शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

भय बिन होय न प्रीति

कुमाऊनी और गढ़वाली समाज की बहुत सी बातें अनोखी रही हैं, अभी कुछ वर्ष पहले तक वर्ण-व्यवस्था, कर्म-काण्ड, जात-पात, छुआछूत, भूतप्रेत व अन्ध विश्वासों का ऐसा जोर था कि बाहर वाले लोग एकाएक विश्वास नहीं कर पायेंगे, पर अब आधुनिकता के प्रकाश में बहुत कुछ बदल गया है.

अपने को कुलीन कहने वाले ब्राह्मण निसरौ-भिक्षा वृत्ति तो कर सकते थे, पर अपने खुद के खेतों में हल नहीं चलाते थे. (पण्डित गोविन्द वल्लभ पन्त जी ने खुद हल चला कर इस मिथक को तोड़ा था.) इसके लिए कोई शिल्पकार/दलित, ठाकुर राजपूत या कोई भूमिहार ब्राह्मण (जिसे पितलिया ब्राह्मण भी कहा जाता था) ‘हाली’ का काम करते थे.

ऐसे ही एक कुलीन वन्शौत्पन्न व्यक्ति थे नारायणदत्त पन्त. वे मामूली पढ़े लिखे थे कर्म-काण्ड वृत्ति भी नहीं सीख सके थे पर उनके पास बीस नाली बढ़िया पुश्तैनी सेरे की जमीन मण्डल सेरे में थी. जमीन पानी वाली थी.  इतना धान-गेहूं पैदा हो जाता था कि पूरे परिवार का साल भर भरण पोषण हो जाता था. उनका खानदानी हाली धनीराम इस साल चल बसा था और अब उसके परिवार में कोई ऐसा नहीं था जो नारायणदत्त पन्त के खेतों को जोतने का काम कर सके. पन्त जी बहुत परेशान रहे क्योंकि जमीन में अगर बीज नहीं बोये गए तो आगे खायेंगे क्या? ढूंढते करते एक भूमिहार ब्राह्मण शिवदत्त मिल ही गया. उसको उन्होंने कहा कि अपनी जमीन में से वे पाँच नाली पूरी तरह कमा खाने के लिए देंगे बदले में उनकी १५ नाली में भी उपज करनी होगी.

शिवदत्त गरीब आदमी था उसे इस व्यवस्था में फ़ायदा ही नजर आया और वह मेहनत के साथ खेती करने लगा. पन्त जी का अहसान मानते हुए वह पहले उनके खेतों की जुताई करता था बाद में अपने हिस्से में. कई वर्षों तक ये कार्य सुचारू चलता रहा लेकिन बाद में गाँव के कुछ ज्वलनशील लोगों ने शिवदत्त को भड़का दिया कि ‘तुम भी ब्राह्मण और पन्त भी ब्राह्मण, अब तो सब बराबर हो गए हैं, तुम उसके गुलाम बन कर उसके खेत क्यों जोतते आ रहे हो. अब तो सरकार का नया क़ानून आ गया है कि जमीन का मालिक वही है जिसके कब्जे में जमीन है.’ शिवदत्त का सिर फिर गया और उसने आगामी फसल के समय अपने हिस्से की जमीन पर तो बीज बो लिए पर पन्त की जमीन को परती ही छोड़ दिया.

पन्त ने जब शिवदत्त से इस बारे में बात की तो उसने साफ़ साफ़ कह दिया ‘अब आप अपनी जमीन खुद जोत लो.’ उसकी बेरुखी तथा मतलबफरोशी से पन्त बहुत आहत हुआ, गुस्सा भी आया, पर स्वयं शरीर से कमजोर व मन से दुर्बल था कुछ नहीं कर सका. भड़काने वाले खुश थे कि पन्त के खेत बंजर पड़े रह गए. यों दो साल गुजर गए नारायणदत्त पन्त ने अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए गोमती नदी के पुल के पास एक बिजली से चलने वाली आटा-चक्की लगा ली.

इसी बीच जब शिवदत्त ने अपनी १४ वर्षीय बेटी की पहाड़ी रीति-रिवाज से शादी की तो नारायणदत्त पन्त ने सीधे अल्मोड़ा जाकर अदालत में शिवदत्त के विरुद्ध शारदा ऐक्ट का हवाला देते हुए एक केस दर्ज करा दिया. जज साहब भी कुमाऊनी ग्रामीण परिवेश से आये थे, उन्होंने पन्त से कहा कि “यहाँ तो १८ वर्ष से कम उम्र में बेटियों की शादी करने का आम प्रचलन है, तुम ऐसी शिकायत लेकर क्यों आये हो?” पन्त ने जज साहब को बताया कि इस आदमी ने मुझे परेशान कर रखा है, मेरी जमीन पर कब्जा कर रखा है, मैं इससे सड़क पर लड़ नहीं सकता हूँ इसलिए यह कार्यवाही करनी पड़ी है. अगर आप केस को गलत मानते हैं तो खारिज कर दीजिए.”

बात क़ानून सम्मत थी इसलिए केस यों ही खारिज नहीं किया जा सकता था. राजस्व पुलिस पटवारी से पूरी विवेचना तलब की गयी तो पन्त की शिकायत सही पायी गयी. इस प्रकार शिवदत्त, उसकी पत्नी, बेटी-दामाद शादी कराने वाले पंडितों, मंगल गायन करने वाली गिदारों, और बारातियों, सभी नाम चुन चुन कर समन जारी कर दिये गए.

तहलका मचना ही था क्योंकि कानूनन सभी के जेल भेजे जाने की संभावना बन रही थी. लेकिन जज साहब इस पूरे प्रकरण में बहुत संवेदन शील रहे. उन्होंने दोनों पक्षों को बुलाया और झगड़े की तह तक गए. शिवदत्त ने माना कि उसे गाँव के कुछ चुनिन्दा लोगों ने भड़काया था और अपनी गलती स्वीकार कर ली. लिखित में बयान दिया कि भविष्य में वह नारायणदत्त पन्त के खेतों की पहले की तरह जुताई-बुवाई करता रहेगा. यह भी लिख कर दिया कि जिस दिन नारायणदत्त पन्त को दूसरा काश्तकार मिल जाएगा, या वे स्वयं काश्तकारी करना चाहेंगे वह अपने कब्जे वाले जमीन भी छोड़ देगा. नारायणदत्त पन्त ने भी कहा कि ‘वह जल्दी ही हल चलाना सीखेगा’.

इस प्रकार अदालत के बाहर समझौता बता कर केस वापस ले लिया गया.

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3 टिप्‍पणियां:

  1. गाँव के अपने झगड़े और हल, आपस में ही मिल बैठ कर निबाह होता है।

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  2. 'भय बिन होय न प्रीति' - एकदम उपयुक्त शीर्षक|

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  3. Bhay bin hoy na preeti ko aapne bahut umda tareekey se pesh kiya hai...Samaaj mein aye badlaav ka bhi ahcha udaharan hai!

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