में फूटने (फैलने) पर हवा से उड़ कर प्राकृतिक रूप से बाहर दूर दूर पहुँच जाता है बरसात में नमी मिलने पर धरती में जड़ डाल कर उग आता है. इनका जन्मदर बहुत ही कम है क्योंकि इस बीज को खाने वाले बहुत से कीट हैं और असुरक्षित पड़े रहने से पानी के बहाव के साथ चले जाते हैं और नष्ट हो जाते है. अब जब बड़े स्तर पर पेड़ों का कटान-चिरान हुआ और पहाड़ बृक्षहीन हो गए तो सरकार द्वारा नए सिरे से बीज रोपण/पौधा रोपण किया जा रहा है. ये पर्यावरण के प्रति सजगता की निशानी भी है.
कुमाऊं-गढ़वाल में जब परिवहन के लिए सड़के नहीं थी तो चीड़ के गिल्टियों, बल्लियों व सिल्फरों को नदियों में बहा कर मैदानी मुहानों तक ले लाया जाता था. जो रेल लाइन के स्लीफर व अन्य भवन निर्माण आदि में उपयोगी होते थे. बचपन में हम इस ‘बहान’ को बड़े कौतुहल से देखा करते थे.
यद्यपि चीड़ का पेड़ सदाबहार होता है, पर हर साल जाड़ों में पुराने पत्ते गिरते रहते हैं और नए आते रहते हैं बसंत ऋतु आते ही अनेक नई कोपलें फूटती हैं बादामी रंग का पिरूल (पुरानी पत्तियाँ) पालतू जानवरों के सुतर-बिस्तर के लिए काम में लिया जाता है तथा खेतों में पुरानी फसल के डंठलों/खुमों को जलाने के काम में भी लिया जाता है. अब इस पिरूल पर वैज्ञानिक प्रयोग भी हो रहे है, इसको कम्प्रेस करके क्यूब बनाये जा रहे हैं जो आल्टरनेटिव फ्यूल के रूप में प्रयुक्त हो रहा है.
चीड़ के फूल पर एक पीले रंग का अबीर भी फागुन के मदमाते मौसम में पराग की तरह पैदा होता है जिसमें प्यारी सी महक भी होती है.
चीड़ के सयाने पेड़ों से लीसा दोहन भी खूब होता है. पेड़ के तने को छील कर कुप्पियाँ लगा दिये जाते हैं, जिनमें लीसा (गोंद) टपकता रहता है, जो बाद में कनस्तरों में भरकर कारखानों को भेजा जाता है. इसके अनेक उत्पाद हैं सरकार के राजस्व का ये बड़ा श्रोत है.
इन पंक्तियों के लेखक को संयुक्त राज्य अमेरिका में अटलांटा जाने का अवसर मिला वहाँ भी चीड़ खूब है पर वहाँ के चीड़ की खासियत यह है कि पेड़ पतले व सपाट लंबे होते हैं, उनके फलों का साइज भी छोटा होता है. अमेरिका में तमाम बिजली के पोल चीड़ के हैं तथा मकान बनाने का ९०% मैटीरियल चीड़ के तख्तों से बना होता है. पर वे लोग इनको पहले केमिकली सीजन्ड कर लेते हैं. ताकि उनकी लाइफ लम्बी हो और दीमक-पानी उसको नष्ट नहीं कर पाता है. लेकिन वहाँ लीसा दोहन के दर्शन कहीं नहीं हुये. पिरूल का उपयोग खुली जगहों को ढकने में भी होता है ताकि मिट्टी ना उड़ सके, इसी तरह पेड़ की बाहरी छिलके (बुगेट) का उपयोग आँगन-बगीचों में जहाँ जरूरत हो बिछा कर खरपतवार ना उगने देने के लिए किया जाता है. यही कारण है कि चीड़ के जंगलों में दूसरे पादप बहुत कम उग पाते हैं.
चीड़ तथा सजावटी मोरपंखी के पौधे व ठन्डे इलाकों में देवदार के पेड़ एक ही प्रजाति के हैं. इनके पत्ते मसलने पर एक सी गन्ध आती है.
अगर आप नैनीताल घूमने आयें तो आपको चीड़ के फलों से बने कई सजावटी कलाकृतियां सस्ते दामों में उपलब्ध हो सकती हैं.
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Bachpan mein garmiyuon ki chuttiyon mein humne bhi khub syote dhunde hain aur pirul ke uppar ladki ke takhto mein phislne ke maze bhi lute hain .Aapke post se ghar ki khusboo yaad aa gayee :)
जवाब देंहटाएं*lakdi .
जवाब देंहटाएंmujhe bhi yaad ayaa, bachapan men pirulon men fisalanaa, or svaadit, paustik syont.
जवाब देंहटाएंस्लीफर हमने में भी हरिद्वार में ऋषिकेश की तरफ से आते हुए बचपन में देखें हैं .बच्चे उन की नाव बनाके दूर दराज़ तक जाते हुए बड़े कौतुक से देखें हैं . चीड पर विस्तृत जानकारी आपने उपलब्ध कराई है .ये खम्बे चीड के हमने भी कई मर्तबा के अमरीका प्रवास में देखें हैं मिशगन राज्य में खासतौर पर .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ! बचपन में ननिहाल में बिताए दिन याद आ गए - चिलुके का प्रयोग चूल्हे की आग जलने के लिए, रात के अन्धकार में उजाले के लिए और लीसा उत्पादन के लिए ! शादी विवाह के मौके पर पिरूल के ऊपर चादर बिछा कर ही मेहमानों के लिए बिस्तर बनाये जाते थे ! ऋषिकेश में चीड के पेड भी बहते देखे थे पर कारण नहीं पता था !
जवाब देंहटाएंFound the fragrance of the Cheed and Morpankhi tree in your amazing blog.Thanks for this trip down memory lane
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंpad kar bahut hi achha laga
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