"It is too bad to be too good." यह प्रतिक्रिया महात्मा गाँधी जी के मारे जाने पर अंग्रेज लेखक, जार्ज बर्नार्ड शा, की थी.
इस सँसार में अनेक घटनाएं/दुर्घटनाएं नित्यप्रति होती रहती हैं, जिनमें
सीधे-सरल, परोपकारी लोगों के साथ दुर्व्यवहार होता है. ये घटनाएं हमेशा सुर्ख़ियों
में भी नहीं आ पाती हैं, लेकिन पीड़ित जन तो घाव सहलाते ही रहते हैं
डॉक्टर सुबोध बैनर्जी एक
प्रतिभावान बाल-रोग विशेषज्ञ हैं. शहामत गंज में उनकी एक शानदार, सुव्यवस्थित
क्लीनिक है, जिसमें इनक्यूबेटर तथा आई.सी.यू.
के आधुनिक उपकरण भी उपलब्ध हैं. उन्होंने अपने पास स्टाफ भी सुयोग्य एवं अनुभवी रखा हुआ है. डॉक्टर साहब का व्यवहार और काम के प्रति समर्पण भाव ने
उनको हर दिल अजीज बना दिया है. इससे भी बड़ी बात यह है कि डॉक्टर साहब ने अपनी कंसल्टेशन फीस मात्र बीस रूपये रखी है, जबकि आजकल शहर के सभी विशेषज्ञ डॉक्टर सौ या दो सौ से
भी ज्यादा लेने लगे हैं. बात यहाँ तक भी है कि जो मरीज फीस देने में समर्थ नहीं
होते हैं, उनको वे निशुल्क देखा करते हैं.
डॉक्टरी पेशे का वे एक
उज्जवल चरित्र हैं. उनका यह आदर्श सर्वविदित है, और मात्र ८-१० वर्षों की प्रैक्टिस के दौरान उनको जन सम्मान के साथ साथ राजकीय सम्मान भी प्राप्त हो
चुके हैं.
अपने बीमार बाल-बच्चों को
लेकर सुबह से ही लोग उनकी क्लीनिक पर प्रतीक्षा करते मिलते हैं. आलम यह है कि उनको
बीच में चाय अथवा भोजनावाकाश के समय में भी कटौती करनी पड़ती है. एक इंसान इतना
गुणी, धैर्यवान होते हुए भी अपने कार्य में सफल हो सकता है, इस पर अन्य डाक्टरों को रश्क होता
होगा, लेकिन डॉक्टर साहब का पारिवारिक जीवन इतना सुखद नहीं रहा है. आठ साल पहले कोलकता
की माल्यादिनी नाम की सुन्दर लड़की से उनकी शादी हुई, और उसके तुरन्त बाद ही वे उसे यहाँ बरेली ले आये. यहाँ आकार नई गृहस्थी की शुरुआत की. डॉक्टर साहब ने नया मकान पहले से ही खरीद कर सुसज्जित करवा रखा था. कुछ समय तक सब कुछ सामान्य चलता रहा लेकिन डॉक्टर साहब की व्यस्तता ने माल्यादिनी को अकेला कर दिया. वे उनको पर्याप्त समय
नहीं दे पा रहे थे, क्योंकि उनका पेशा ही ऐसा है कि दिन में कई बार इमरजेन्सी में
भागना पड़ता है, रात को भी ना जाने कब बुलावा आ जाये, वे खुद तो परेशानी अनुभव नहीं
करते थे, पर माल्यादिनी को ये रास नहीं आ रहा था. अगर माल्यादिनी को कोई बाल-बच्चा
पैदा हो जाता तो शायद ये त्रासदी इस तरह नहीं झेलनी पड़ती, लेकिन भाग्य का खेल देखो, बच्चों के विशेषज्ञ के घर में प्रयासरत होते हुए भी कोई किलकारी नहीं गूंजी.
डाक्टर बैनर्जी को इस बात से
विशेष परेशानी भी नहीं थी. वे कहा करते थे कि “ये सभी
बच्चे हमारे ही तो हैं.” पर एक नारी के लिए मातृत्व सुख अपरिमित व आकर्षक होता
है. अत: उसके मनोविकार, सामान्य आस्थाओं, विश्वासों, तथा परोपकार वाली भावनाओं के प्रति
विद्रोह करने लगे.
किसनलाल गूजर, उनका
दूधवाला, नित्य उनके घर आता जाता था, और गृहिणी के छोटे-मोटे काम भी कर जाता था.
माल्यादिनी उसे हमेशा चाय नाश्ता देती और अपने पास बिठाती थी. किसनलाल में भी बहुत
अपनापन व भोलापन था इसलिए वह माल्यादिनी से ज्यादा ही घुलमिल गया इस प्रकार वह डॉक्टर साहब की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी से मित्रता कर बैठा. माल्यादिनी भी
वैवाहिक नियमों की सीमाओं को लांघ कर अबैध सम्बन्ध जोड़ बैठी. इसे कुछ भी नाम दिया
जा सकता है, यह थी चरित्र की कमजोरी.
डॉक्टर साहब ने माल्यादिनी
और किसनलाल के संबंधों पर कभी शक नहीं किया, बल्कि उनको अच्छा लगता था कि किसनलाल
की उपस्थिति से उनकी पत्नी को घर के कामों में काफी राहत हो रही है क्योंकि
माल्यादिनी भी पहले की तरह चिढ़चिढ़ी व असंतुष्ट नहीं लगती थी.
पड़ोस में रहने वालों को किसनलाल का इस तरह घर में घुसे रहना अखर रहा था, लेकिन ईलाज क्या था? बात आपस में
खुसर-पुसर तक ही सीमित रह गयी. ये तो दुनिया का पुराना दस्तूर है कि दूसरे की फटी
में अंगुली डाल कर उधेड़ने की कोशिश की जाती है. एक दिन ऐसे ही जब किसनलाल श्रीमती बैनर्जी के साथ बेडरूम में था तो किसी ने डॉक्टर साहब को फोन करके सूचित किया कि "उनके
घर में चोर घुसा हुआ है." डॉक्टर साहब तुरन्त घर लौटे और बिना खटपट किये अन्दर
दाखिल हुए तो अपनी अर्धांगिनी को किसनलाल के बाहुपाशों में पा कर स्तम्भित रह गए.
किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए.
आहत डॉक्टर को कुछ नहीं
सूझा. उन्होंने गुस्से में दोनों को तुरन्त घर से निकल जाने का आदेश दे दिया. और वे
दोनों शर्म से अथवा बेशर्मी से बाहर निकल गए. क्योंकि उनके पास कोई बहाना नहीं था.
प्राणीमात्र के
स्वभाव/फितरत के परिपेक्ष में माल्यादिनी का मार्गभ्रष्ट होना यद्यपि कोई अनहोनी
घटना नहीं थी पर ये दुर्घटना कई प्रश्न छोड़ गयी. क्या अति विश्वास में धोखेबाजी
ज्यादा संभव है? क्या पत्नी को केवल रोटी, कपड़ा व दौलत से ही संतुष्ट रखा जा सकता
है? क्या डॉक्टर की अतिसज्जनता ही उनके दु:खों का कारण बना?
उत्तर अनेक हो सकते हैं, पर
हमको तो डॉक्टर सुबोध बैनर्जी से पूरी हमदर्दी है. जो हुआ बहुत बुरा हुआ.
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Too much of faith is not the cause of treachery ;but faith without a correct appraisal of that person's character, is.And yes,those who are without blemish often take the next person also to be like them ie trustworthy.
जवाब देंहटाएंThere is nothing absolutely black or white in this world ... only shades of grey. Interesting presentation and food for thought. Thank you !!
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