शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

पण्डित नरोत्तम

अब से ७५ वर्ष पहले उत्तराखंड का बागेश्वर एक छोटा सा कस्बा हुआ करता था. इलाके का बाजार यही होता था. तब ना बिजली थी और ना ही मोटर मार्ग. अब तो यहाँ डिग्री कॉलेज है, तब केवल एक प्राइमरी स्कूल होता था. बागेश्वर अलग से जिला भी बना दिया गया है, जिसका मुख्यालय बागेश्वर शहर बन गया है. पुराने सँकरे बाजार, शिवालय (जो चंद राजाओं के समय का बना था) और सरयू-गोमती का संगम तो लगभग नहीं बदले है, पर शहर सब तरफ उपजाऊ खेतों (सेरों) को लील गया है. ऊपर पहाड़ियों/टीलों पर नवनिर्मित सरकारी कार्यालयों की जगमगाहट है और चहुँ ओर बाजारीकरण हो गया है. तब व्यापार पर स्थानीय साह लोगों का वर्चस्व था अब व्यापार के नए खिलाड़ी सिंधी-पंजाबी व ग्रामीण आँचल के नव धनाड्य शहर के मालिक हो गए हैं.

अंग्रेजों ने समाज मे अपनी पैंठ बनाने के लिए कुछ गण्यमान्य लोगों को उपाधियां दे रखी थी तथा चुनिन्दा लोगों को महत्व दे रखा था. बागनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी पूना रावल बहुत सुलझे हुए, धाकड़ और ईमानदार व्यक्ति थे. प्रशासन में उनकी तूती बोलती थी. अल्मोड़ा के जिला प्रशासन में बैठे लोग उनकी बात/सिफारिश नहीं टालते थे. आसपास ग्रामीण क्षेत्र के लोग यह बात अच्छी तरह जानते थे.

पुरकोट गाँव के नरोत्तम पांडे के बाप-दादे बरसों पहले काली कुमाऊं लोहाघाट की तरफ से पलायन करके यहाँ आ बसे थे. जंगल, घास लकड़ी व पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था इसलिए गाय-भैंस पालने वाले ये बिरादर अपनी मेहनत व जुझारू स्वभाव के कारण जंगल के इस घाटीनुमा गाँव में व्यवस्थित हो गए. यह एक परम्परागत सुप्त गाँव था. देश की आजादी के आन्दोलन की बयार यहाँ तक नहीं पहुंची थी पर पढ़ाई लिखाई के फायदों के बारे में कुछ लोग जागरूक जरूर हो चले थे. गाँव के दो अलग अलग परिवारों के दो लड़कों को उनके बड़े भाइयों के निर्देश पर पढ़ने के लिए घर से १८ मील दूर कांडा मिडिल स्कूल में राशन सहित भेज दिया गया क्योंकि उससे नजदीक में कोई मिडिल स्कूल नहीं हुआ करता था. आज तो हर दो कदम पर हाईस्कूल बना दिये गए हैं.

अपनी तरह के अन्य प्रवासी विद्यार्थियों की तरह ही वे भी घर से हर माह अपना राशन ले जाते और पढ़ाई करते थे. उन दिनों हर विद्यार्थी को यह श्लोक रटाया जाता था:
श्वान निद्रा, बको ध्यानम, काक चेष्टा तथैव च
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पञ्च लक्षणंम.
मिडिल की पढाई दर्जा सात तक होती थी, मिडिल पास हो गया तो बड़ी बात होती थी. जब लड़के बाहर की दुनिया में अपनी खिड़की खोलते हैं तो कई नई नई बातें जानकारी में आती हैं. दोनों लड़के शिक्षक प्रशिक्षण के लिए बहजोई सेंटर में गए और शिक्षक बनकर गाँव लौट आये. गाँव के दो लड़के पंडित हो गये थे, ये बहुत बड़ी उपलब्धि थी.

अब डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के स्कूलों में नौकरी पाने के लिए पूना रावाल साहब की सिफारिश चाहिए थी इसलिए दोनों लड़के अपने बड़े भाइयों सहित थैला भर कर शाक-सब्जियां और एक-एक घी का चौथाई (१/४ टिन कनस्टर) लेकर बागेश्वर नन्दीगाँव पहुँचे. रावल साहब नंदीगाँव में रहते थे. कहते हैं के नंदीगाँव की जमीन शिव के वाहन नन्दी के चरागाह के रूप में थी, पर अब तो वहाँ भी ईट और पत्थरों का जंगल अर्थात शहर के पंख आ गए हैं.

पांडे लोगों को घी के टिन व सब्जी के थैले लाने पर रावल साहब ने पहले तो बहुत नाराजी जताई, पर बाद में भेंट स्वीकार कर ली क्योंकि लाने वालों ने कहा कि ‘अपने घर से लाये हैं, कहीं से खरीद कर नहीं लाये हैं.’ रावल साहब ने दोनों को दो-दो लाइन का पत्र लिख कर दिया और कहा कि ‘अल्मोड़ा जाकर डिप्टी साहब को पेश करो.’ तदनुसार वे लोग अल्मोड़ा गए,  डिप्टी साहब ने दोनों को नियुक्ति पत्र देकर कृतार्थ किया. वेतन बता दिया कि प्रति माह सात रूपये मिला करेंगे. एक को जागेश्वर धाम के निकट पनुआनौला और दूसरे नरोत्तम पंडित को पिण्डारी ग्लेशियर की तरफ आख़िरी स्कूल सामा जाने को कहा. स्कूलों के बड़ी दुर्दशा थी. पनुआनौला में तो फिर भी जंगल में एक कमरा बना हुआ था; आठ-दस लड़के पढ़ने वाले भी थे, पर सामा में एक ग्वाड (कच्ची गोशाला) का नाम स्कूल रखा था. गाँव एकदम पिछडा हुआ, परगना दानपुर का अन्तिम छोर. सब दनपुरिये अनपढ़, शिक्षा के महत्त्व से अनभिज्ञ. पंडित नरोतम पांडे ने प्रधान से बात की, और बड़ी मुश्किल से पाँच सयाने  लड़के पढ़ने के लिए राजी किये. हालत यह कि लड़कों के पास कापी पेंसिल तो दूर, लकड़ी की पाटी और खड़िया भी उपलब्ध नहीं थी. पंडित जी को अब बिलकुल नए सिरे से धरातल के नीचे की सोच को ऊपर उठाना था. वे परेशान रहे पर नौकरी तो नौकरी ही थी, यह समझ कर दिन निकालने लगे.

अपने घर से लगभग २४ मील दूर, हफ्ते में एक बार आना-जाना बहुत कष्टकर होता था. रास्ता बहुत ऊबड़-खाबड था, बीच बीच में जंगल पड़ते थे इसलिए जंगली जानवरों का खतरा भी बना रहता था. तीन महीने बीत गए अभी पहली तनखाह भी नहीं मिली थी, पंडित नरोत्तम परेशान रहने लगे उनके मन मे विचार आया कि डिप्टी साहब को सब हालात बताई जाये और बागेश्वर के निकट बदली के लिए निवेदन किया जाये. एक कॉपी के पन्ने में गाँव वालों की तरफ से खुद मेजर नामा लिखा कि ‘नरोत्तम पांडे बहुत अच्छा मास्टर हैं लेकिन इनका घर दूर होने के कारण इनको आने-जाने में बहुत परेशानी होती है, सप्ताह में घर आने जाने में तीन चार दिन लग जाते हैं. यह ब्राह्मण आदमी हैं यहाँ गाँव मे रहने व खाने-पीने में भी दिक्कत होती है. इसलिए इनकी बदली बागेश्वार के आसपास किसी स्कूल में कर दिया जाये.’ गाँव वालों की तरफ से खुद ही पंडित जी ने स्याही युक्त १०-१५ अंगूठे टेक दिये और कपकोट पोस्ट ऑफिस में जा कर डाक में डाल आये. डाकखाने में पिछले दो महीनों की तनखाह का मनीआर्डर भी आये हुए थे, बहुत खुशी हुई. लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन नहीं रही क्योंकि उनकी बदली चाहने की कार्यवाही के फलस्वरूप उनको नौकरी से हटाने के आदेश आ गए.

पंडित नरोत्तम पांडे दिल हार कर अपने सामान सहित अपने घर लौट आये और अपने पुश्तैनी धन्धे खेतीबाड़ी में लग गए. फिर कभी नौकरी की तलाश में दुबारा नहीं गए.

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