सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

तब्बू


मुनारगढ़ नवाब तसद्दुक हुसैन का बचपन का नाम तब्बू था. अकबर की ही तरह उनको भी १६ साल की उम्र में गद्दी पर बैठना पड़ा क्योंकि उनके वालिद बीमारी के कारण जल्दी ही दुनिया छोड़ कर चले गए थे.

उनकी रियासत में सब तरफ अमन चैन था. उनके पास वजीरों की एक अच्छी टीम थी, इसलिए शासन व्यवस्था चुस्त-दुरस्त थी. वे सैर सपाटे, और मौज मस्ती करने के बहुत शौक़ीन थे. जिस तरह से बहिन मायावती आज कांशीराम के ताबूत खड़े कर रही है, उसी तरह उन्होंने भी अपने अब्बा हुजूर के दर्जनों ताबूत खास-खास मुकामों पर लगवाए. वे उनको याद कर के अक्सर खिरादे अकीकद (श्रद्धांजलि) पेश किया करते थे. उन्होंने लंबे समय तक गद्दी सम्हाल कर रखी थी.

अधेड़ उम्र में जब वे एक बार हमेशा की ही तरह लाव-लश्कर के साथ हाथी की सवारी में घूमने निकले तो रास्ते में एक गरीब, फटेहाल, बूढ़े आदमी ने उनको देखा तो वह चिल्ला कर उनको आवाज देने लगा, ओ तब्बू.

नवाब तक उसकी आवाज नहीं पहुँची क्योंकि नवाब तब अपनी बेगम के साथ बातों में व्यस्त थे. जब उसने तीन चार बार पुकारा तो साथ में चल रहे दरोगा को बड़ा बुरा लगा. कि कोई सड़क-छाप इस तरह हुजूर को आवाज दे रहा था. अत: उसने सिपाहियों से कहा कि उसे पकड़ कर ले जाये और अगले दिन हाजिर करे, ताकि कोई सजा सुनाई जा सके. सिपाहियों ने देर नहीं की और बूढ़े आदमी को हिरासत में ले लिया.

अगले दिन उसे नव्वाब साहब के सामने हाजिर किया गया और इल्जाम सुनाया कि वह हुजूर की शान में गुस्ताखी कर रहा था, तब्बू नाम लेकर आवाज दे रहा था.

ये सुन कर नवाब के आँखों में आंसू छलक आये और वे गद्दी से उठ कर उस बूढ़े आदमी के पास जाकर उसके गले लग गए. सारे दरबारी लोग इस दृश्य को देखकर हैरान थे.

नवाब ने उस बूढ़े आदमी को बहुत इज्जत से बैठाया और कहा, ये बाबा तो मेरे अब्बू के दौर का आदमी है, इनको मेरे बचपन का नाम याद है. मैं बहुत किस्मत वाला हूँ कि मुझे अपने एक बुजुर्ग से मिलने का सौभाग्य मिल रहा है".

नवाब ने उस बूढ़े को बहुत सी दौलत दे कर सम्मान दिया और कहा कि वह जब चाहे आकर उनसे मिल सकता है.
                                    ***.

रविवार, 30 अक्टूबर 2011

विवाह


विवाह एक सामाजिक बंधन है, समझौता है, मर्यादा है और सनातन धर्म के अनुसार एक आवश्यक संस्कार व अनुष्ठान है. सँसार के कई अन्य समाजों में भी विवाह नामक संस्था को पूरी सामाजिक मान्यता दी गयी है. ये मर्यादा की व्यवस्था ही मनुष्य को अन्य जानवरों से अलग करती है.

ऐतिहासिक परिपेक्ष में ये विवाह नाम की संस्था का उदय सभ्यता के विकास के साथ ही हुआ और विश्व के अलग-अलग भागों में अपने अपने ढंग से इसकी मान्यताएं स्थापित होती चली गयी. प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य जंगली जानवरों की तरह जीवन यापन करता था इसलिए उस समय इसकी कल्पना करना कोई मायने नहीं रखता है. पर पौराणिक काल में हमारे ग्रंथों के अनुसार, विवाह एक धारणा बन चुकी थी और उसके कई प्रकार भी थे. प्रमुखतया गंधर्व विवाह, देव विवाह, ब्रह्म विवाह, आर्श विवाह, प्रजापत्य विवाह, राक्षसी विवाह, असुर विवाह तथा पिचास विवाह. ये सब देश काल या परिस्थिति पर निर्भर रहे होंगे. इन्ही का परिष्कृत या विकृत रूप आज भी हम अपना रहे हैं, यानि, एक अरेन्ज्ड मैरेज है तो एक लव मैरेज, कहीं जबरदस्ती है तो कहीं मजबूरी.

हमारे वर्तमान समाज में अरेन्ज्ड मैरेज अर्थात दोनों पक्षों की राजी खुशी से किया गया विवाह उत्तम माना जाता है. ये केवल दो व्यक्तियों का सम्बन्ध ही न होकर, दो परिवारों को जोड़ने वाला सम्बन्ध है. अग्नि, जो आदि-देव है, को साक्षी मान कर तन, मन व आत्मा के जन्म जन्मांतरण के एकीकरण स्वरुप माना जाता है. लव मैरेज चाहे घर-परिवार वालों की सहमति से किया गया हो या घर से भाग कर किसी मंदिर या अदालत की शरण में जाकर किया गया हो, अच्छा हो सकता है पर समाज की रूढियां इनको अभी भी भृकुटि तान कर ही देखती हैं.

आज इक्कीसवीं सदी में संचार क्रान्ति के बाद ये दुनिया सिकुड़ कर बहुत छोटी हो गयी है. स्त्री-पुरुष अपने सामाजिक मान्यताओं से ऊपर उठ कर अंतर्जातीय व अंतर्धार्मिक विवाह करने लगे हैं. ये जाति व धर्म की दीवारें रूढियों के रूप में विकसित हुई हैं, जहाँ कट्टरपंथियों ने अनेक प्रकार से बंधन लगाये हुए हैं, पर अब ये धीरे धीरे टूट रहे हैं.

रूस में स्टेलिन के जमाने में स्त्रियों व बच्चों का राष्ट्रीयकरण करके कम्युनिस्ट शासन में नया प्रयोग किया था, जो पूरी तरह असफल हुआ और पुन: पारंपरिक ढाँचे में ही लौटना पड़ा. यूरोप में नार्वे-स्वीडन जैसे देशों में आज वर्जनाहीन समाज है. जहाँ अब विवाह नाम की संस्था की कोई परवाह नहीं करता है क्योंकि वहाँ की संस्कृति बिलकुल भिन्न है. हमारे देश में भी बड़े शहरों में लिव-इन यानि बिना शादी के पति-पत्नी के रूप में रहने वालों को अब कोई रोक टोक नहीं करता है.

लेखक इनकी सार्थकता व औचित्य के विवाद में नहीं पढ़ना चाहता है लेकिन जो कन्यादान वाली वैदिक रीति है उसकी दुनिया में कहीं भी शानी नहीं है. ये त्याग, समर्पण व प्रेम की पराकाष्ठा की आत्मीय व्यवस्था है. इसलिए अनेक अन्य धर्मावलंबी भी इसे स्वीकार करने को लालायित रहते हैं. ये एक बृहद विषय है क्योंकि पुरुष प्रधान समाज व स्त्री प्रधान समाजों की अलग अलग ढंगों से सोच विकसित हुई है. कुल मिलाकर स्वस्थ व सुखी गृहस्थ जीवन के लिए एक मर्यादा रेखा का होना आवश्यक है. पाश्चात्य देशों में मर्यादा रेखा कमजोर होने के कारण ही तलाक या विवाह विग्रह बहुत आम है. वहाँ रिश्तों की पवित्रता जैसी कोई धारणा मालूम नहीं पड़ती है.

अभी हाल में राजस्थान हाईकोर्ट  ने एक आदेश में आर्य समाज मंदिर में जाकर जो लड़के-लडकियां माता-पिता या समाज से छुपकर जयमाला डालकर विवाहित होना चाहते हैं उनके लिए अब परिजनों की सहमति /उपस्थिति  आवश्यक कर दी गयी है. इससे अनेक परिवार बच्चों से बिछुड़ने या बिखरने से बच सकेंगे.

किसी भी विषय में मत भिन्नता या अपवाद होना स्वाभाविक है इसलिए इस सामाजिक विषय में चूँकि, चुनाचे, पर बहुत से है. परस्पर बिरोधी कारणों से वैवाहिक सम्बन्ध टूटने, पुनर्विवाह, और विधवा विवाह जैसे अनेक मुद्दे समाजशास्त्रियों के लिए विश्लेषण तथा मार्ग दर्शन करने के लिए हैं. बदलते समय के अनुसार हर विचार व व्यवस्था के मायने भी बदलते रहते हैं लेकिन सबका लक्ष यही है आदर्श सुखी जीवन, जिससे आदर्श सुखी समाज बनता है, और समाज से राष्ट्र.
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शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

ओम महिषाय नम:


पन्नालाल दस दिन पहले ही एक दूध देने वाली जवान भैंस खरीद कर लाया था जिसने ना जाने क्यों खाना पीना छोड़ दिया है. खाना पीना छोड़ा तो दूध देना भी बंद हो गया. समझ में नहीं आ रहा था कि भैंस अनशन पर क्यों आ गयी. बस टप-टप आंसू गिराए जाय. पेट भी कुछ फूला फूला सा लगने लगा. श्रीमती पन्नालाल ने सोचा कोई बुरी नजर लगा गया है अतः उसने एक थाली में गेहूं, राई, और सिंदूर रख कर भैंस की तीन परिक्रमा की और एक अठन्नी के साथ चौराहे के ठीक बीच में उड़ेल कर आई. पर भैंस थी कि कुछ टस से मस भी नहीं हो रही थी. यथास्थिति देख कर पन्नालाल बड़े चिंतित हो गए. गाँव में जानवरों के जानकार भंवरलाल को बुलाया गया. उन्होंने हाथ से दो चार फटके भैंस की पीठ पर और पिछवाड़े पर दे मारे लेकिन उनकी समझ में भी कुछ नहीं आ रहा था. इतना जरूर बोले, लगता है अनाज ज्यादा खिला दिया है, इसको कब्ज हो गयी है. गिलोय लाओ और कूट कर इसको पिलाओ.” जब पन्नालाल गिलोय की तलाश में निकला तो सामने हसन अली मिल गया. उसने कहा, तुम गिलोय के चक्कर में कहाँ पड़े हो? वैटनरी अस्पताल लेकर जाओ वहाँ आजकल डाक्टर चोंचले हैं जो बहुत अनुभवी भी हैं, उनको दिखाओ.

पन्नालाल को वैटनरी अस्पताल के बारे में इतना मालूम था कि वे लोग जानवर को जाते ही इंजेक्शन ठोक देते हैं जिससे वह लड़खड़ा कर गिर पड़ते हैं. अस्पताल जानेवाले जानवरों में से आधे ही घर आ पाते हैं. पर मरता क्या नहीं करता? पन्नालाल ने रस्सी खोली और भैंस को डरते-डरते अस्पताल ले गया.

डाक्टर चोंचले उमरदार आदमी थे. तिरछी नजर से भैंस को देख कर पन्नालाल से पूछने लगे, क्या हो गया?
डाक्साब इसने घास खाना छोड़ दिया है. पानी भी नहीं पी रही है. तीन दिनों से न गोबर किया और न दूध दिया, बस रोये जा रही है.

डाक्टर चोंचले ने स्टेथोस्कोप से भैस की छाती, पीठ, पेट व गर्दन की जाँच के बाद पूंछ के नीचे थर्मामीटर डाल कर बुखार भी नापा. तपास पूरी होने पर बोले, पन्नालाल, तुम्हारी भैंस को कोई बीमारी नहीं है. लगता है इसको अपनी पुरानी मालकिन की याद सता रही है. नींद न आने से भी ऐसा हो जाता है. सर खुजलाते हुए डाक्टर साहब फिर बोले, मैं एक गोली देता हूँ सब ठीक हो जाएगा. और फिर डाक्टर साहब ने एक बड़ा सा अंटा (जिसे वे गोली कह रहे थे) पन्नालाल को थमाते हुए कहा, लो इसे खिला देना.

पन्नालाल बोला, ये गोली इसके पेट में जायेगी कैसे. ये तो थूक देगी?

डाक्टर ने एक दो फीट लंबा पाइप भी दिया बोले इसे मुँह में घुसेड़ कर ऊपर करके गोली डाल देना. फिर जोर से फूँक मार देना गोली सीधे पेट में पहुँच जायेगी.

पन्नालाल बड़े भरोसे के साथ भैंस की रस्सी खींचते हुए घर की ओर चला गया. पर आधे घन्टे के बाद ही हाँफते हुए, घबराते हुए, दौड़ा दौड़ा वापस आया, और बोला, डाक्साब गजब हो गया.

डाक्टर की समझ में कुछ नहीं आया. सोचने लगे 'कहीं भैंस मर तो नहीं गयी? उन्होंने पूछा, क्यों क्या हुआ?

पन्नालाल बोल नहीं पा रहा था. डाक्टर ने फिर पूछा, गोली खिलाई?

पन्नालाल थोड़ा संयत हुआ तो बोला, भैंस तो घर जाते हुए रास्ते में खूब सारा गोबर करने के बाद ठीक हो गयी लगती है. मैंने फिर भी आपकी दी हुई दवा देना ठीक समझा और भैंस के मुँह में पाइप डाल कर गोली अन्दर डाली और फिर जैसे ही मैं फूँक मारने लगा, भैंस ने पहले फूँक लगा दी और गोली मेरे पेट में चली गयी है.
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शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

सेतु


ये आप्तोपदेश है:
          पिता शत्रु ऋणकर्ता
          माता शत्रु व्यभिचारिणी
          संतति शत्रु अपण्डिता
          भार्या शत्रु कुलक्षणी.

इस श्लोक में पति शत्रु की व्याख्या नहीं की गयी है, पर वीणा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि उसका पति देवेश तो हर तरह से उसका शत्रु हो चुका है. अब समझौते की भी कोई गुंजाइश नहीं है, और वह समझौता करना भी नहीं चाहती है. बहुत भुगत लिया है इन दस वर्षों में.

वीणा का विवाह लव मैरेज भी था और अरेंज्ड भी. बड़े अरमानों के साथ उसने वैवाहिक जीवन शुरू किया था, पर देवेश ऐसा निकम्मा निकलेगा उसने सपने में भी नहीं सोचा था. छोटे-मोटे मन मुटाव तो गृहस्थ जीवन में होते रहते है. पर पति निखटटू हो तथा गैर जिम्मेदार हो तो गाड़ी आगे सरकने में कठिनाई आ जाती है. ऐसा ही हुआ इनकी जीवन यात्रा में.

वीणा के पिता हरिनारायण गुप्ता एक उद्योगपति थे. फरीदाबाद में उनका अच्छा कारोबार चल रहा था. वीणा ने देवेश के बारे में अपनी पसंद भाभी के मार्फ़त आपने माता-पिता को बतायी. देवेश उनकी दूर की रिश्तेदारी में ही था पर उसकी डीटेल्स उनको पता नहीं थी. आदमी की शक्ल सूरत व पहनावे से उसके अन्दर के जानवर को नहीं पहचाना जा सकता है. जब आप उसके साथ रहते हैं, उसके बात व्यवहार को भुगतते हैं तभी आपको सच्चाई का अनुभव होता है. देवेश करनाल के किसी सिडकुल फैक्ट्री में सुपरवाइजर के बतौर काम कर रहा था. जब देवेश के पिता माधवानंद अग्रवाल को रिश्ते का पैगाम मिला तो उसकी बांछें खिल गयी क्योंकि हरिनारायण गुप्ता एक नामी-गिरामी व्यक्तित्व था. घूम-धाम से विवाह भी हो गया. दहेज में गृहस्थी का पूरा सामान तो था ही साथ में शहर के मध्य में एक जमीन का प्लाट भी बेटी के नाम रजिस्टर करवा दिया.

माधवानन्द एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति थे. एक छोटी सी परचून की दूकान चलाते थे. उनको पता नहीं था कि बहू के आते ही बेटा पराया हो जायेगा. हरिनारायण ने जब माधवानंद के परिवार का रहन-सहन देखा तो उन्होंने तुरन्त ही प्लाट पर मकान बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी. माधवानंद खुश थे कि समधी जी उनके परिवार के लिए एक बढ़िया घर बनवा रहे हैं. देवेश भी सोच रहा था कि अब बड़े घर में ससुराल हो गयी है तो छोटी-मोटी नौकरी कहाँ लगती है? वह अपनी ड्यूटी के प्रति लापरवाह हो गया और मकान बनाने की सुपरवाइजरी करने लग गया. खर्चे भी रईसी होने लगे. अब उसका अड्डा ससुराल में ही हो गया. ससुर जी ने चार सेटों वाला दुमंजिला मकान बनवा दिया. बढ़िया ढंग से गृहप्रवेश भी हो गया. इस बीच वीणा गर्भवती थी सो एक पुत्र को उसने सकुशल जन्म भी दे दिया. देवेश अपने माँ-बाप व भाईयों से दूर दूर ही रहने लगा. घर का खर्चा पूरी तरह ससुरालियों पर आ गया. ससुर जी ने जब देखा कि जवांई जी बेरोजगार हो गए हैं तो उन्होंने दो लाख रुपयों की इलैक्ट्रोनिक गुड्स की एक दूकान खुलवा दी. देवेश के ठाठ हो गए पर घड़े में छेद हो तो जल्दी खाली होने लगता है. ऐसा ही हुआ दूकान में सामान कम होता गया, खर्चा बढ़ता गया; तीन साल के अन्दर फिर ठिकाने पर वापस आ गया. देवेश के साले इस बात से बहुत खफा थे कि पिता जी देवेश को जरूरत से ज्यादा मदद दे रहे हैं और वह उड़ा रहा है. इसी दौरान हरिनारायण गुप्ता स्वर्ग सिधार गए. देवेश निराधार हो गया. वही हुआ जिसकी बड़े दिनों से आशंका थी. देवेश अपने शौक पूरे करने के लिए वीणा के गहने बेचने लगा. जब पोल खुली तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि वीणा पीहर वालों से देवेश के कारनामे छुपाते आ रही थी. लेकिन जब नौबत बर्तन बेचने की सामने आई तो वह फूट पडी. उसने ससुर माधवानंद को शिकायत की, पर माधवानंद पहले से ही भरे हुए थे. वे इस बात से नाराज थे कि वीणा ने उनके बेटे को परिवार से छीन लिया है अत: उन्होंने वीणा को ही भला-बुरा कह डाला तथा उसके परिवार वालों पर बेइमानी के गंभीर आरोप लगा दिए. बात जब हरिनारायण के लड़कों तक पहुँची तो हालत बदतर हो गए. उन्होंने देवेश के साथ हाथापाई की और घर से बाहर कर दिया. गेट पर देवेश का नामपट्ट भी उखाड फैंका. वकील के मार्फ़त तलाक का नोटिस भिजवा दिया.

जब आदमी बेरोजगार हो, आलसी हो, और बेघर हो जाये तो उसकी दयनीयता का अंदाजा लगाया जा सकता है. अब उसके पास माँ-बाप के घर जाने के अलावा कोई चारा न रहा. वह अपने बेटे का भी क्लेम नहीं कर सकता था क्योंकि खुद सड़क पर आ गया था. उधर वीणा ने बेटे श्रवणकुमार को शिमला में एक बोर्डिंग स्कूल में डाल कर समझदारी की. स्कूल व होस्टल वालों को ताकीद कर दी कि उसके ससुराल वाले बच्चे से नहीं मिल सकें. यों तो सब टेंसन में थे पर सबसे ज्यादा टेंसन में देवेश की माँ को थी, जो अपने पोते के लिए दिन रात विलाप करती थी.

पाँच साल गुजर गए हैं. इस बीच खबर है कि देवेश में बहुत बदलाव आ गया है. वह पुन: करनाल के ही किसी कारखाने में नौकरी करने लग गया है तुलसीदास जी ने लिखा है का वर्षा जब कृषी सुखाने,’ पर ये भी है कि जिस तरह् मित्रता स्थाई नहीं होती है शत्रुता भी स्थाई नहीं रह सकती है.

श्रवण अब रिश्तों की समझ रखने लगा है. उसे पिता की की कमी हमेशा खलती रही है. एक दिन एकांत में उसने पिता को एक हृदयविदारक पत्र लिख डाला, जो एक काल्पनिक सेतु सा था. वह माँ-बाप दोनों को मिलाना चाहता था. पत्र देवेश को मिलने से पहले ही वीणा के हाथों में पड़ गया.

मानव मन भावनाओं में पिघलता ही है. वह देवेश के साथ बिताये अन्तरंग क्षणों को याद करके विह्वल हो गयी. सोचने लगी रिश्ते इतने बिगड गए हैं, इतनी गांठें इस धागे में पड़ गयी हैं, क्या इनको सुलझाना आसान होगा? इस सेतु को अगर बनाना भी चाहे तो अपनों में इंजीनियर कौन बन सकता है? कौन फटी में पैर डालेगा? भाईयों में बड़े भाई-भाभी कर सकते हैं, लेकिन उसने उनको पहले इतना विपरीत कर रखा है कि शायद ही वे इस सोच को स्वीकारें. रिश्तेदारों में बड़े-बड़े वकील, डाक्टर व प्रशाशनिक अधिकारी लोग हैं पर किसी ने अभी तक उसके इस श्रापित जिंदगी के बारे में आकर कुछ मदद करने की बात की? ये सोचते हुए उसका दिल भर आया. उसके पास इतना बड़ा घर है किराया भी खूब मिलता है, रुपयों की कोई कमी नहीं है, पर जीवन साथी के बिना सब सूना है.

बहुत भावुक क्षणों में उसने वह पत्र भेजूं या ना भेजूं के उधेड़बुन में आखिर पोस्ट कर ही दिया.
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गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011

वैशाली


लखनऊ के गोमती नगर की वैशाली बड़ी शोख हसीना लड़की थी. चुलबुली, आकर्षक, व अत्यधिक मॉडर्न. स्कूल से लेकर कॉलेज तक सभी जगह वह चर्चा में रहती थी. उसके अनेकानेक ब्वायफ्रेंड थे. एक दिन उसकी शादी अहमदाबाद के हितेन वन्जारा से बड़ी धूमधाम से हो गयी. वह अन्य बहू-बेटियों की तरह ही ससुराल चली गयी. इधर उसके मित्रों को ऐसा लगाने लगा कि लखनऊ की तो रौनक ही खतम हो गयी है. सबसे ज्यादा उदास व विरह में व्याकुल हुआ जतिन, जिसने उसकी याद में खाना-पीना कम कर दिया. वह रात-दिन उसकी फोटो सामने रख कर तड़पता था.

एक दिन उसका एक पुराना कवि मित्र मनोहर उसको मिला जिसने उसको बताया कि वह किसी कार्यवस एक सप्ताह के लिए अहमदाबाद जा रहा है. ये जानकार जतिन को बहुत खुशी हुई और उसने अपने मित्र को हाले दिल सुनाया. मनोहर ने उससे कहा कि वह वृथा वैशाली का ख़याल पाले हुए है क्योंकि वैशाली के तो उसके जैसे दर्जनों मित्र थे. दूसरा अब उसकी शादी हो गयी है और अपने गृहस्थ जीवन में मस्त होगी. अत: अब ये खामखायाली है. लेकिन जतिन की दीवानगी तो पहले से परवान चढी हुई थी वह बोला, तुम मेरा एक काम कर देना, एक यादगार अंगूठी, जो मैं उसे नहीं दे पाया वह उसको देकर आना.

मनोहर ने कहा, ठीक है, जब तुम यही चाहते हो तो मैं तुम्हारी अंगूठी अवश्य पहुँचा दूंगा पर पहले मैं उससे पूछूँगा कि भेजने वाले दिलवर का नाम बता? अगर उसने तेरा नाम बता दिया तभी मैं उसको अंगूठी दूंगा अन्यथा नहीं.
जतिन बोला, देख लेना वह अंगूठी देखते ही मुझे याद करेगी.

इस प्रकार मनोहर अपने टूर पर अहमदाबाद पहुँचा और पते के अनुसार बन्जारा परिवार से मिलने गया. पीहर का कुत्ता भी कहते हैं कि प्यारा लगता है. मनोहर का सभी ने स्वागत सम्मान किया, और अकेले में जब उसने वैशाली से कहा कि उसके एक चाहने वाले ने एक अंगूठी भेजी है और उसका नाम बताएगी तो उसको दी जायेगी.

वैशाली थोड़ा पशोपेश में पड़ गयी लेकिन अपनी स्टेट फारवर्ड आदत-प्रकृति के अनुसार उसने अपने प्रिय मित्रों का नाम लेना शुरू किया, अमकना? नहीं. ढीमकना? नहीं. अलाना? नहीं. फलाना? नहीं. वो? वो भी नहीं. इस तरह जब लिस्ट सत्तर-बहत्तर तक पहुँच गयी तो मनोहर ने कहा, जरूर गलतफहमी का मामला है.” शुभकामनाएं दे कर वह विदा हो गया.

अपने मित्र जतिन को उसने दर्द भरा पत्र लिखा, रो-रो नयना तू मत खोइयो, मैंने लिख दई पत्तर में;
                                        तेरो नाम यहाँ पर प्यारे, सत्तर में ना बहत्तर में...
                                ***

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

मंगल कामना


अमावस की संध्या, दीपों का गजरा,
शरद की सुहानी वायु के झंझे,
बाती पे कैसा ज्योति का पहरा!
अँधेरे उजाले जनम से हैं उलझे,
ऐसे में प्रियवर, कुछ बुलबुले बुन,
सुन्दर सलौने शब्दों का गजरा,
तुम्हारी कुशल की सकल कामनाएं,
तुम्हें भेजता है मेरा ये हियरा.
        ***

सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

कृतज्ञता, धन्यवाद, शुभकामनाएं


एक लड़का सुदूर उत्तर प्रदेश के गाँव से मुम्बई चला गया. वहाँ काम पर भी लग गया मुम्बई तो माया नगरी है, वहाँ की तेज रफ़्तार ज़िन्दगी, लोगों का रेला सब कुछ वह देख रहा था पर उस भीड़ में वह अपने आप को अकेला महसूस कर रहा था. उसे घर-गाँव की बहुत याद आती थी. उन दिनों चिट्टी-पत्री ही संपर्क का एकमात्र जरिया होता था सो वह पोस्ट आफिस से एक पोस्ट कार्ड खरीद लाया. बहुत भावुक होकर उसने लिखना शुरू किया, सिद्धि श्री सर्बोपमायोग्य माता पिता जी को प्रणाम, ताऊ ताई जी को प्रणाम, चाचा चाची को प्रणाम, पड़ोस के दादा जी को प्रणाम, गोपाल काका, सुरेश भाई, हीरा जी को प्रणाम, चुन्नू, मुन्नू, गुड्डू, पप्पू, मुन्नी, गुली, जानकी, रामी, चानो, और छम्मो को प्यार व शुभाशीशें. मामा मामी, बुआ फूफा जी को मेरा नमस्कार... इस तरह उसने गाँव के सभी लोगों का सिलसिलेवार नाम व प्रणाम लिखना शुरू किया. कोशिश की कि कोई छूटे ना. अब पोस्ट कार्ड में जगह तो सीमित होती है. नमस्कार, प्रणाम, प्यार, व शुभ आशीषें लिखने में ही भर गया कुछ और लोग रह गए थे तथा बाकी कुशल बात के लिए जगह बची ही नहीं इसलिए आख़िरी लाइन में उसने लिखा, बाकी लोगों को अगले पत्र में प्रणाम लिखूंगा.

कुछ ऐसी ही स्थिति आज मेरी है. मुझे संयुक्त राज्य अमेरिका में आये हुए एक सौ दिन हो गए है और यहाँ आकर ही मैंने इंटरनेट पर अपना ब्लाग जाले लिखना शुरू किया. जिसमे अपनी कल्पनाओं के आधार पर अनेक आंचलिक कहानियाँ व दृष्टान्त लिख डाले. अपने जीवन के द्वितीय प्रहर में लिखी हुई कई कविताओं को भी इसमें प्रकाशित किया. समसामयिक विषयों पर भी लिखा तथा ब्लॉग को रोचक बनाये रखने के लिए इधर उधर के मसाले व चुटकुले भी इसमें डाले हैं आज मैं संतुष्ट हूँ कि मैंने इस अवधि में पूरे एक सौ रचनाएं प्रकाशित करके अपनी सेंचुरी मार दी है. मेरे अनेक पाठकों के सन्देश मुझे मिलते रहे जिन्हें पाकर मेरा हौसला तो बढ़ा ही है, मुझको लगने लगा है कि मेरी ये कृतियाँ लंबे समय तक मुझे लोगों के जहन में स्थान देती रहेंगी.

लिखता तो मैं बचपन से ही था पर पिछले तीस सालों में मेरी लेखन कला रेगिस्तानी नदी की तरह लुप्तप्रायः थी. यहाँ आकर मैंने बहुत जल्दी जल्दी लिखा और बहुत लिखा, कारण मैं अब जीवन के अन्तिम सोपान में हूँ. मेरे पास ज्यादा समय नहीं बचा है. इसलिए जितना काम पूरा हो सका मैंने ओवरटाइम में भी किया.

इस सबका पूरा श्रेय में अपनी बेटी गिरिबाला व दामाद भुवनचन्द्र जोशी को देता हूँ, क्योंकि सारी लेखन प्रेरणा व प्रक्रिया इन्होंने ही मुझे दी. खाली प्रेरणा ही नहीं लेखन सामग्री से लेकर लेपटोप पर लिखना, संयोजन करना, था प्रूफरीडिंग करना, सब डैडीकेशन व धैर्य का कार्य था. मैं ह्रदय से इनको शुभ आशीर्वाद देता हूँ. मेरी नातिनी हिना जो आजकल जार्जिया मेडीकल कालेज में एम्.डी. की छात्रा है, उसके सफल, सुखद व लोकप्रसिद्ध जीवन की कामनाएं करता हूँ.

इसके बाद मैं उन तमाम पाठकों को जो प्रमुखतया फेसबुक पर मेरे मित्रों की लिस्ट में हैं तथा वे अनजान अपरिचित लोग जो निरंतर मेरी रचनाये पढ़ कर इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति मुझे बताते रहते हैं; जिनकी संख्या इस छोटी सी अवधि में सैकड़ों में हो गयी है, मैं गाँव से मुम्बई गए गए हुए उस लड़के की ही तरह सबका नाम व उनको प्रणाम लिखना चाहता हूँ, चाहे वह आस्ट्रेलिया में हो, तंजानिया में हो, नैरोबी में हो, जर्मनी में हो नार्वे में हो, सिंगापुर में हो, इंग्लैण्ड में हो, यहाँ अमेरिका में हो, कनाडा में हो या मेरे देश भारत में ही रहता हो; सबको धन्यवाद व शुभ कामनाएं देता हूँ. दक्षिण भारत के उन पाठकों को जो तमिल, तेलगू, कन्नड़, या मराठी भाषी हैं, मेरी क्लिष्ट हिन्दी पढ़ने का साहस करते हैं, अपने दिल की गहराईयों से धन्यवाद देता हूँ.

मैं नवंबर में स्वदेश लौट कर उन रचनाओं को भी प्रकाशित करने का प्रयास करूँगा जो बरसों से मेरे घर पर फाइलों में संगृहीत हैं. अंत में अपना ई-मेल एड्रेस ppandey.blogs@gmail.com. इसलिए लिखना चाहता हूँ कि पाठक गण मुझे मेरी गलतियों व कमियों पर टोकते रहें.
                                    *** 

रविवार, 23 अक्टूबर 2011

हिसाब बराबर


ओमप्रकाश अग्रवाल अच्छे धनीमानी व्यक्ति हैं. नई सड़क, दिल्ली, में उनकी पुश्तैनी किताबों की दूकान है. उनका परिवार वहीं दुमंजिले में रहता आया था. बाद में जगह की कमी महसूस होने लगी तो उन्होंने महरोली में २०० गज के प्लाट में एक बढ़िया आधुनिक बँगला बनवाया, बँगला बना तो पीछे एक सर्वेंट क्वाटर भी बनवा दिया.

कारोबार बहुत अच्छा चल रहा था. किताबों के अलावा उन्होंने डायरियों, पेन, व आफसेट कलेंडरों का भी काम शुरू कर दिया था. तीन सयाने बेटे हैं जो कारोबार खूब अच्छी तरह सम्हाल रहे हैं. हर साल करोड़ों का टर्नओवर होने लगा है.

ओमप्रकाश बड़े आस्तिक किस्म के आदमी हैं और पैसे की कद्र करना भी खूब जानते हैं. ये जुमला वे अक्सर उछालते रहते है, पैसा भगवान तो नहीं पर भगवान से कम भी नहीं. सब कुछ होते हुए भी बात-व्यवहार में उनका कंजूसपना झलकता ही है. देव-मंदिरों में भी उन्होंने पूरा रुपिया कभी नहीं चढाया. एक बड़ी तिजोरी घर में रखते हैं जिसमे पंचम जार्ज के जमाने के चांदी के सिक्के भरे पड़े हैं. जब से सारा काम काज, लेन-देन, बैंकों के माध्यम से होने लगा है, नकदी का काम बहुत ज्यादा नहीं रहा है. लड़के सब सम्हाल लेते हैं. ओमप्रकाश अब अक्सर अपनी बुजुर्ग माता श्री व श्रीमती के साथ बिताना पसंद करने लगे हैं.

पुराने घर में नौकर की जगह तो थी नहीं पर यहाँ आकर सबसे पहले उन्होंने नौकर की तलाश की और सौभाग्य वस एक १६-१७ साल का गढ़वाली लड़का डूंगरराम उनको मिल भी गया. बहुत मोल-भाव करके उसे खाना-खुराक के साथ ५०० रूपये मासिक पर काम पर रख लिया. अखबारों में नौकरों के अपराधों की बहुत सी घटनाएं छप रही थी इसलिए उन्होंने डूंगरराम का बकायदा पुलिस वेरिफिकेशन भी करवा लिया. डूंगरराम घर का सारा काम करने लगा, पर खाना श्रीमती अग्रवाल अपने हाथों से ही पकाती हैं और उनकी रसोई में प्याज लहसुन का भी परहेज है.
डूंगरराम गरीब लड़का है. जैसा मिल जाये खा लेता है. घर में सभी लोग उसके काम-काज व व्यवहार से संतुष्ट थे. तीन चार साल तक तो सब ठीक ही चल रहा था. अब डूंगरराम के गाँव से उसके माता-पिता के बार-बार पत्र आ रहे थे कि उसकी शादी तय कर दी गयी है. उसने मालिक को ये बात बताई तो उनको लगा कि अब ये भागने के फिराक में है. अत: उसको बन्धन में रखने के लिए उन्होंने उसको कहा, शादी करके आ जा. दुल्हन को भी यहीं ले आना. मैं तेरी तनखाह तीन सौ रूपये बढ़ा दूंगा, पर तुम्हारा खाना पीना अब अपने क्वाटर में कर लेना. डूंगरराम को मालिक का प्रपोजल ठीक लगा. वह गाँव गया. शादी करके दुल्हन को साथ ले आया. मालिकन ने खाना पकाने के बर्तन भी उनको दे दिए. सब सामान्य हो गया. ओमप्रकाश ने नौकर के वापस आ जाने पर राहत महसूस की.

डूंगरराम की पत्नी प्रेमा को यहाँ का खाना अच्छा नहीं लग रहा था. वह अरुचि बताने लगी और बोली, "कभी मीट भी लाया करो. डूंगरराम ने उसको बताया कि, "मालिक लोग तो प्याज लहसुन तक नहीं छूते हैं, तू मीट की बात कर रही है. वह चुप हो गयी पर अगले दिन से बार बार वही रट लगाने लगी कि, "मेरा मन मीट खाने को हो रहा है.
वह पत्नी को नाखुश भी नहीं रख सकता था. एक दिन एक ढाबे से बना बनाया मीट ले आया. पर प्रेमा को वह भी बिलकुल पसंद नहीं आया बोली, "तुम कच्चा मीट लेकर आना. मैं दरवाजा बंद करके बनाऊँगी. देखना तुम अंगुली चाटते रह जाओगे.

अगली बार डूंगरराम चुपके से बाजार से आधा किलो मीट ले ही आया पत्नी को ताकीद करते हुए बोला दरवाजा बंद करके पकाना. मालिक को मालूम पड़ गया तो नौकरी जायेगी. प्रेमा ने मीट मसाला डाल कर चटपटा बना कर पकाया. खिड़की दरवाजा बंद थे पर उसकी खुशबू तो बाहर जा ही रही थी. हवा का रुख भी मालिक के कमरे की तरफ ही हो रहा था.

अग्रवाल जी के नाक में जब वह गन्ध पहुँची तो उनको कुछ शंका-आशंका हो गयी. वे तलाशने लगे कि गन्ध काहे की आ रही है और कहाँ से आ रही है? सूंघते-सूंघते डूंगरराम के क्वाटर पर पहुँच गए. दरवाजा भीतर से बंद था पर महक बाहर तक जोरों से आ रही थी. उन्होंने डूंगरराम को आवाज दी तो अन्दर दोनों खमोश हो गए. लेकिन जब जोर जोर से पुकारा और दरवाजा भड़भड़ाया तो डूंगरराम को बाहर निकलना ही पड़ा. मीट का भभका भी साथ में आया.

मालिक ने पूछा, ये काहे की खुशबू आ रही है?
डूंगर राम ने सोचा अब पकडे तो गए हैं सच-सच बता देना चाहिए सो बोला, मालिक ये नादान औरत नहीं मानी. गलती हो गयी. अब भविष्य में ऐसा नहीं होगा.
अग्रवाल कुछ समझे नहीं. फिर पूछा, मगर ये खुशबू काहे की आ रही है?
डूंगरराम डरते हुए और झेंपते हुए बोला, मीट की.
अग्रवाल साहब ने खुशी जाहिर करते हुए कहा, "वाह ये तो बड़ी प्यारी खुशबू है. मुझे अच्छी लगी. तू ऐसा कर रोज ही पकाया कर. मुझे कोई ऐतराज नहीं है.
ये कह कर वे वापस अपने बंगले में घुस गए. इधर डूंगरराम और उसकी पत्नी एक दूसरे का मुँह देख कर खूब हंसते रहे. तबीयत से मीट-भात खाया. अब मालिक राजी तो डर भाग गया.

अब डूंगरराम एक-दो दिन में ताजा माँस लाकर प्रेमा को देने लगा. उसकी भी बांछें खिल गयी. आये दिन नानवेज बनाने और खाने से उनका बजट बिगडता जा रहा था. प्रेमा ने पति से कहा, खुशबू तो मालिक ले ही रहे है. तुम उनसे तनखाह बढ़ाने की बात करो.

हिम्मत करके डूंगरराम मालिक के सामने उनकी बैठक में हाजिर हुआ थोड़े मुस्कराहट के साथ बोला, मालिक आप मीट की खुशबू का आनंद तो ले रहे हैं, पर हमारा खर्चा नहीं चल रहा है. तनखाह बढ़ानी पड़ेगी. ये सुन कर अग्रवाल साहब के माथे पर बल पड़ गए काफी देर सोचने के बाद बोले, "अच्छा तू यहीं बैठ. खुद अन्दर स्ट्रांग रूम में चले गए, तिजोरी खोली, वहाँ से काफी देर तक सिक्कों की खनखनाहट डूंगरराम को सुनाई दे रही थी. डूंगरराम मन ही मन सोचने लगा आज मालिक अपना खजाना उस पर लुटाने वाले हैं. वह बहुत खुश हो रहा था.

उसकी खुशी ज्यादे देर नहीं रही क्योंकि जब मालिक बाहर आये तो खाली हाथ थे. आते ही उन्होंने डूंगरराम से पूछा, तुमने कुछ सुना?

डूंगरराम बोला, हाँ मालिक सिक्के बज रहे थे.
मालिक ने फिर पूछा "कैसा लगा?
डूंगरराम ने उत्तर दिया, बहुत अच्छा लगा.
इस पर ओमप्रकाश अग्रवाल गंभीर होकर बोले, देख मैंने तेरे पकवान का ऐसे ही आनंद लिया जैसे तूने मेरे सिक्कों का लिया है. हिसाब बराबर हो गया. अभी दमड़ी नहीं मिलेगी. तू जा अपना काम कर.

शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

मक्कारपुरा


उस गाँव का नाम पहले से मक्कड़पुरा था, पर वहाँ के लोगों के बात-व्यवहार से उसका नाम लोगों की जुबान पर मक्कारपुरा चढ़ गया. खुद गाँववासी भी अब गाँव का नाम मक्कारपुरा ही बताते है. क्यों ना हो, जब पूरे गाँव के लोग हर बात पर मक्कारी करते हों तो यथा नाम तथा गुण वाली बात भी फिट बैठ गयी.

एक सर्दियों के दिनों की शाम जब हल्की बारिश की फुहार भी चालू थी, किसी बच्चे ने आकर खबर दी कि टोनी नाम का बच्चा कुए में गिर गया है. हल्ला होते ही लोग भाग कर कुएं के पास गए, वहाँ भीड़ लग गयी पर उस ठण्ड में झुरमुट अँधेरे के बीच कोई भी कुएं में उतरने के लिए राजी नहीं था. अच्छे अच्छे नौजवान कार्यकर्ता मुँह चुरा रहे थे एक तरह से मक्कारी कर रहे थे. अपनी बला टालने के लिए ग्राम सभा सदस्य सुन्दरलाल बोला, अरे, बाल्टी निकालने वाली काँटों की रस्सी लाओ, उसको पकड़ कर टोनी बाहर आ जाएगा.

उस हबड़-तबड़ में टोनी का बाप कांटे वाली रस्सी बाल्टी सहित ले आया और कुएँ में डाल दी. लोग सभी ऊपरी मन से ये सब कर रहे थे क्योंकि इतनी देर तक बच्चे के पानी में बचे रहने की कोई उम्मीद नहीं थी. लेकिन उनके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा जब नीचे बाल्टी किसी ने पकड़ ली. धीरे-धीरे रस्सी को खींचा गया तो देखा कि गाँव के सबसे बूढ़े और कमजोर आदमी रहीम चाचा टोनी को बगल में लेकर बाहर रस्सी के सहारे बाहर आ गए.

सबने ताली बजाई, वाह-वाह किया. वे दोनों ठण्ड से कांप रहे थे, सीधे नजदीक में पंचायत भवन में ले गए. सब लोग बड़े हैरत में थे, उत्साहित भी थे. इतने में एक आदमी बोला, देखा, रहीम चाचा का कमाल, कोई नौजवान हिम्मत नहीं कर पाया; इन्होंने कर दिखाया.

सुन्दरलाल बोला, चाचा हम तुम्हारा नागरिक सम्मान करेंगे.

इस पर रहीम चाचा बड़ी तुर्सी के साथ बोले, तुम्हारे नागरिक सम्मान की ऐसी की तैसी, पहले ये बताओ कि मुझे धक्का किसने दिया था?
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शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

उलझे रिश्ते


इज्जतनगर, बरेली, में डाक्टर सुनील गुप्ता की बेटी शालिनी का विवाह मुरादाबाद के खजानचंद गुप्ता के बेटे नन्द कुमार से रस्मो-रिवाज के साथ तय किया गया. बरात दरवाजे पर आ गयी तब मालूम हुआ कि शालिनी गायब हो गयी है.

शालिनी शुरू से ही अपने इस विवाह के बारे में माँ-बाप से असहमत थी क्योंकि वह सुदर्शन कश्यप नामक एक क्लासमेट के साथ बरसों से सपने संजोये हुए थी. चूँकि सुदर्शन गैर जाति वाला था इसलिए डाक्टर गुप्ता ने डाट-डपट कर बेटी को बहुत सारे वास्ते दिए क्योंकि अभी छोटी बहिन व भाई भी लाइन में थे. बिरादरी से बाहर जाने का मतलब था भविष्य में समाज में बैठने लायक नहीं रहेंगे. अब ऐन वक्त पर वह भाग गयी तो और भी बुरा होने वाला था. आनन्-फानन में छोटी बेटी नलिनी को हाथ पैर जोड़े कि वह मंडप में बैठ कर घर की इज्जत बचा ले. उसने अपने मन की बात कभी बताई नहीं थी कि उसका भी कहीं चक्कर है. परिस्थितियों के वशीभूत दबाव में उसे नंदकुमार के साथ फेरे लेने ही पड़े. ये सारा अंदरूनी खेल घर के चंद लोगों तक ही सीमित रहा. जैसे तैसे व्याह हो गया. बारात विधिवत विदा भी हो गयी.

ससुराल पहुँच कर नव वधू गुमसुम हो गयी. शाम होते होते तो वह अर्धचेतना की अवस्था में आ गयी. नन्दकुमार को जब दुल्हन के बीमार होने की बात मालूम हुई तो वह उससे मिलने आया. वह दंग रह गया कि वहाँ बहू के रूप में शालिनी नहीं नलिनी थी. उसने नलिनी से इसका कारण पूछा तो उसने सारा सच उगल दिया और ये भी बताया कि वह किसी और की अमानत है. उसने भी इज्जतनगर में ही विवेक गुप्ता नाम के लड़के के गले में भगवान के मंदिर में जयमाला डाली हुई है.

नंदकुमार ने सारी बात अपने माता-पिता को बताने में देर नहीं की. खजानचंद गुप्ता को डाक्टर गुप्ता पर बहुत गुस्सा आया और तुरन्त फोन मिलाया कि उन्होंने उनके साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया?

डाक्टर गुप्ता ने क्षमा मांगते हुए एक ही वाक्य में उनको निरुत्तर कर दिया कि अगर उनकी जगह खुद खजानचंद जी होते तो क्या करते?

घर में मेहमान भी थे अभी शगुन ही गाये जा रहे थे. ऐट होम में खाना खाने के लिए स्थानीय आमन्त्रित लोग आने लग गए थे. अन्दर ये नया डेवलपमेंट होने होने से रंग में भंग जैसी स्थिति हो गयी.

खजांनचंद गुप्ता बड़े जिम्मेदार आदमी थे पीतल के कारोबारी समाज में उनका बहुत मान था. मुरादाबाद के गण्यमान्य व्यक्तियों में उनकी गिनती होती थी. उनको लगा कि अब बड़ी छीछालेदर होने वाली है तो उन्होंने घर परिवार के, निकट बिरादरी के और रिश्तेदारों को जल्दी से बुलाया और विस्तार से सारी कहानी कह डाली. अंत में प्रमुखतया कहा कि चूँकि उनके घर में कोई बेटी नहीं है इसलिए वे नलिनी को बहू नहीं बेटी का दर्जा देते है. नलिनी को भी आश्वासन दिया कि जिस लड़के से वह बंधन बंधा हुआ बता रही है, उससे ही उसका ब्याह करा देंगे.

लोगों ने तालियाँ बजाई. पूरे एपिसोड में नया मोड आ गया. सबने खजानचंद गुप्ता के बड़प्पन  व उनके आदर्शवादी होने पर बहुत खुशी जताई. अगले ही दिन तमाम स्थानीय व राष्ट्रीय अखबारों में ये डबल प्रेम कहानी चटाखेदार शब्दों में छप गयी. इज्जतनगर के घर घर तक बात पहुँच गयी.

खोजी पत्रकार विवेक गुप्ता को खोजते हुए उसके घर तक पहुँच गए. एक तमाशा हो गया. जब विवेक से इस बारे में कमेंट्स पूछे गए तो उसने कहा, मैं अब किसी नलिनी गुप्ता को नहीं जानता. ना ही उससे विवाह करूँगा क्योंकि वह दूसरे की पत्नी हो गयी है.

ये वक्तव्य भी दूसरे ही दिन अखबारों में आ गया. अब नलनी त्रिशंकु होकर रह गयी. खजानचंद गुप्ता ने उसे बाइज्जत उसके दान-दहेज सहित माँ-बाप के पास इज्जतनगर भेज दिया.

इस प्रकार के अनेक अभिषप्त परिवार हमारे देश में है जहाँ जाति, धर्म व अमीरी-गरीबी के मापदंडों से दुर्दिन देखने पड़ते हैं. लड़के और लड़कियों को अपने पैरों पर खड़े होकर ही भविष्य के निर्णय लेने चाहिए और माँ-बाप को भी समय की नजाकत व बच्चों की भावनाओं को समझना चाहिए.
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गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

काला भूतड़ा


राजस्थान में कंजरों की बस्ती गाँव के बाहर रहती थी. अभी भी शायद ये स्थिति बरक़रार होगी. ये एक जरायम पेशा (अपराध वृति) के कबीले जैसे, अनपढ़ व जाहिल किस्म के लोग होते हैं. इनकी औरतें भी प्राय: अनैतिक कार्य करती हैं. रात्रि में दूर-दूर तक छापा मार कर चोरी-सेंधमारी करना इनके बाएं हाथ का खेल होता है.

कहीं अगर ताले टूट जाये, मकानों में चोरी हो जाये तो पुलिस को पहला शक कंजरों पर जाता है. कई कंजर तो हिस्ट्री सीटर भी हैं, जिनका पूरा पुलिस रिकार्ड रखा जाता है. पकड़े जाते हैं, कोई गुनाह कबूल भी कर लेता है, पर अधिकतर इतने पक्के होते हैं कि तीसरी डिग्री का प्रयोग करने के वावजूद पुलिस कुछ भी नहीं उगलवा पाती है. वर्तमान में सरकारों ने इनको समाज की मुख्य धारा में ढालने के लिए समाज कल्याण विभाग के मार्फ़त अनेक कार्यक्रम बना रखे हैं. इस दिशा में कितना काम हो चुका है या हो रहा है? कुछ कहा नहीं जा सकता है.

ऐसा ही एक गाँव है बेरखेड़ा जहाँ सिर्फ कंजर लोग ही रहते हैं. उनका सरदार था हल्कू जिसे सब लोग गरू कहते थे. सब उसका कहना मानते थे. उसका अपना तौर तरीका था. वह चोरी करने के लिए दिशा निर्देश दिया करता था, और अपना हिस्सा लेता था. उसने पूरे गाँव के मर्दों को आदेश कर रखा था कि कोई मंदिर नहीं जायेगा तथा कथा-कीर्तन नहीं सुनेगा. सब लोग उसकी बात को पत्थर की लकीर समझते थे.

एक गबरू जवान किसनू अपने फन में उस्ताद हो गया था. सैकड़ों चोरियां करके नाम कमा चुका था. पुलिसवाले उसे अक्सर थाने में तलब करते रहते थे. थाने वालों को वह कुछ चटाता ही रहता होगा पर इस बारे में कुछ कहना पुलिस को नाराज करना जैसा होगा. किसनू गरू के निर्देशानुसार पांच कोस दूर गोरान्पुरा गाँव में लखनलाल जायसवाल के घर को रात में खंगाल लाया. बड़ा हाथ मारा था. लाखों का माल समेट कर वापस आ रहा था तो रास्ते में भीरारिया गाँव में बीचों बीच होकर जाने का रास्ता था जहाँ रात में भगवत कथा हो रही थी. किसनू ने जेब से रुई निकाली और दोनों कानों में ठूँस ली ताकि कथा वाचक की कोई बात उसके कानों में ना घुस पाए. पर हुआ क्या कि जब वह कथा स्थल के नजदीक था तो एक कान की रुई अचानक निकल कर गिर गयी. उस वक्त कथा वाचक अपने कथांश में कह रहे रहे कि भूत-प्रेतों की छाया जमीन पर नहीं पड़ती है, उनके पैरों के पंजे पीछे की  तरफ उलटे होते हैं जो जमीन को नहीं छूते. वे जूते भी नहीं पहनते हैं.

किसनू को इतनी बात सुननी ही पडी क्योंकि कान में डालने के लिए उसके पास अतिरिक्त रुई नहीं थी. वह अंगुली कान के डाल कर आगे निकल गया, और अपने घर आ गया. उसने गरू को उसका हिस्सा भी पहुंचा दिया तथा बेफिक्र हो गया. ये उसकी आम दिनचर्या ही थी.

उधर लखनलाल जायसवाल ने थाने में रिपोर्ट की और प्रशासन को हिला कर रख दिया. इल्जाम ये लगाया कि ये सब पुलिस की मिली भगत से हो रहा है. विधान सभा में भी बात उठ गयी. अखबारों ने इसे फ्रंट पेज पर छापा. पुलिस के लिए ये बड़े शर्म की बात कहे जाने लगी. दस दिनों तक जब कोई सुराग नहीं मिला तो थानेदार बारियांम सिंह झाला ने तुक्का लगाया, हो सकता है ये काम किसनू कंजर का ही हो क्योंकि इतनी सफाई से वही ऐसा काम कर सकता है. थानेदार को ये भी मालूम था कि किसनू हाल में ही जेल से छूट कर आया है. झाला ने सोचा कि मार पड़ने से तो वह कबूलेगा नहीं, उसे नए ढंग से डराया जाये. अत: उसने काले कपड़े व मेकअप करके एक डरावना चेहरा बना लिया. रात के अँधेरे में जीप गाँव के बाहर ही खड़ी करके अकेले सीधे किसनू के ठिकाने पर दस्तक दी.

बाहर से आवाज भारी करके किसनू को पुकारा तो अन्दर से उसने पूछा, कौन है?
भूत ने कहा, काला भूतड़ा हूँ. बाहर निकल.
किसनू जब बाहर आया तो देख कर सचमुच भयभीत हो गया, कांपने लग गया. भूतड़े ने कहा, गोरानपुरा से जो माल लाया है, उसमें मेरा भी हिस्सा है. निकाल, वरना मैं तेरा सर्वनाश करके जाउंगा.
किसनू घबराहट में बोला, अभी लाता हूँ. और ये कह कर वह जब घर के अन्दर जेवरात निकालने लगा तो अचानक उसे कथावाचक की कही हुई बात याद आ गयी. उसने झट टार्च टटोली और फिर बाहर आकर देखा तो भूत के पैरों में जूते हैं और पैर सीधे भी है, जमीन पर टिके हैं, साथ ही छाया भी पड़ रही है. किसनू भी खेला-खाया खिलाड़ी था समझ गया कि ये कोई भूत नहीं है, ठग है. उसने आव देखा न ताव एक लकड़ी से थानेदार झाला को दे मारी. झाला जब तक सम्भलते, हल्ला हो गया. झाला को घेर लिया गया. पर जब गरू आया तो उसने झाला का परिचय पाकर आदेश दिया कि थानेदार को उसका हिस्सा दे दिया जाये क्योंकि वह बड़े काम के आदमी है. एक पोटली में अपना हिस्सा लेकर थानेदार झाला लौट कर अपने जीप पर आकर सोचने लगे कि 'इसकी पूरी रिपोर्ट उच्चाधिकारियों तक किस प्रकार पहुंचाई जाये.'

उधर जब किसनू ने गरू को राज की बात बताई तो गरू को बहुत ताज्जुब हुआ. उसने कहा हमारे पुरखे गलती पर थे, अगर कथा में इतनी बड़ी बात बताई जाती है तो हमको इससे परहेज नहीं करना चाहिए.

इस प्रकार गरु ने अपने गाँव में कथा कीर्तन कराने के लिए दूर वामन गाँव से पंडितों को बुलाया. कहते हैं कि इसके बाद कंजरों के जीवन में काफी सुधार आ गया है. उन्होंने चोरी चकारी करना छोड़ दिया है.
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बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

ट्रेड यूनियन आन्दोलन


सत्रहवीं शताब्दी में जब यूरोप में औद्योगीकरण की लहर आई तो कल कारखानों के कामगारों की अलग पहचान बनने लगी, जिनके हितार्थ कुछ मित्र मंडलियों जैसे संगठन बनने लगे क्योंकि पूंजीपति लोग कम से कम वेतन देकर अधिक से अधिक लाभ कमाने की प्रवृति में थे. इस विषय में कोई वैधानिक या कानूनी व्यवस्था न होने से मालिकों की मनमर्जी चलती थी तथा अत्याचार भी होते रहे. कैथोलिक चर्च के पोप लियो १२ ने तत्कालीन हालातों में श्रमिकों पर हो रही ज्यादतियों पर उनके लिए गारेंटेड अधिकारों व सुरक्षा नियमों की आवश्यकताओं पर बल दिया था. अमेरिका में भी तत्कालीन प्रेसिडेंट अब्राहम लिंकन ने जोर देकर कहा कि पूंजी से श्रम ज्यादा महत्वपूर्ण है.

इंग्लेंड में १८३३ में सर्व प्रथम फैक्ट्री एक्ट प्रकाशित हुआ जिसमे ८ घन्टे काम करने का प्रावधान किया गया और तत्कालीन व्यवस्था में श्रमिकों की बेरोजगारी स्थिति, बीमारी, बुढापा व अन्तिम संस्कार के लिए हितलाभ जैसे प्रमुख मुद्दों पर विचार होने लगा. इसके अलावा बाल मजदूरों के काम के घंटों व स्वास्थ्य पर चिंताए जताई जाने लगी. इसी क्रम में राजनैतिक विचारधारा के रूप में लेबर पार्टी का आविर्भाव भी हुआ.

भारत में भी अंग्रेज उद्योगपतियों के संगठन लंकाशायर कैप्लिस्टस ने भारतीय कम्पनियों मे, जिनमें खास कर कपड़ा व जूट मिलों में समानांतर रूप से प्रतिस्पर्धा होने के कारण सभी के लिए वर्किंग कंडीसन जाँच के लिए १८७५ में पहला कमीशन गठन करवाया. पहला फैक्टी एक्ट १८८१ में फिर जूट उद्योग के लिए काफी देर बाद १९०९ में फैक्ट्री एक्ट बना. गुलाम भारत में श्रमिक वर्ग पूरी तरह असंगठित था. इस बीच लीग आफ नेशन्स ने १९१९ में I.L.O. (अन्तर्राष्ट्रीय लेबर आर्गनाइजेशन) की स्थापना की तो भारत में भी राजनैतिक चेतना स्वरुप १९२० में AITUC (ALL INDIA TRADE UNION CONGRESS) की स्थापना हुई. जिसका पहला अध्यक्ष लाला लाजपत राय को बनाया गया. बाद में इसके अध्यक्ष के रूप में अनेक नाम जुड़े, जैसे सी.आर.दास, वी.वी.गिरि, सरोजिनी नायडू व जवाहरलाल नेहरू आदि. 

प्रथम विश्व युद्ध के बाद बढती महंगाई एक प्रमुख मुद्दा बन गया. वेतन बहुत कम था और सुविधाएँ ना के बराबर थी. अत: ट्रेड यूनियन आंदोलन जोर पकड़ता गया. सन १९२४ से १९३५ के बीच के समय को ट्रेड यूनियन का रिवोल्यूशनरी पीरिअड कहा जाता है. सन १९२७ तक ५७ यूनियन एटक से संबद्ध हो गयी थी.

स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ श्रमिक आंदोलन भी नया रूप लेता जा रहा था पहले प्रांतीय स्तर पर मुम्बई में औद्योगिक विवाद अधिनियम आया तथा मध्य भारत में मी बाद में अलग से अधिनियम बनाया गया. देश भर के लिए ओद्योगिक विवाद अधिनियम १९४७ में ही लागू हुआ. जिसमे प्रबंधन में लेबर पार्टीसिपेशन का भी प्रावधान था. विवाद निबटाने के लिए राज्य स्तर पर तथा केन्द्रीय स्तर पर एक सरकारी तंत्र की स्थापना की गयी.

सन १९४६ में अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी ने एटक से अलग होकर अपना अलग लेबर विंग इंटक (INDIAN   NATIONAL TRADE UNION CONGRESS)  बना लिया. एटक की कमान बामपंथी नेताओं के हाथ में चली गयी. कालांतर में ये फिर विभाजित होता रहा सोशलिस्टों ने हिंद मजदूर सभा नाम से पहचान बनाई. १९६२ के भारत चीन युद्ध के बाद कम्युनिस्टों में भी लेलिनवादी और मार्क्सवादी जैसे भेद उभरे, नतीजन एटक का विभाजन हुआ जो कट्टर पंथी माने जाते थे उन्होंने सेंटर फॉर ट्रेड यूनियन (CITU) नाम से देशव्यापी नेटवर्क बना लिया. उधर दक्षणिपंथी पार्टी जनसंघ जो बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी ने अपना लेबर विंग भारतीय मजदूर संघ के नाम से बना लिया. इसके अलावा अनेक यूनियन नेताओं ने और क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं ने स्वयम्भू बन कर अपनी अलग प्राइवेट यूनियनें बना कर बार्गेनिंग का धन्धा शुरू कर दिया.

कुल मिला कर ट्रेड यूनियन के कई फैडरेशन भी बने है. कुछ को छोड़ कर नेतागण अपनी अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इनका खुला इस्तेमाल करते रहे हैं. कामगारों का दुर्भाग्य भी रहा है कि इस राजनैतिक प्रतिस्पर्धाओं के कारण एक ही उद्योग में कई कई यूनियनें खड़ी हो गयी. मजेदारी ये है कि कोई भी सात कामगार अपना अलग संगठन बना कर झंडा लहरा लेते हैं. जिसका नतीजा ये होता है कि सामूहिक बार्गेनिंग का मुख्य उद्देश्य प्राप्त नहीं हो पाता है. जहाँ मालिक प्रगतिशील होता है वहाँ सब निभ जाता है पर जहाँ अभी २१ वीं सदी में भी यूनियन के नाम से चिढ हो तो वहाँ बहुत बुरा हाल है. कई उद्योगों के मालिक अपने विधि सम्मत कार्यों पर कानूनी मुहर लगवाने के लिए ऐसे लोगों की यूनियन बनवाते हैं जो उनके यस मेन हो. यूनियन के लीडर कम पढ़े लिखे होने के साथ साथ व्यक्तिगत लाभ के उद्देश्य से सामने आते हैं. युनियन की बजट का आडिट का प्रावधान भी है पर नियम इतने लचीले व फर्जी किस्म के है कि ये एक खाना पूर्ती से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं.

राष्ट्रीय संगठन व फैडरेशन भी सब प्रायोजित कार्यक्रमों के अनुसार चल रहे हैं. उधर लेबर आफीसर से लेकर कमिश्नर तक तथा फैक्ट्री इन्स्पेक्टर आदि निगरानी तंत्र के लोग राजनैतिक भ्रष्टाचार के तले सुरक्षित हैं. अधिकतर भष्ट हैं. ये श्रमिकों की समस्याओं के प्रति कितने चिंतित रहते है? इसका विश्लेषण करेंगे तो १०० में से ५ अंक दिए जाएंगे तो बहुत होंगे. इन अधिकारियों के पास उद्योगों को जायज-नाजायज तरीकों से हैरान करने के अकूत तरीके हैं. जिन पर लोकपाल बिल जैसी व्यवस्था की शायद ही नजर पड़ सकेगी.

इन पंक्तियों के लेखक का व्यक्तिगत अनुभव है कि ठेकेदारी प्रथा भी भ्रष्टाचार का एक विशेष श्रोत है. तमाम नियम कानूनों की कैसे धज्जियां उडाई जाती हैं देखना हो तो तो फील्ड में जाकर देखना होगा. इस सबकी मार पड़ती है मजदूर के वेतन व सेहत पर.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि दुनिया भर में ट्रेड यूनियन मूवमेंट को बामपंथी लोगों ने बल दिया और समय समय पर संघर्ष भी किये. आज जितने भी क़ानून मजदूरों के पक्ष में बने हैं उनका ओरिजिन बामपंथी विचारधारा ही है. जब से रूस व चीन जैसे गढ़ ठन्डे पड़ गए है, पूरे विश्व में ट्रेड यूनियन मूवमेंट के दांत टूटे से लगने लगे हैं.

जिस तरह हमारा प्रजातंत्र दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, असलियत में हम देख रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं कि अशिक्षा व हर स्तर पर भ्रष्टाचार के कारण बैशाखियों पर खडा है, ठीक उसी तरह हमारा ट्रेड यूनियन आंदोलन भी है. अभी तक अनेक अंधी गलियों में प्रकाश की प्रतीक्षा है.
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