गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

हमारी आवश्यकताएं

हम मनुष्यों की इच्छायें, ऐषणायें, व आकांक्षाएं कभी कम नहीं होती है; चाहे वह धन संबंधी हों, जायदाद संबंधी, या अतृप्त इच्छाओं के बारे में हों. ये तभी दूर होती हैं जब मनुष्य अंतर्मन से संन्यास की स्थिति में आता है.

एक मिलाद शरीफ में कुछ इसी आधार की कथा सुनी थी कि हजरत शेख इब्राहीम बड़े अल्लाह्परस्त बादशाह थे. सब तरफ से अल्लाह का फजल भी था, लेकिन वे रहते थे पूरे ऐशोआराम के साथ. एक दिन परवरदीगार ने सोचा कि बिना तपस्या के शेख इब्राहीम को जन्नत कैसे नसीब हो सकती है? इसलिए वे एक किसान का वेश रख कर अचानक शेख इब्राहीम के शयनगार में प्रकट हो गए. तब आखें बंद करके हाथ में अल्लाह के नाम की माला फेर रहे थे. खटपट की आवाज से वे चैतन्य हुए तो पाया कि सामने एक अजनबी किसान खडा है. उन्होंने उससे पूछा, कौन हो भाई तुम?
उसने उत्तर दिया, "मैं किसान हूँ.
बादशाह को बड़ा आश्चर्य हुआ और पूछा, यहाँ क्या करने आये हो?
किसान बोला, मेरा ऊँट खो गया है. उसे ढूढ़ रहा हूँ.
बादशाह ने विस्मय पूर्वक कहा, ये बादशाह का आरामगाह है, और तुम यहाँ ऊँट ढूंढ रहे हो. यहाँ कहाँ मिलेगा ऊँट तुमको?
इस पर किसान ने बड़ी तसल्ली से कहा, जब मखमली बिस्तर पर आपको अल्लाह मिल सकता है तो मुझे ऊँट क्यों नहीं मिल सकता है?
ये कह कर वह किसान रूपी प्रेरणा अंतर्ध्यान हो गया और बादशाह के ज्ञान को उजागर कर गया कि वास्तव में अति ऐशोआराम से उपरवाला खुश नहीं हो सकता है. शेख इब्राहीम को संन्यास भाव प्राप्त हो गया. अत: दूसरे ही दिन उसने राज काज सब छोड़-छाड कर अपने पुत्र को गद्दी सौंप दी और गहन तपस्या हेतु घर से निकल गया. निकलते समय वह अपने साथ एक तकिया, एक लोटा, और एक हाथ का पंखा जरूर ले गया क्योंकि इन तीनो वस्तुओं की उसे हमेशा जरूरत रहेगी, ऐसा सोचा गया.

जब वह अनंत की सोच लेकर चला तो राह में उसने अनेक अनुभव प्राप्त किये. उसने देखा कि एक व्यक्ति सिराहने पर ईंट लगा कर रहा था. शेख ने तकिया तुरन्त फैंक दिया. उसने सोचा उसके बिना भी काम चल सकता है तो फालतू क्यों इसे ढोया जाए.

आगे जब वह एक नखलिस्तान में पहुँचा तो उसने पाया कि एक बन्दा अंजुरी से पानी उठा कर पी रहा था अत: उसने लोटे को भी त्याग दिया क्योंकि उसने पाया कि प्रत्यक्ष रूप से लोटे के बिना भी सरलता से काम चल सकता है.

यों विरक्त भाव से जब वह गर्म प्रदेश में घूम रहा था तो उसने देखा एक व्यक्ति अपने कुर्ते की पाट से ही हवा कर रहा था. शेख इब्राहीम ने खजूर से बने उस हाथ के पंखे को भी फेंक डाला.

इसके बाद हजरत शेख इब्राहीम को अल्लाह दुबारा मिले या नहीं, उनको जन्नत नसीब हुई या नहीं, ये दीगर बात है; लेकिन इस कथानक का सारांश यही है कि हम सांसारिक व्यक्तियों को अपनी आवश्यकताओं व इच्छाओं को कम करते रहना चाहिए. वैसे एक नीति-दोहे में हम पढ़ते आये हैं:
          गो धन, गज धन, बाजि धन और रतन धन खान
          जब  आवे  सन्तोष  धन  सब  धन धूरि सामान.
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