गुरुवार, 23 अगस्त 2012

गीत - ५

मेरे   पार्श्व   में   रहो, ओ   मेरे  मन  के  मीत
तुमसे ही मुझमें स्पंदन है, तुम्ही हो मेरे गीत.

पुष्प नहीं औ’ पत्र नहीं तुम, जिन्हें काल से है प्यार
उपमा  तेरी  अमर  प्रतिमा, मेरी कविता  हो साकार

विधि-विधान की अनुपमा, अति शुभ्रता अनुरूप
ज्यों  चकोर   को  चन्द्रमा, मन -  मंदिर का रूप

तुम नक्षत्र की वर्षा हो, तुम्ही दीप की जोत
तुम  निविड़  की आत्मा, मैं   उसमें खद्योत

झीनी पर्त पड़ी रहे  बस, तुम  तुम  ही   बनी   रहो
विलगाव रहे, अपनाव रहे तुम अपनी ही बनी रहो.

                            ***

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