शनिवार, 29 सितंबर 2012

चलो अपने गाँव चलें

मन अब भर चुका है
 डीजल और पेट्रोल के धुएं से
  खारा लगता है क्लोरीनी पानी
   ताजा पियेंगे अपने कुँए से
    चलो अपने गाँव चलें.

चाचा की भैंस ब्या गई है
 ऐसी चिट्ठी आई है
  मन करता है ‘खींच’ खाने को
   बेस्वाद लगता है ये पैकेट का दूध
    चलो अपने गाँव चलें.

नवरात्रियों में जागरण करेंगे
 जगरिये गायेंगे, डंगरिये नाचेंगे
  धान की मंडाई भी होनी है
   दीवाली नजदीक आई है.
    चलो अपने गाँव चलें.

कोल्हू अब लगने वाले हैं
 गन्नों की पिराई होगी
  प्यारी महक गुड़-राब की
   मन में कब से समाई है
    चलो अपने गाँव चलें.

यहाँ अब इंसानियत कहाँ रही?
 मिलावट ही मिलावट है
  रिश्तों में भी सियासत है
   वहाँ प्यार भरी सच्चाई है
    चलो अपने गाँव चलें.

सड़कें घर घर पहुँच गयी हैं
 नई हवा का दौर वहाँ है
  बचपन के सपने आते हैं
   आ लिपट मिलेंगे अनायास ही
    चलो अपने गाँव चलें.

            ***

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

काखी

कुमाऊंनी बोली-भाषा में चाची/काकी को ‘काखी’ पुकारा जाता है. जिस तरह से आजकल शहरों में ‘अँकल-आंटी’ के संबोधन का आम चलन हो गया है, उत्तराखंड में वयोवृद्ध महिला को ‘आमा’ व अधेड़ उम्र की महिला को ‘काखी’ कह कर बात करना आदरणीय पहचान है. प्यार व आदर कर रिश्ते अनजानों के साथ भी कभी कभी यों ही बन जाते हैं. एक ७५ वर्षीय महिला को ७० वर्षीय व्यक्ति काखी कहे तो बुरा नहीं माना जाएगा.

दिल्ली के बाहर नवीन ओखला विकास प्राधिकरण, यानि ‘नोयडा’ (Noida), के कुछ सेक्टरों में संभ्रांत लोगों के आलीशान घर हैं. RWA (रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन) द्वारा तमाम नागरिक सुविधाओं की निगरानी की जाती है. महानगर की भीड़ भरी दुनिया से थोड़ी दूरी पर ये नवविकसित कॉलोनियां बहुत व्यवस्थित हैं. बीच-बीच में पार्क भी बनाए गए हैं, जो धीरे धीरे विकसित किये जा रहे हैं. इन पार्कों में जाड़ों में धूप सेकने वाले, अन्य मौसमों में भी शाम सुबह घूमने वाले लोग, तथा खेलने वाले बच्चों की धूम रहती है.

जनवरी माह के एक सर्द दिन जब मैं अपनी पत्नी सहित पार्क की एक बेंच पर धूप का आनन्द ले रहा था, तभी लगभग ७५+ वर्षीय एक महिला लाठी टेकते हुए संधिवात के रोगिओं की तरह चलते हुए हमारी ही बेंच पर आकर विराजमान हो गयी और स्नेह पूर्वक बतियाने लगी. उसने बताया कि कुमाऊँनी सुहागिनों के गले में ‘काला चरेऊ’ (बारीक काली मोतियों की माला) देखकर उसने हमें पहचाना. हमें उसकी बातें-अपनापन बहुत अच्छा लगा. उसने बहुत साधारण से सस्ते कपड़े [धोती-ब्लाउज) पहने हुए थे, जो एकदम घिसे-पिटे पुराने से लग रहे थे. पैरों में भी पुरानी घिसी हुई हवाई चप्पल थी.उसकी बातों से मालूम हुआ कि उसका बेटा किशनचन्द्र पांडे भारत सरकार के विदेश विभाग में बड़ा ऑफिसर था, जिसने ज्यादा समय विदेशों में ही बिताया है और अब एक बड़े अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक संगठन के प्रशासनिक पद कार्यरत है.

माँ कभी भी बेटे के साथ विदेश नहीं गयी. एक ही बेटा है और एक बेटी भी है, जो अल्मोडा के किसी गाँव में सपरिवार रहती है. किशंनचंद्र के लंबे समय तक विदेश में रहने के दौरान वह बेटी के ही पास् रही. अब जब बेटा दिल्ली में व्यवस्थित हुआ है तो वह उसके साथ आ गयी है. उसको यहाँ का वातावरण कतई अच्छा नहीं लग रहा है. यहाँ सब शहरी लोग हैं. अपनी बोली-भाषा वाला कोई नहीं है. दिल के तमाम दर्द और गुबार किसे सुनाये? संयोग से हम मिल गए तो बुढ़िया ने सारी बातें उगलनी शुरू कर दी. बातों बातों में उसने अपनी बहू की बुराई शुरू कर दी. उसकी प्रकृति और प्रबृत्ति के बारे में ऐसी ऐसी बातें कही कि हमें अच्छा नहीं लग रहा था. उसने बताया कि ‘वह किसी से बात नहीं करने देती है ओर बात-बात में डांटती-फटकारती रहती है. इस प्रकार उसका बेहाल हुलिया देख कर और बातें सुन कर मन हुआ कि उसके बेटे-बहू से जरूर मिला जाये. उसे अपने घर का नम्बर मालूम नहीं था, घर नजदीक में ही था इसलिए उसने घर की तरफ ले जाकर दूर से ही अपना तिमंजिला मकान दिखाया और कहा, ‘इतवार को आना, उस दिन मेरा किशन घर पर ही रहता है.” मैंने उसको कहा कि हम इतवार को अवश्य आयेंगे.” मेरी बात से वह बहुत उत्साहित नजर आई.

आगामी रविवार की सुबह १० बजे मैं और मेरी पत्नी दोनों जने उत्कंठा लिए हुए उनके बंगले पर पहुँच गए. गेट पर दरबान खड़ा था, उसने हमारी कैफियत पूछी और अन्दर सूचना देने के बाद हमें दाखिल होने दिया. एक तरफ दो भीमकाय जर्मन शेफर्ड कुत्ते बंधे हुए थे. सजा सवांरा घर अपनी विशेषता लिए हुए था. वृद्धा ने आकर हमारी आगवानी की और अपने बेटे से हमारा परिचय कराया, श्रीमती किशनचन्द्र भी मुस्कुराते हुए सामने आई. दोनों बहुत सभ्य और संभ्रात लगे. बातें हुई. हमने उनको बताया कि हम यहाँ अपने बेटे के पास आये हुए हैं. उन्होंने भी अपने परिवार के विषय में बताया, उनकी दो बेटियाँ हैं, और दोनों ही मेडीकल डॉक्टर हैं तथा विदेश में हैं. उन्होंने बताया कि वे चामी गाँव के पांडे हैं. श्रीमती पांडे रंग रूप में कुछ सांवली और बोलचाल में पंजाबी लहजा था. मुझे नहीं लग रहा था कि वह भी कुमाऊंनी है अत: पूछ ही लिया, “पांडे साहब तो चामी के हैं, आपके मायके वाले कहाँ के हैं?” इस प्रश्न के जवाब में वह कुछ अचकचाई. बोली, “मैं तो कभी पहाड़ गयी ही नहीं.” फिर अपने पति की तरफ मुड़कर बोली, “आप बता दीजिए कि मेरे माँ बाप कहाँ के थे?”

किशन जी ने पिथोरागढ़ के किसी गाँव का नाम लिया. इस पर आगे कोई चर्चा नहीं हुई. शिष्टाचार वश चाय भी आयी. मैंने उनकी माता जी की चर्चा करते हुए कहा कि “ऐसा लगता है कि इनकी जड़ें पहाड़ में होने से यहाँ के नए वातावरण में आत्मसात नहीं हो पाई है.” इस पर उनकी बहू का मिजाज बिगड़ गया. मानो कोई ततैया काट गया हो. बोली, “इनकी पहाड़ी सोच बदलने वाली नहीं है. यहाँ भी नौकर चाकरों से घरेलू बातें किया करती हैं, हमारी इज्जत का भी इनको कोई ख्याल नहीं है. अच्छे अच्छे कपड़े देते है तो पहनती नहीं है, छुपाकर रख देती है. लोगों में हमारी बदनामी करती रहती है.” किशन पांडे अपनी पत्नी के कठोर वचन सुनकर प्रतिक्रियाहीन बैठे रहे. वृद्ध रूआंसी होकर रह गयी. जिसके आमंत्रण पर हम वहाँ गए थे उसकी फजीहत देख कर अजीब दु:ख हो रहा था. मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने गलत सन्दर्भ छेड़ दिया.

वातावरण को हल्का करने के लिए मैंने आत्मीयता बताते हुए कहा “काखी, बुढ़ापा इनके साथ ही काटना है, अब पुराना समय बदल गया है. जैसा ये कहती हैं, वैसे ही रहो. यहाँ तो सब तरह की सुख सुविधा है.”

बृद्धा अपनी डबडबाती आँखों को पोंछते हुए बोली, “तूने मुझे काखी कहा है, तो सुन यहाँ मुझसे बात करने वाला कोई नहीं है. ये लोग मुझे बोझ समझते हैं. मैं वापस अपनी बेटी के पास पहाड़ जाना चाहती हूँ. अगर तू मुझे वहाँ पहुँचा दे तो उपकार मानूंगी.” इस पर उसका बेटा बोला, “ठीक है, जब तू यहाँ नहीं रहना चाहती है तो इनको क्यों बोलती है. मैं तुझे पहुंचा दूंगा.”

वातावरण बहुत बोझिल हो गया. मेरी पत्नी ने चलने का इशारा किया और मैं खिसियानी हँसी हँसते हुए उठा, नमस्कार के साथ, यह कहते हुए कि “काखी, हम फिर मिलने आयेंगे,” हम चले आये.

सगी माँ के साथ ऐसा तिरस्कार पूर्ण व्यवहार से हम दोनों ही बहुत आहत हुए, पर हम दुबारा कभी उनके घर नहीं गए.
(इस कहानी में बृद्धा के बेटे और उसके गाँव का नाम काल्पनिक है अन्यथा  शेष सभी बातें सच हैं.)
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मंगलवार, 25 सितंबर 2012

अजब गाँव

यह अजब गाँव की गजब कहानी है. इस गाँव में सभी कुछ तो अच्छा है लेकिन वहाँ के बाशिंदों के नाम अजब गजब हैं. तीन-चार पीढ़ी पहले गाँव में एक बार बाढ़ आ गयी थी तब किसी ठग तांत्रिक ने यहाँ आकर खबर फैला दी थी कि "अगर गाँव के बच्चों के नाम सीधे सीधे अर्थपूर्ण रखे जायेंगे तो गाँव पूरी तरह पानी में डूब जाएगा, और कोई भी नहीं बच पायेगा." लोग अनपढ़ और सरल थे उसकी बातों से डर गए. तब से बच्चों के नामकरण उल्टे-पुल्टे व बेतुके किये जाने लगे जैसे झगडू, नकटू, नखरू, लटकू, पटकू, ढक्कन, पटकन, कूड़ा, चूड़ा, डोकिया, फोतिया आदि और लड़कियों में तिकड़ी, बिगड़ी, कीड़ी, लोकाती, सेड़ी, चूरी, बासी आदि नाम रखे जाने लगे.

वर्तमान पीढ़ी तक आते आते भी ये निरर्थक नाम रखने का क्रम नहीं टूटा है क्योंकि ये लोग अंधविश्वासी और भीरु संस्कारी होते आये हैं, अतः अपनी परम्परा नहीं तोडना चाहते. पर जब से शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ है बच्चे स्कूल जाने लगे हैं और अपने बेढब नामों को लेकर परेशान रहते हैं, पर क्या करें? उनके नाम तो तब रख दिये जाते हैं जब वे खुद कुछ समझ ही नहीं पाते थे. अपने गंदे नामों पर कोफ़्त होती है साथ ही बताने में शर्म भी आती है.

शहर से मास्टर साहब आये तो यहाँ के नाम जान-सुन कर हैरान हो गए. उन्होंने गाँव के मुखिया बिगाड़ूसिंह को बुला कर इस पर चर्चा की कि ये भोंडे नाम ठीक नहीं है, इनको जमाने के हिसाब से बदला जाना चाहिए. पर मुखिया ने उनकी बात पर सहमति नहीं जताई. वह बोला, “ये तो हमारी पीढ़ियों से चली आ रही परम्परा है, हम ग्राम देवता को नाराज नहीं कर सकते हैं.” मुखिया ने आगे यह भी कहा, “मास्टर जी, आप तो इन बच्चों को पढ़ाइए, नाम में क्या रखा है?”

मास्टरजी बहुत निराश हुए. आखिर सोचने लगे कि ’जालिम, निखतू, रोनी, झोटी, मतवा, ठेकवा कितने बेतुके नाम हैं, पर मर्जी गाँव वालों की.’ वे बड़ी कसक के साथ उन बच्चों को पढ़ाते रहे, साथ ही उनको नामों के महत्व को समझाते भी रहे.

ठेकवा जब जवान हो गया तो उसकी शादी हो गयी. आन गाँव से उसकी शिक्षित पत्नी आ गयी. उसे भी अपने पति का नाम बड़ा खराब लगता था. एक दिन उस नई नवेली ने शर्माते हुए ठेकवा से कहा, “अजी, आप अपना कोई अच्छा सा नाम बदलो, मुझे जब लोग ठेकवा की बीवी पुकारते हैं तो बहुत शरम आती है, पीहर में तो मेरी सहेलियां –भाभियाँ आपका नाम ठहाके लागाकर बोलती हैं, हंसती हैं.”

पत्नी की इस दारुण व्यथा को सुनकर ठेकवा द्रवित हो गया और बोला, “ठीक है मैं शहर की तरफ जाता हूँ और कोई अच्छा सा सार्थक नाम खोज कर आता हूँ.”

ठेकवा जब शहर की राह पर था तो रास्ते में उसे एक शवयात्रा में जाते हुए लोग मिले, उसने मृतक का नाम पूछा तो बताया गया “अमरसिंह.” वह सुनकर हँस पड़ा.

जब वह आगे बढ़ा तो एक औरत भीख मांग रही थी, ठेकवा ने उसका नाम पूछ लिया. उसने बताया “लक्ष्मी”, विरोधाभासी नाम सुनते हुए जब वह और आगे गया तो एक अंधे व्यक्ति से टकरा गया, उसका नाम पूछा तो उसने बताया कि उसका नाम नयनसुख है. ठेकवा वहीं से घर लौट पड़ा और घर आकर अपनी प्यारी पत्नी को नामों के बारे में समझाते हुए बोला,
“जो मर गए वो थे अमरसिंह, लक्ष्मी मांगे भीख,
नयनसुख को दीखे नाहीं, मैं ठेकवा ही ठीक.”
अजब गाँव की परम्परा आज भी जारी है.

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रविवार, 23 सितंबर 2012

अनाम के नाम

मेरे भाग तो उसी दिन फूट गए थे जिस दिन इस गरीब परिवार में मेरा रिश्ता हुआ था. बाबू जी बहुत जल्दी में थे क्योंकि तब वे चलने-फिरने में असमर्थ हो चुके थे. उम्र भी तब उनकी ७८ वर्ष हो चुकी थी. वे खुद को डाल पर पका हुआ आम कहने लगे थे. दरअसल मैं उनकी सात संतानों में अन्तिम थी, जिसका जन्म उनकी ढलती उम्र में हुआ था.

बाबू जी ने अपने जीवन काल में खूब धन कमाया, जायदाद जोड़ी, अनेक उद्योग किये और पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी समय पर पूरी करते रहे. मैं छोटी होने के कारण भी उनकी लाड़ली बिटिया थी इसलिए उन्होंने मेरे हाथ पीले करने के लिए सब तरफ योग्य लडकों की खोज खबर ली. उस समय हरिनन्दन इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे. बाबू जी ने देखा कि गरीब का बेटा है और भविष्य में संभल जाएगा. खूब दान-दहेज देकर मुझे २० वर्ष की उम्र में ही अपने महल से विदा करके छोटे से दो कमरों वाले ससुराल के घर में भेज दिया गया. चूँकि मैंने बड़ी बहनों का वैभव भी देखा था इसलिए मेरी तमाम महत्वाकांक्षायें धरी रह गयी. मेरी कमजोरी यह भी थी कि मैं स्कूल की पढ़ाई में कमजोर थी और बड़ी मुश्किल से हाईस्कूल पास कर पाई थी.

मेरे पति हरिनन्दन बहुत चुलबुले और खुशदिल थे. उनके सानिंध्य में मैं सभी अभावों को भूल गयी थी. इस बीच हरिनंदन को परीक्षा पास करते ही सिडकुल में मैकेनिकल इंजीनियर की नौकरी मिल गयी और वे भविष्य के अनेक सपने देखने लगे तथा मुझे भी दिखाते रहे. अपनी सिडकुल की ड्यूटी के बाद वे दो तीन जगहों में ठेके में काम भी करते थे. बहुत सा रुपया कमाने लगे थे. घर का जीर्णोद्धार करके नया रूप दिया गया. मैं जल्दी ही माँ भी बन गयी. मेरा बेटा चिंटू बिलकुल अपने बाप की शक्ल पर गया है. स्त्री के जीवन में बच्चे का आना अलग ही प्रकार का स्वर्गीय सुख होता है, मैं उसमें सरोबार रही. मेरे बूढ़े सास-ससुर मुझसे बहुत प्यार करते हैं. शुरू से ही मुझे ‘बड़े घर की बेटी’ बताकर मेरी अनावश्यक जरूरतों का भी ध्यान रखते रहे हैं.

हमारी शादी को पाँच साल होने को थे और मैं दुबारा माँ बनने वाली थी. मैं इस बात से बहुत चिंतिंत रहती थी कि चिंटू के पापा उन दिनों बहुत कमजोर और दुबले हो गए थे. उनको मैंने कई बार डॉक्टर के पास जाकर अपनी जांच करवाने को कहा, पर वे लापरवाही करते रहे. अपनी कमाई और ठेकों के काम में भाग-दौड़ करते रहे. रात की ड्यूटी करने के बाद एक घंटा भी आराम नहीं करते थे, सीधे अपने वर्कशॉप चले जाते थे. उन्होंने अपना रोजनामचा बहुत अनियमित कर रखा था, परिणाम यह हुआ कि एक दिन ड्यूटी पर ही बेहोश हो गए. उनको तुरन्त एम्बुलेंस में बड़े अस्पताल भेजा गया, पर उन्होंने रास्ते में ही दम तोड़ दिया. डॉक्टरों ने पोस्टमार्टम के बाद हार्ट फेल होना कारण बताया.

हम सब शोक विह्वल रहे, लोग सांत्वना देते रहे लेकिन एक बार जो चला गया, वो फिर कभी वापस नहीं आता है. मैं अपने सास-ससुर के बारे में ज्यादा सोचने लगी थी, दोनों ही पुत्रशोक में मानो प्राणहीन से हो गये थे. इस मुकाम पर मेरे बड़े भाईयों ने हम सब को संभाला, हिम्मत देने के लिए तुरन्त मेरे खाते में दो लाख रूपये डाल दिये तथा ५ बीघा जमीन मेरे नाम कर दी; यद्यपि मुझे इन सब की कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि मेरे पति के बीमा, प्रोविडेंट फंड और ठेकों से मिली रकम लगभग पच्चीस लाख से ज्यादा हो गयी थी. साथ ही कारखाने की तरफ से एक्सग्रेशिया व सरकारी फैमिली पेंशन मिलने वाली थी.

इन तमाम दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थतियों में मेरे दूसरे बेटे मिन्टू ने भी जन्म लिया. अब वह पाँच वर्ष का होने को आया है. हरिनंदन के अनेक सपने थे. वे कहते थे कि शादी की सालगिरह और बच्चों के जन्मदिन धूमधाम से मनाएंगे. जिस साल वे गुजरे उसी साल दीपावली पर उनका इरादा एक बढ़िया कार खरीदने का भी था. इसके लिए उन्होंने घर का गेट भी बड़ा करवाया था. पर कहते हैं, "Man proposes, God disposes". होनी को कौन टाल सकता है. मुझे उनके कारखाने से नौकरी का प्रस्ताव भी आया था, पर मैं इसके लिए तैयार नहीं थी क्योंकि मैं तो इस बारे में कुछ जानती नहीं थी, जो पढ़ा था वह भी मैं भूल चुकी हूँ. मुझे मेरे भाई ने सलाह दी कि मैं कम्प्यूटर चलाना सीखूं और मैंने इसके लिए एक साइबर कैफे में जाना भी शुरू कर दिया था, लेकिन अंग्रेज़ी समझ नहीं आने के कारण मैं कुछ भी नहीं सीख पाई.

मेरे ससुर ने अपना सारा गम भुला कर मेरा और मेरे बच्चों का पूरा ध्यान रखा है. उन्होंने बच्चों को बाप की कमी नहीं अखरने दी है. अपनी जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने का उनका हौसला इसलिए भी है कि वे इन बच्चों में हरिनंदन का प्रतिरूप देखते हैं.

ऐसे में तुम, मेरे जीवन के धुंधले परदे पर उभर कर आये हो. मुझे तुम्हारे आने का और मेरे प्रति सम्वेदनशील होने का अहसास बहुत अच्छा लगता है. तुम शायद तरस भी खाते होंगे, पर मैं तो अब एक सूखे हुए गुलाब के फूल की तरह हूँ जिसके लिए किसी मधुमक्खी को आकर्षित नहीं होना चाहिए. ऐसा नहीं कि मुझे भूख नहीं लगती है तथा मानवीय कमजोरियां नहीं सताती हैं, पर अब मेरी सीमाएं हैं, मैं अदृश्य डोरों में बंधी पड़ी हूँ. मैं अपनी शादी के पलंग पर चित्त लेटी हुई हूँ. ऊपर छत की भीतरी परत पर पीओपी के छल्ले बने हुए हैं. मैं इनको गौर से निहार रही हूँ. मुझे ये छल्ले घूमते हुए लग रहे हैं,  जो चक्र बन रहा है उसमें बहुत बड़ा गह्वर है, जिसके बीच में बहुत अन्धेरा है. मैं इस गह्वर के अन्दर फिरकनी की तरह घूम रही हूँ. मुझ पर से जो लम्बी डोर निकल रही है उस पर चिंटू-मिन्टू और मेरे सास-ससुर भी लिपटे हुए हैं. मेरे निरंतर घूमने से ये लोग भी घूम रहे हैं.

मैं अर्धमूर्छित सी हूँ. इस अन्तहीन अंधी गुफा में बड़े खिंचाव के साथ आगे खींचती चली जा रही हूँ. अत: तुमसे कहना है कि तुम मुझसे कोई लगाव मत रखो अन्यथा तुम भी इसी अंधी गुफा में समा जाओगे.

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शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

चित्रशिला घाट

मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, जो भी प्राणी जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है. हमारे सनातन धर्म में श्रीमद्भागवत पुराण को मृत्यु-ग्रन्थ भी कहा गया है जिसमें इस सत्य से अनेक आख्यानों द्वारा साक्षात्कार कराया गया है.

सँसार में अनेक धर्म हैं, जिनके अपने अपने अन्तिम संस्कार के तौर तरीके हैं. हमारे धर्म में शव को जलाने का प्रावधान है. जलाने के लिए तालाब, नदी या नदियों का संगम स्थल शमशान के रूप में कुछ खास जगहों पर चिन्हित होते हैं. नियम-विधान तो यह भी है कि छोटे बालक-बालिकाओं के शवों को दफनाया जाता है. इसके अलावा कोढ़ी, सन्यासी या जोगी वंश-जाति के लोगों को मृत्योपरांत दफनाया जाता है. दक्षिण भारत में लिंगायत (शैव मतावलंबी) लोग भी मृतकों के शवों को दफनाया ही करते हैं.

‘आपातकाले मर्यादा नास्ति’ का हवाला देते हुए कहीं ‘जल समाधि’ भी दी जाती है. अब लकड़ी की कमी व पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के लिए ‘विद्युत शवदाहगृह’ बनाए जाने लगे हैं, जो बहुत सुविधाजनक भी हैं. लेकिन परम्परावादी एवँ रूढ़िवादी लोग इसमें भी धार्मिक मीन-मेख निकालने से नहीं चूकते हैं. वैज्ञानिक सत्य यह है कि मुत्यु हो जाने पर यह शरीर मिट्टी हो जाता है, इसीलिए जगत कल्याणी सोच वाले लोग मृत्यु से पूर्व ही अंगदान अथवा देहदान की घोषणा कर जाते हैं.

अनंत काल से ये क्रम चलता आ रहा है कि लोग मरते रहते हैं और नए लोग अवतरित होते रहते हैं. धर्मों की व्यवस्थाओं की स्थापना इसलिए जरूरी है कि लोग दुराचरण से डरते रहें.

हमारे शहर हल्द्वानी में शवदाह के लिए चित्रशिला घाट की बड़ी मान्यता है. उत्तर दिशा में काठगोदाम से दो किलोमीटर आगे रानीबाग की छोटी सी घाटी है, जहाँ से एक सड़क नैनीताल को और दूसरी भीमताल को जाती है. नीचे गहराई में गौला नदी निरंतर प्रवाहित होती रहती है. गौला नदी काफी दूर शहरफाटक की तरफ पहाड़ों से अनेक गधेरों को समेटती हुई आती है. यहाँ पर नैनीताल की तरफ से आता हुआ बलिया नाला का संगम स्थल है, जिसे देवस्थल के रूप में मान्यता प्राप्त है. भगवान शंकर, गणेश तथा शनिदेव के मंदिर विकसित किये गए हैं. मुख्य सड़क के किनारे ‘मुक्तिधाम’ का बड़ा सा द्वार बना हुआ है. सुन्दर, सुरम्य यह आख़िरी यात्रा का पड़ाव, प्रकृति की गोद में बसा हुआ दर्शनीय स्थल भी है. कलकल निनादिनी गौला नदी इस क्षेत्र की जीवन रेखा भी है. पूरे शहर के लिए पीने का पानी व भाबर के खेतों के लिए सिंचाई की नहरें इसी से निकाली गयी हैं, इसके लिए काठगोदाम में एक बैराज बनाया गया है. एक बृहद योजना यह भी है कि भविष्य की पानी की आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए ‘जमरानी बाँध’ का निर्माण किया जाएगा. बरसात में जब गौला पूरे उफान पर होती है तो अपने साथ लाखों टन रेत व पत्थर भी बहा कर लाती है, जिसका खनन व प्रबंधन सैकड़ों लोगों के रोजगार तथा सरकार के राजस्व का श्रोत होता है.

शवदाह स्थल के पास नदी के पश्चिमी तट पर एक बड़ी सी, ऊपर से लगभग गोल प्रस्तर शिला है जिसमें लाल, पीले, नीले, श्वेत अनेक चकत्ते चिपके हुए लगते हैं प्रथम दृष्टय लगता है कि यह मनुष्यकृत है, पर ऐसा है नहीं. इसका इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना बताया जाता है. ये प्रकृति की अनुपम प्रस्तर कलाकृति है. इसके बारे मे अनेक दन्त कथाएं प्रचलित हैं पर आस्थाएं तो एकपक्षीय होती हैं.

शवों को जलाने के लिए सरकार ने पर्वतीय विकास निगम के माध्यम से लकड़ियों का टाल खोल रखा है शायद ही कोई दिन जाता होगा जब दो-चार शव यहाँ नहीं पहुचते हों. रात में शमशान को नहीं जगाया जाता. इसलिए शान्ति रहती है. हाँ गौला नदी की तरंगिनी आवाज आती रहती है. मुर्दियों के लिए एक-दो अपर्याप्त शेड बने हैं, जिन पर भी बाबा लोगों ने कब्जे कर रखे हैं. चिता की अधजली लकडियाँ व कोयले नदी में प्रवाहित कर दिये जाते हैं जो नदी को तो प्रदूषित करते ही हैं, इसके अलावा कफ़न के कपड़े, दांडी के बाँस सब नदी में धकेल दिये जाते हैं. इस पर अनेक बार चर्चाएँ तथा व्यवस्था में सुधार की बातें होती रहती हैं क्योंकि इसी प्रदूषित जल को जल निगम शोधन(?) करके शहर वासियों को पेय जल के रूप में देता है.

शहर के बाहरी क्षेत्रों में जरूर अब ट्यूब-वेल बनाए जाने लगे हैं और चर्चा यह भी है कि विद्युत शवदाहगृह बनाया जाने वाला है, पर यह अभी भविष्य के गर्भ में है. यह भी सच है कि इससे भी चित्रशिला घाट का महातम्य कम नहीं होगा. जरूरत इस बात की है कि पेय जल को हर कीमत पर प्रदूषण से बचाया जाये.

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गुरुवार, 20 सितंबर 2012

पूज्य पिता की पुण्यतिथि

हे तात, 'प्रेम' आपका नाम था और प्रेम ही आपका धर्म. आपको गए हुए अब ३२ वर्ष हो गए हैं. आज ही के दिन हमारे ऊपर से आपका साया उठा था. समय कितनी तेजी से आगे बढ़ रहा है, मालूम ही नहीं पड़ता. अगर आज आप जीवित होते तो १०४ वर्ष के होते. इस अवसर पर मैं आपके सुन्दर मुखमंडल को याद कर रहा हूँ और अपने आसपास ही महसूस कर रहा हूँ.

मैं, मेरा परिवार, मेरे भाई व बहिनें सभी अपने परिवारों के साथ सुखी और संम्पन्न हैं. यह सब आपके अध्यवसाय तथा आशीर्वादों का ही सुपरिणाम हैं. आपने पिता के रूप में तथा अध्यापक के रूप में जो संस्कार और शिक्षा दी वह हमारे जीवन के प्रेरणा श्रोत हैं. यह हमारा सौभाग्य है कि हम एक सरल, कुशल और ज्ञानवान व्यक्ति की संतान हैं. आपके द्वारा पढ़ाये गए अनेक विद्यार्थी आज भी इस धरती पर ज्ञान का प्रकाश फैला रहे हैं.

यह सच है कि कोई भी मनुष्य यहाँ हमेशा रहने के लिए नहीं आता है, पर मेरा आपसे जो आत्मिक अनुबंध है, वह मुझे दिन में कई बार आपसे साक्षात्कार करवाता रहता है. मुझे अपने शैशव के वे क्षण-दिन याद हैं जब मैं आपके कन्धों पर सवारी किया करता था, आपके साथ अठखेलियाँ किया करता था. एक बार जब मैं तेज धूप के कारण अचानक बेहोश हो गया था तो मैंने आपको अपनी अर्धमूर्छितावस्था में रुदन करते हुए सुना था. वह स्नेहासिक्त विलाप मैं भूला नहीं हूँ.

आप अक्सर मेरे सपनों में आते हो. आप मरे नहीं हो, मेरी लेखनी में जीवित हो. आत्मा कभी मरती भी नहीं है. आज इस पुण्यतिथि पर आपको अनेक बार श्रद्धापूर्वक नमन करता हूँ.

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मंगलवार, 18 सितंबर 2012

गीत - ६

फूल फूल पर उड़ती तितली
 कहाँ है तेरा बसेरा?
  तू नित्य लगाती फेरा
   मन मोहा करती मेरा.

कली कली से पूछ के जाती
 कान में भी कुछ कह जाती
  कौन है प्रियतम तेरा?
   कि कहाँ है उसका डेरा?

कुछ कह-सुन कर है इठलाती
 तरह तरह से छेड़ के जाती
  प्रिय, खेल अनोखा तेरा
   आ, प्यार लिए जा मेरा.

दूर क्षितिज के पार कहीं है
 मेरा भी इक मीत सलोना
  तू बस उसको याद दिला दे
   उपकार बड़ा होगा तेरा.

सुन, भोली-भाली नटखट आँखें
 वो, नाम कहेंगी खुद मेरा
  खुशबू उसकी चन्दन जैसी
   प्रिय, वही तो है प्रियतम मेरा.

            ***

रविवार, 16 सितंबर 2012

बुध ग्रह

दिल्ली का मैनहटन कहलाने वाला, गाजियाबाद का इंदिरापुरम इलाका अब चारों ओर गगनचुम्बी इमारतों से भर गया है. एक बिल्डिंग में २०० से ३०० तक फ्लैट्स हैं. आधुनिक सुविधाओं से लैस, जैसे गैस, पानी, बिजली, प्रतिरक्षा, और अग्निरोधक व्यवस्थाओं के साथ यह घनी आबादी वाला क्षेत्र अनेक संस्कृतियों का संगम भी हो गया है.

वास्तु की बात हम यहाँ पर नहीं करेंगे लेकिन भवन निर्माण कला के ये बहुत अच्छे नमूने हैं, भूकंप ज़ोन में होने के कारण विशेष रूप से स्टील के मजबूत सरियों की बुनियाद पर ढाँचे खड़े किये गए हैं. दक्षिण मुखी फ्लैट्स को छोड़ कर शेष में शीत काल में सूर्य भगवान के दर्शन कम या बिलकुल नहीं होते हैं. इसलिए प्राकृतिक ताप का आनन्द लेने के लिए अधिकांश बाशिंदे पार्कों में निकल आते हैं.

एक सुन्दर भद्र स्त्री, श्वेत-लाल चौड़े बोर्डर वाली साड़ी में रोज आकर सीमेंट की बनी छतरी के नीचे आकर अकेले बैठ जाती है. उसके पास एक बड़ा सा काला चमड़े का पर्स रहता है, जिसमें कुछ किताबें तथा स्वेटर बुनाई का सामान रहता है. वह अपने आप में व्यस्त दिखती है. बड़े शहरों में कौन किसका हमदर्द होता है, जो बिना बात किसी अनजान से परिचय करना चाहता हो? पर मेरे साथ ऐसा हुआ. मैं एक दिन उससे ही पहले वहाँ बैठ कर धूप सेक रहा था. वह आई मुझे बैठा देख कर थोड़ा मुस्कुराई फिर बोली “हम इधर बैठ सकता है?” “हाँ, हाँ, जरूर बैठिये.” मैंने कहा. उसके बोलने के लहजे व पहनावे पर उत्कंठित होकर मैंने शिष्टाचार दिखाते हुए पूछा “आप बंगाली हैं?” “ना, हम आसाम से आया है, पर हमारा घर उत्तराखंड बन गया है.” उसने बताया. उसके बाद बातों का सिलसिला शुरू हो गया उसने जो बताया उसकी रामकहानी इस प्रकार है:

नाम- राधा. पति मि. राबर्ट रॉस उर्फ बॉब, जो अंगरेज है, गोहाटी में रह कर एक सरकारी प्रोजेक्ट में चीफ इंजीनियर था.राधा बेवाकी से बताती है कि वह उसकी घरेलू नौकरानी थी और बाद में बीवी हो गयी. बॉब का बाप मार्टिन रौस ब्रिटिश शासनकाल में जियोलोजिकल सर्वे में काम करने भारत आया था उसने कुमायूँ में अल्मोड़ा के पास जंगल में काफी जमीन घेर कर एक चाय का बगीचा लगवाया. वहीं घर भी बनाया. भारत की आजादी के वक्त उसका पूरा परिवार इंग्लैण्ड वापस चला गया, केवल बॉब यहाँ रह गया उसने भारतीय नागरिकता ले ली थी. वह बहुत हिम्मतवाला है. अब तो वह ८० वर्ष का बूढ़ा हो चुका है. उसने अपनी टी-एस्टेट को बढ़िया ढंग से संभाला है. राधा को बीवी बनाने के बाद उसे रौस-विला ले आया था. उनकी एक बेटी है जो एक कॉलेज में प्रोफ़ेसर है, उसने अपने एक सहकर्मी प्रोफ़ेसर से सिविल मैरेज कर ली है. यह जोड़ा यहीं इंदिरापुरम के एक फ़्लैट में किराए पर रहता है राधा अल्मोड़ा की ठण्ड से बचने के लिए यहाँ बेटी-दामाद के पास आई हुई है.

अपनी इस लम्बी मजेदार कहानी को सुनाते हुए वह कई बार मुस्कुराई और अपने पति की आदतों को बताते हुए शरमाई भी. बॉब के बारे में वह बताती है कि उसने रौस ग्राम में चाय के बगीचे के साथ ही बहुत से फलों के पेड़ भी लगाए हैं. हालिस्ट्न व जर्सी नस्ल की गायें भी पाल रखी हैं, उसके पास तीन नौकर भी काम करते हैं, घर को आधुनिक बना रखा है, पहले गोबर-गैस प्लांट भी लगाया था पर अब सोलर एनर्जी से काम होता है.

बॉब हफ्ते में एक बार अपनी जीप से अल्मोड़ा जाता है और जरूरत का सामान लेकर आता है. राधा बताती है कि बॉब को सरकारी पेंशन मिलती है और उसके पूर्व संचय का रिटर्न भी मिलता रहता है.

बॉब कुत्ते पालने का बहुत शौक़ीन है, उसके पास दो जर्मन शेपर्ड, दो पहाड़ी भोटिया कुत्ते और पमरेनियन नस्ल के दो कुत्ते हैं. वह कुत्तों से बहुत प्यार करता है इसलिए रौस ग्राम छोड़ कर वह कहीं नहीं जा पाता है.

जब बात बात में राधा से मैंने पूछा “राबर्ट का कल्चर, रहन सहन, खान-पान सब अलग होगा? क्या तुम उसके साथ खुश रहती हो?” उसने मुस्कुराते हुए बड़ी दार्शनिक बात कही, “बाबा, आप तो जानते ही हैं हम हिन्दुस्तानी औरतें ‘बुध ग्रह’ की तरह होती हैं, जिसका साथ मिलता है उसी की चाल पकड़ लेती हैं.”

मैंने भी उनकी हाँ में हाँ मिला दी, हालाँकि अब ज़माना बराबरी का आ गया है और आपस में प्यार हो तो पति व पत्नी, दोनों ही एक दूसरे का चाल-चलन सीखने का प्रयास करते हैं.

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शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

चुहुल - ३२

(१)
कक्षा में देर से पहुँचने पर अध्यापक ने लड़की से कारण पूछा. लड़की बोली, “सर, मैं पैदल ही स्कूल आती हूँ, रास्ते में एक लड़का मेरा पीछा कर रहा था इसलिए आज देर हो गयी.”
“तब तो तुम्हें और भी जल्दी आ जाना चाहिए था?” अध्यापक ने जानना चाहा.
लड़की ने बताया, “सर, वह लड़का बहुत धीरे धीरे चल रहा था.”

(२)
तीन लोग शराब के नशे में धुत्त होकर दिल्ली के लाजपत नगर के एक बार से बाहर निकले. सामने एक खाली टैक्सी देख कर झूमते हुए उसमें जा बैठे.
टैक्सी ड्राइवर ने पूछा, “साहब कहाँ चलना है?”
एक बोला, “महरौली चल.”
ड्राइवर ने हालात पर थोड़ा सोचा और फिर गाड़ी स्टार्ट करके डिफेन्स कॉलोनी में घुमा कर उसी जगह पर वापस ले आया. जोर से बोला “साहब महरौली आ गया.”
तीनों लोग लड़खड़ाते हुए उतरे. एक ने किराया पूछा तो ड्राइवर ने कहा “तीन सौ रूपये.”
उसने झट से तीन सौ रुपये ड्राइवर को दे दिये. दूसरा आदमी ज्यादा नशे में लगता था, बोल नहीं पा रहा था. तीसरे ने ड्राइवर को एक थप्पड़ जड़ दिया. ड्राइवर समझा उसकी चालाकी पकड़ी गयी.
तीसरा आदमी गुस्से में बोला, “साले, इतनी तेज गाड़ी चलायी. अगर एक्सीडैंट हो जाता तो?”
ड्राइवर चुपके से वहाँ से आगे निकल लिया.

(३)
एक अध्यापक कुर्सी पर बैठे बैठे बड़ी देर से अपनी कार की चाबी से सर खुजा रहे थे.
एक विद्यार्थी पास आकर बोला, “सर, स्टार्ट नहीं हो रहा है तो मैं धक्का लगाऊँ?”

 (४)
एक लड़का यूं ही गप मार रहा था कि “कल रात मेरे घर के बरामदे में एक शेर आकर बैठ गया. पापा ने फ्रिज से ठंडा पानी निकाल कर उस पर उड़ेल दिया, तब जाकर वह वहाँ से गया.”
यह सुन कर वहां उपस्थित एक डॉक्टर का बेटा बोला, “अच्छा, तुमने डाला था ठंडा पानी? तभी वह शेर आज जुकाम की दवा लेने मेरे पापा की क्लीनिक पर आया था.”

(५)
रेल के दूसरे दर्जे के जनरल डिब्बे में इस कदर भीड़ थी कि संडास तक में लोग खड़े थे. ग्रामीण परिवेश की एक वृद्ध महिला बड़ी देर से लघुशंका के लिए परेशान थी. सुबह सुबह जब रेल दिल्ली स्टेशन पर पहुँची तो उसने बाहर निकलते ही दीवार के सहारे बैठकर पेशाब कर दिया.
एक पुलिस के सिपाही की नजर उस पर पड़ी तो डाँटते हुए बोला, “ए बुढ़िया, यहाँ पेशाब करना मना है. तू चल थाने या पाँच रूपये निकाल.”
बुढ़िया डर गयी और अपने खीसे में से बड़े दर्द के साथ पाँच रुपयों का नोट निकाल कर सिपाही को दे दिया.
सिपाही नोट लेकर चल दिया और पास में ही एक चाय के ठेले पर जाकर चाय पीने लगा. बुढ़िया की नजर उसी पर थी. जब सिपाही ने वही पाँच रुपयों का नोट चाय वाले को दिया तो पास जाकर सिपाही से कुढ़ कर बोली “मैं नहीं मूतती तो तू क्या पीता?”

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बुधवार, 12 सितंबर 2012

डायरी के कुछ पन्ने

(१)
मैं आनंदी जायसवाल सवाई माधोपुर के बजरिया में रहती हूँ. अभी मैं कक्षा ९ में पढ़ रही हूँ. मेरे पिता श्री जगन्नाथ जायसवाल एक मध्यम वर्गीय परिवार के मुखिया हैं. वे एक स्नेहिल पिता भी हैं हमारे समाज में उनकी बहुत इज्जत है. मेरे दो छोटे भाई बहन भी हैं. चाचा चाची कई लोग हमारे खानदान में हैं, सभी पास पास रहते हैं. मेरी माँ बहुत सुन्दर है. उनकी छाया हम बच्चों पर भी खूब आयी है. सब लोग कहते हैं कि मैं भी अपनी माँ की तरह ही सुन्दर दीखती हूँ.

मेरी माँ अभी से मेरी शादी की चिंता करने लग गयी है, रिश्तेदारों से कहा करती है कि “कोई लड़का नजर में हो तो बताना.” मैं उनकी ऐसी बातों से असहज हो जाती हूँ क्योंकि मैं अपनी कक्षा में पढ़ने वाले एक लड़के रवि को बहुत चाहती हूँ. वह मेरा पक्का दोस्त है. हम दोनों प्राइमरी से ही साथ साथ पढ़ते आ रहे हैं. वह मेरा बहुत ख्याल रखता है. सच कहूँ हम एक दूसरे से बहुत प्यार करने लगे हैं. मेरी मुसीबत यह है कि मैं अपने दिल की बात किसी को बता भी नहीं सकती हूँ. रवि जाति से खटीक है इसलिए हमारी जातिगत मान्यताओं के अनुसार उससे मेरा रिश्ता होना नामुमकिन है. हम दोनों एक दूसरे को पत्र लिखकर बातें करते हैं. रवि बहुत प्यारी प्यारी भाषा में मुझे पत्र लिखता है,जिन्हें पढकर मैं अपनी रूमानी दुनियाँ में खो जाती हूँ, उसका गुलाबी अहसास मुझ पर वशीकरण की तरह छा गया है. मैं भी उसको लंबे लंबे पत्र लिखती हूँ, लेकिन एक तो मेरी हैंडराइटिंग उसके जैसी सुन्दर नहीं है और न मैं अपने मनोभावों को उसकी तरह खूबसूरत शब्दों में सँजो पाती हूँ.

(२)
इस साल मैं फेल हो गयी हूँ क्योंकि मेरा मन पढाई लिखाई में बिलकुल भी नहीं लगता है. मैं रवि के सपनों मे खोई रहती हूँ. रवि पास हो कर अगली कक्षा में चला गया है. मेरे पिता ने कहा कि “जब पढाई में मन नहीं है तो स्कूल मत जाओ.” इस प्रकार मेरा स्कूल जाना बन्द हो गया और रवि से मिलना-जुलना भी कम हो गया तथा पत्राचार भी नहीं के बराबर रह गया. रवि मेरे घरवालों से बहुत डरता है. आज वह कुछ बहाना बना कर आ ही गया और अपने लिखे हुए तीन पत्र एक साथ मुझे पकड़ा कर मुस्कुराते हुए चला गया. मैं उसे दूर तक साइकिल पर जाते हुए देखती रही. बाद में मैंने उसके पत्रों को पढ़ा उसने लिखा है कि "वह सभी सामाजिक बंधनों को तोड़ कर मुझे अपनाना चाहेगा, इसके लिए कुछ वर्षों तक इन्तजार करना होगा." उसने यह भी लिखा है कि वह फ़ौज में भर्ती होने जाने वाला है. उसने मेरी खूबसूरती पर बहुत सी मनमोहक बातें भी लिखी हैं. मेरी आँखों को वह मधुबनी आर्ट की नायिकाओं तथा रवि वर्मा की कलाकृतियों की स्त्री पात्रों की सर्वांग सुंदरता से तुलना करता है. मैं उसकी लिखी बातों से भाव विभोर हो रही हूँ. मन करता है कि उड़कर उसके पास चली जाऊं और खुले आकाश में पंछी जोड़ों की तरह अठखेलियाँ करूँ. पर ये संभव नहीं है.

(३)
मेरी शादी यहीं सवाई माधोपुर शहर में द्वारिकालाल पारेता के साथ हो गयी है. मेरे ससुर शराब के बड़े व्यवसायी हैं जिनका बड़ा नाम है. मेरे पिता ने मेरी शादी में यथासंभव स्त्रीधन दहेज में दिया. मैं मजबूर थी क्योंकि मैं जानती थी कि अगर मैं रवि से अपने प्रेम व उसकी जीवन संगिनी बनने की इच्छा माता-पिता को बताती तो मेरे साथ क्या वर्ताव होता. मैं कल्पना करके सिहर जाती हूँ. मेरे पति द्वारिकालाल एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में अध्यापक हैं. वे स्वभाव से बहुत नीरस और अंतर्मुखी हैं. जब मैं अपने रवि से इनकी तुलना करती हूँ तो सौ में से मात्र दस नम्बर दे पाती हूँ. जबकि रवि की बात ही कुछ और है. मैं बहुत कोशिश करती हूँ कि अब उसको भूल जाऊं. मैंने शादी तय होते ही उसके सारे पत्र कूड़े में जला डाले थे. ससुराल में मुझे यों तो पूरा मान-सम्मान मिल रहा है, पर मैं अनुभव करती हूँ कि इस घर में सबका ध्यान केवल पैसे पर रहता है.

(४)
मेरी शादी के बाद करीब दो साल हो गए. आज रवि मुझसे आज बाजार में अचानक मिला. बहुत गबरू-हैंडसम लग रहा था, बोला, “तुमने मेरा इन्तजार नहीं किया,” मैं लाचार सी उसके चेहरे को देखती रही क्योंकि मेरे पास उसका कोई जवाब नहीं था. उसने फिर कहा, “मैं तुमसे आज भी उतना ही प्यार करता हूँ... मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगा... मैं तुम्हें सीधे पंजाब ले जाऊंगा जहाँ मेरी नौकरी लग गयी है.” उसने एक सांस में बहुत सी बातें कह डाली. मेरी सासू को आता देख वह वहाँ से खिसक लिया. मेरे स्थिर-शांत मन रूपी तालाब में जैसे ज्वार-भाटा पैदा कर गया.

(५)
रवि का छोटा भाई राजू ना जाने कब से हमारे घर के बाहर बैठा मेरा इन्तजार कर रहा था. मुझे देखकर चुपके से पास आया और बोला, “भैया आज रात को देहरादून एक्सप्रेस से दिल्ली जायेंगे आप ९ बजे तैयार रहना, मैं मोटर-साइकिल से आपको स्टेशन छोड दूंगा.”.

मैं अपनी सुध-बुध खो बैठी हूँ. जाऊँ या ना जाऊँ की मानसिक उथल-पुथल में बेचैन रही. अंत में दिल की जीत हुई. जब प्यार किया तो डरना क्या!

(६)
मैं रवि के साथ भाग कर जलंधर आ गयी हूँ. रवि यहाँ एक कारखाने में काम करता है. मैं सब छोड़-छाड़ कर आई हूँ. वहाँ जरूर मेरी खोज खबर की जा रही होगी. मेरे ससुराल व पीहर् वाले बहुत परेशान हो रहे होंगे. लेकिन मैं अभी अपने प्यार को पाकर बहुत खुश हूँ. मैंने खुद को रवि को समर्पित कर दिया है. मैं जिस ठाठ-बाट को छोड़ कर आई हूँ, उसके मुकाबले यहाँ बहुत कमियां हैं, पर मैं ठीक हूँ. राजू के पत्रों से मालूम हुआ कि वहाँ मेरी बहुत खोज हो रही है किसी को संदेह नहीं है कि मैं रवि के साथ हूँ.

(७)
रवि की पत्नी बने हुए मुझे चार साल हो गए हैं. मेरे दो बच्चे हैं. मैं अब एक ऐसे मुकाम पर पहुँच गयी हूँ जहाँ से लौटना अब मुमकिन नहीं है, पर मुझे अपने माता-पिता व भाई-बहन की बहुत याद आती है. वार-त्यौहार पर अपने आंसू पी लिया करती हूँ. रवि तो कई बार सवाईमाधोपुर आता जाता है, पर मेरा वहाँ लौटना अनेक दुश्वारियां पैदा करेगा. मैं अपने पिता का गुस्सा जानती हूँ, वे जरूर कहते होंगे, “आनंदी हमारे लिए मर गयी है." जब भी यह बात खुलेगी कि मैं खटीक जाति वाले के साथ भागी थी तो बिरादरी-रिश्तेदारी थू-थू करेंगे, जिसे मैं और मेरे ये मासूम बच्चे सहन नहीं कर पायेंगे.

(८)
मेरे दोनों बेटी-बेटा क्रमश: १५-१३ वर्ष के हो गए हैं. गृहस्थी की गाड़ी सामान्य निम्न मध्यवर्ग की तरह खींचती जा रही है. मैं अकेले में बैठ कर अपने दुस्साहस और भविष्य पर चिन्तन करती रहती हूँ कि ‘प्यार’ के जुनून में मैंने बहुत कुछ खोया है, विशेषकर माता-पिता का आशिर्वादपूर्ण हाथ और भाई-बहन का अप्रतिम प्यार, जिसके लिए मैं तरसती हूँ और तड़पती भी हूँ.


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सोमवार, 10 सितंबर 2012

अन्जीर

अंजीर
(चित्र picturesbylinson.wordpress.com के सौजन्य से)
अन्जीर एक बहुत गुणकारी फल है. आयुर्वेद व यूनानी चिकित्सा पद्धतियों में इसको बहुत उपयोगी व औषधीय बताया गया है. मुक्त ज्ञान कोष विकीपीडिया में इसका नाम ‘फिकस केरिका’ लिखा गया है. अंग्रेजी में ‘फिग’ और हिन्दी मे अन्जीर नाम से जाना जाता है.

देशान्तर के अनुसार इसकी अनेक प्रजातियां हैं. उत्तराखंड एवं नेपाल की पहाडियों तथा मैदानी क्षेत्र भाबर में अपने आप उगने वाला मोटी-चौड़ी पत्तियों वाला ‘तिमिल’, पेड़ों के तनों पर छोटी नाशपाती के आकार के फल के रूप में देखा जा सकते हैं. इसी तरह ‘बेडू’ भी है जो आकार में छोटा तथा रंग में हल्का बैंगनी होता है. इसकी तारीफ़ यह भी है कि यह बारहों महीने पकने वाला सदाबहार फल है. बाजार में ताजा पका हुआ अन्जीर का फल हल्की लालिमा लिए हुए रहता है. अन्जीर का फल सुखाया भी जाता है तथा उसकी बकायदा खेती की जाती है.

यूरोपीय देश, पुर्तगाल, इटली, ग्रीस से लेकर तुर्की, ईराक, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, मलेशिया तक की पूरी बेल्ट में अन्जीर पैदा होता है. यह दुनिया के सबसे पुराने फलों में से एक है. रोमवासी इसके पेड़ को सुख और समृद्धि का द्योतक मानते थे. पकने पर इसका फल अपने आप झड़ भी जाता है. बीजों को प्रसारित करने में चिड़ियों का भी बड़ा योगदान होता है. व्यवसायिक खेती करने के लिए इसकी पौध कलम द्वारा तैयार होती है. इस वनस्पति की एक विशेष बात यह है कि इसके पेड़ पर फूल नहीं आते हैं, सीधे फल ही आते हैं.

इसके फल में कोई विशेष गन्ध तो नहीं होती, पर पकने पर फल के अन्दर शहदनुमा जेली पैदा हो जाती है, जिसमें ६०% से ज्यादा मिठास होती है. इसमें विटामिन ए और बी के अलावा कैल्शियम व पोटेशियम प्रचुर मात्रा में होते हैं. सूखे फलों को पानी में भिगोकर खाया जाता है. कब्ज के मरीजों के लिए यह रामबाण औषधि है. इसके अलावा अन्जीर खाने से भूख भी बढ़ती है. अस्थमा के रोगियों के बलगम को बाहर निकालने में भी यह कारगर होता है. डाईबिटीज, तथा मेनोपाज की स्थितियों में भी गुणकारी होता है. इसके नियमित सेवन से उच्च रक्तचाप की स्थिति से भी बचा जा सकता है.

सबसे बड़ी बात यह है कि इसके प्रयोग से कोई नुकसान यानि कि साइड एफैक्ट नहीं होता है और यह किसी भी मौसम में खाया जा सकता है.

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शनिवार, 8 सितंबर 2012

दामू और टीटू

किसी वस्तु या धन का लोभ करना मनुष्य की आम फितरत है, जो झगडों की जड़ बनती है. ठेठ पौराणिक काल से आज तक के इतिहास में हम पाते हैं कि चाहे महाभारत का युद्ध हो या अर्वाचीन राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय स्वार्थ के कारण वैमनस्य, कारण लोभ ही होता है.

जुआ खेलना और इस तरह से धन का लोभ करना हर तरफ से निंदनीय कहा जाता है, तथा जुआरी लोग लुटने-पिटने के बाद भी दाँव लगाने की प्रवृत्ति नहीं छोड़ पाते हैं क्योंकि यह ऐसी विधा है जिसमें कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती. जुए के अनेक रूप हैं, सरकारी–गैरसरकारी लाटरियाँ, कैसीनो (जुआघर) में खेले जाने वाले खेल, शर्त लगाना या हमारी देसी तीन पत्ती ‘फ्लैश’ सब जुआ ही होते हैं. यह लालच-लोभ का आकर्षण वाला होता है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती है. इसका परिणाम किसी किसी भाग्यशाली के लिए लाभकार हो सकता है, अन्यथा लोभी लोग अपना धन गंवाते ही हैं.

यह भी जरूरी नहीं कि धनिक या दो नम्बर वाले ही जुआ खेलते हों, इसमें छोटे स्तर पर मटका-खाईवाल जैसे असाध्य मानसिकता वाले लोग भी बुरी तरह फंसे हुए हैं, यह एक तरह का नशा है, लत है.

इस कहानी का पहला पात्र दामू उर्फ दामोदर भी ऐसे ही बर्बाद लोगों में से एक है. मजेदार बात यह है कि इस तरह जुए में लूटे-पिटे, चोट खाये लोग बात करने में माहिर हो जाते हैं. उनकी ऊँची ऊँची बातें सुनकर घोड़ा भी घास खाना छोड़ देता है. मतलब यह कि अतिशयोक्तिपूर्ण गप्प मार कर सामने वाले को प्रभावित कर देते हैं और कुछ न कुछ झटक लेते हैं, कुछ नहीं तो एक कप चाय ही सही. पर कभी कभी सेर को सवा सेर भी मिल ही जाता है. हुआ यों कि दामू की मुलाक़ात एक जुए की फड़ पर दूसरे पात्र दिलबाग उर्फ टीटू से हो गयी. बातों में दोनों ने एक दूसरे को खूब झेला और अपने-अपने खानदान तथा धन-दौलत की ऊँची ऊँची फैंकते रहे। मालूम दोनों को हो रहा था कि सामने वाला यों ही फैंक रहा है. जब बहुत हो गयी तो टीटू ने दामू से कहा, “यार, मुझे मालूम हो गया है कि अपन दोनों एक ही नाव के पैसेंजर हैं. गप्पी तुम भी हो और गप्पी मैं भी हूँ” इस पर दामू ने अपनी खीसें निपोरी और बेशर्मी से हँस दिया.

टीटू ने जुआरी अंदाज में कहा, “चल यार, आज हो जाये, तू भी अपनी कोई गप्प मुझे सुना और मैं भी अपनी तुझे सुनाऊंगा.”

इस बात पर दामू खिल गया बोला, “पहले मैं सुनाता हूँ.” तो टीटू ने कहा “वो तो ठीक है, लेकिन गप्प ऐसी हो जिसे दूसरा ये न कहे कि ‘ऐसा नहीं हो सकता है’ अगर ये बात हुई तो पाँच सौ रुपयों की हार-जीत होगी.”

दामू ने मंजूर कर लिया और दोनों ने टेबल पर ५०० रुपयों के अपने अपने नोट रख दिये तथा प्रक्रिया शुरू हो गयी.

दामू- मेरे दादा के पास एक मील लंबा बाँस था. वे उसे बादलों में घुसेड़ कर पानी निकाल लेते थे.

टीटू- हाँ, हो सकता है. पहले जमाने में तो इससे भी लंबे बाँस पैदा होते थे. लोग तो चाँद को भी टोचा करते थे.

दामू- मेरे नाना के पास एक रत्नजडित सोने का घोड़ा था, जो चलता भी था.

टीटू- अरे, वह उड़ता भी होगा सूरज के सातों घोड़े ऐसे ही हैं.

दामू- मेरे पिता जी क्रिकेट में दर्जनों गोल मार देते थे.

टीटू- हाँ पहले गोल ही होते होंगे. बाद में बाल छोटी होने पर बैट से खेला जाने लगा होगा.

दामू- मेरे चाचा नाश्ते में एक हजार लड्डू निगल जाते थे.

टीटू- ये कौन सी बड़ी बात है, तुमने सुना नहीं, कुम्भकर्ण तो नाश्ते में दो चार भैसों को चट कर जाता था.

दामू- मैं अगले ओलम्पिक में दस मीटर ऊँची कूद का विश्व रिकोर्ड बनाने वाला हूँ.

टीटू- ये तो बहुत अच्छी बात होगी लेकिन लम्बी कूद में हनुमान जी का रिकार्ड चेक कर लेना.

दामू- बहुत हो गया यार. अब तेरी बारी, तू सुना.

टीटू- मेरा बाप तो बहुत गरीब था उसके पास खेतीबाड़ी के लिए कोई जमीन भी नहीं थी.

दामू- हाँ, भिखारी बेचारे गरीब ही होते उनके जमीन होती तो भीख थोड़े ही मांगते.

टीटू- किसी भले आदमी ने अपना बूढ़ा मरियल सा बैल दान में मेरे बाप को दे दिया था.

दामू- हाँ, हाँ, गरुड़ पुराण में भी लिखा है कि मृतात्मा के तारण के लिए बैल दान में देना चाहिए.

टीटू- मेरे बाप ने एक लकड़ी की काठी बनवा कर उसकी पीठ मे फिट कर दी और ऊपर से मिट्टी भर कर खेत बना दिया.

दामू- अच्छा आइडिया है. ऐसा पहले जमाने में लोग करते ही होंगे. खानाबदोश लोग इस तरह अपने खेतों को भी साथ ले जाते होंगे.

टीटू- मेरे बाप ने उस खेत में गेहूं बोया तो बढ़िया फसल हुई. पूरे पाँच क्विंटल गेहूं निकला.

दामू- जरूर थोड़ी बहुत फसल बैल गर्दन पीछे करके चट कर गया होगा, अन्यथा आठ-दस क्विंटल गेहूं होता.

टीटू- जब मेरा बाप बोरी उठाकर घर लाने की तैयारी कर रहा था तो कहीं से उछलते-कूदते तेरा बाप आ गया.

दामू- हाँ, मेरा बाप तो बहुत फास्ट था, वह जरूर पहुँच गया होगा.

टीटू- तेरा बाप मेरे बाप से बोला, “इसमें से दो बोरी मुझे दे दे, इसका रुपया मेरा बेटा दामोदर चुकायेगा”.

इस पर दामू कुछ सोच में पड गया और बोला, “मेरा बाप ऐसा नहीं कह सकता.”

टीटू- इसी बात पर शर्त मैं जीत गया हूँ.

उसने नोट अपनी जेब के हवाले किये और चलता बना. दामू हार कर खिसियाया सा बैठा रहा. सोचने लगा, 'किसी ने सच ही कहा है लालच बुरी बला है.'

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गुरुवार, 6 सितंबर 2012

नाम के नवाब

उत्तरी कर्नाटक राज्य का कुछ हिस्सा पहले हैदराबाद निजाम के राज्य के अंतर्गत आता था. यहां आज भी मुस्लिम बाहुल्य है. यहाँ के मुसलामानों की मादरी जबान चाहे उर्दू ही हो, पर अब सभी कन्नड़ बोलते हैं, और जब उर्दू में संवाद करते हैं तो दखिनी बोली व तहजीब का पुट रहता है. कहते हैं कि नवाबों के जमाने में शिक्षा-कला के अलावा अन्य क्षेत्रों से सम्बंधित लोग भी लखनवी तहजीब लेकर यहाँ आ बसे थे. उनके तौर तरीकों की झलक भी यहाँ मिलती है. बहुतों के नाम में ‘साब’ विशेषण भी जुड़ा हुआ रहता है.

हुसैन साब एक पुरानी सीमेंट फैक्ट्री में बतौर मजदूर भर्ती हुए थे और बढ़ते बढ़ते फोरमैन हो गए थे. उनके घर में जब पहली बीवी ने पहला बच्चा जना तो नाम रखा गया, ‘बिस्मिल्ला साब’.  बच्चे तो बच्चे होते हैं, जैसा बचपन में दिमाग में भर दो वैसी ही सोच रखते हैं. सुपरवाइजर्स कॉलोनी में उस वक्त हुसैन साब का अकेला मुस्लिम परिवार था. दूसरे मद्रासी, बंगाली, या मराठी लोगों के बच्चों के बीच में अपने साहबजादे को बेहतर बताने के लिए वे उसको खुद ही ‘नवाब साब’ संबोधित करने लगे और बच्चा भी अपने बात व्यवहार व पहनावे मे नवाबी ठसके के साथ रहता था.

यूं तो हुसैन साब के बाद में कुल मिलाकर १४ बच्चे ज़िंदा रहे पर नवाब साब उनके लिए कुछ खास था क्योंकि वे मानते थे कि उसी के भाग्य से वे फोरमैन के ओहदे तक पहुँच पाए हैं. उसे उन्होंने मदरसे में पढ़ने के लिए गुलबर्गा, उसके ननिहाल, भेज दिया, पर वह पढ़ाई से विरक्त रहा क्योंकि पढ़ाई में उसका मन बिलकुल नहीं लगता था. वहां थोड़ी बहुत उर्दू सीखी, लेकिन अपने नवाबी ठसके के रहते वह वापस अपने घर आ गया. यहाँ आकर वह रोडमास्टर हो गया. आलतू-फालतू आवारा लडकों की सोहबत में रहने लगा. अपने दिखावे की नवाबी यानि सलीकेदार कपड़ों के साथ टाई-हैट पहन कर वह अलग ही नजर आता था. अब्बा को कोई शिकायत नहीं थी कि वह पढ़ नहीं पाया, वे खुद भी थोड़ी सी उर्दू जानते थे, और उसी से काम चला लेते थे. वे अकसर साहबजादे के बारे में उसकी बालपन से ही उसके सामने भी एक जुमला कह दिया करते थे कि “मेरा साहबजादा तो आला नवाब है, अल्लाह ने गोश्त-रोटी का इन्तजाम कर रखा है. इसको नौकरी करने की कहाँ जुर्रत होगी.”

नवाब के सोलह साल के होते ही उसका निकाह फूफी की बेटी तस्लीमा से कर दिया गया. जो उम्र में उससे काफी बड़ी थी. उसकी बात यहाँ ना करते तो अच्छा होता क्योंकि वह ऐसी ही थी. इन्द्राइण के फल की तरह बेहद खूबसूरत. अब खूबसूरती की बात करें तो ज्यादा खूबसूरत होना भी बला ही है क्योंकि जिसने भी डाली बुरी नजर ही डाली. तस्लीमा का एक गुण यह भी था कि वह बहुत बेशरम थी. जब किसी ने उससे कहा कि “तू बहुत बदनाम हो रही है,” तो उसने हँसते हुए जवाब दिया, “बदनाम होने पर ही तो नाम होता है.”

ऐसी बीवी होने पर खाविंद को अवश्य तकलीफ़ होनी चाहिए थी, पर नहीं नवाब साब ने तो दिलफरियाद तस्लीमा को अपनी शान समझा, बकायदा बुर्का हटा कर अपने साथ सैर पर ले जाने लगे. कई बुजुर्गों के मुँह से जरूर निकला होगा, ‘लाहौल बिला कूबत’.

तब वहाँ फैक्ट्री का बड़ा मैनेजर एक गोरी चमड़ी वाला स्पैनिश इंजीनियर था, जिसका नाम था, क्रिस्तिन्सन. एक दिन जब उसकी नजर इस जोड़ी पर पड़ी तो देखता ही रह गया. नवाब साब के हाफ पैन्ट, टाई-टोप और हाथ में छड़ी और साथ में खिलखिलाती हुई बेपर्दा तस्लीमा थी. क्रिस्तिन्सन ने अपनी गाड़ी रुकवा कर उनसे पूछा, “हू आर यू, जेंटलमैन?”

नवाब साब को अंग्रेजी तो आती नहीं थी, पर वह समझ गया कि बड़ा मैनेजर क्या जानना चाहता है? वह बोला, “जनाब, मैं फोरमैन हुसैन साब का बेटा हूँ.”

अगले ही दिन क्रिस्तिन्सन ने हुसैन साब को अपने दफ्तर मे बुलाकर कहा “हम टूमारे सन को अपने बंगले का केयर टेकर बनाना मांगता है.” यह सुन कर हुसैन साब गदगद हो गए. सलाम बजाते हुए बोले, “सर, आपने नवाब साब को बहुत इज्जत बक्श दी है. बहुत बहुत शुक्रिया.”

इस प्रकार छप्पर फाड़कर नौकरी मिल गयी. काम कुछ भी नहीं था, बस बड़े साहब के साथ अर्दली की तरह रहो, खूब खाओ, खूब पियो और पड़े रहो. तसलीमा को भी मन की मुराद मिल गयी. वह खुश थी. गली से कंपनी के क्वार्टर में और अब बड़े साहब के बंगले में आ गयी थी. बड़े साहब की मुंहलगी होने के कारण उसने अपने एक दर्जन भाई/रिश्तेदारों को फैक्ट्री मे रोजगार पर भी लगवा दिया. लोगों में बातें तो खूब बनती रही, पर ‘जब मियाँ राजी तो क्या करेगा काजी?’

चार वर्षों के बाद जब क्रिस्तिन्सन हिन्दुस्तान से वापस अपने देश जाने को हुआ तो उसने नवाब साब से पूछा, “मैन, टूम यूरोप आना मांगता?“

तो उसने हामी भर दी, अंजाम के बारे में सोचा भी नहीं क्योंकि तब पूरे यूरोप को लोग विलायत ही कहा करते थे. विलायत जाना जन्नत जाने का सा सपना होता था.

क्रिस्तिन्सन नवाब साब व तस्लीमा को मुम्बई (तब बम्बई था) ले आया. यहाँ आकर उसने नवाब के साथ एक धोखेबाजी की कि हवाई-यात्रा के सिर्फ दो टिकट, अपने व तस्लीमा के लिए खरीदे. नवाब साब को बताया गया कि उसके टिकट कटाने में कुछ गलती हो गयी है. उसकी बुकिंग अगली फ्लाईट से है. यूं बेवकूफ बना कर उसको एक जगह बिठा दिया. पर्याप्त रूपये देकर, तस्लीमा को साथ लेकर टा-टा करते हुए फुर्र हो गया.

नवाब साब को अपने लुटने का अहसास तो हो गया था, लेकिन परदेश में असहाय होकर रह गया. बाद में अपना लुटा-पिटा मुँह लेकर घर लौट आया.

यह कहानी तब की है, जब देश गुलाम था और नवाब साब जैसे अनेक लोग जानते सुनते हुए अपनी आन और आबरू गंवाकर भी गोरी चमड़ी वालों की गुलामी में अपना बड़प्पन समझते थे.

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सोमवार, 3 सितंबर 2012

विग्रही

मैं विग्रही हूँ.
मैं अशांति का बेटा हूँ
मेरी माँ ने अनिश्चित काल तक
मुझे अपने गर्भ में ढोया है.
असह्य प्रसव वेदना पाई है.

मैं उत्तेजित हूँ,
आक्रोशित हूँ,
अनियमित भी हो गया हूँ.
क्योंकि मेरी माँ को बहुविध दौरे पड़ने लगे हैं.
जिससे सर्वत्र भ्रांतियां पैदा हो रही हैं.

मेरी मुट्ठी कसी हुई है,
मेरी मुट्ठी तनी हुई है,
इसके अन्दर कोई सिक्का नहीं है,
लेकिन इंकलाब का बीज जरूर है.
माँ चाहती है कि
शतरंजी विसात को उलट दिया जाये

शान्ति और विश्रान्ति की बात मत करो,
मुझे व्यवस्था बदलनी है.
इसमें क्या जायज है?
क्या नाजायज है?
उसकी सीख मत दो.

मैं क्रान्ति चाहता हूँ,
समानता, न्याय और सदाचार चाहता हूँ.
आन्दोलन मेरा धर्म है-
मुझको मेरा धर्म निभाने दो.
मैं विग्रही हूँ.

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शनिवार, 1 सितंबर 2012

चुहुल - ३१

(१)
अध्यापक – बताओ बच्चों अमेरिका की खोज किसने की?
बच्चा – सर, मेरे पिता जी ने.
अध्यापक – यह नहीं हो सकता है.
बच्चा – सर, आपने ही तो कहा था कि हमें अपने बाप का नाम रौशन करना चाहिए. इसलिए मैंने पिता जी का नाम लिया.

(२)
प्राथमिक कक्षा के एक बच्चे की अंकतालिका में बहुत कम नम्बर देखकर उसके पिता गुस्से में भर कर बोले, “दो थप्पड़ मारने चाहिए.”
इस पर बच्चा बोला, “हाँ, चलो पापा, मैंने उस मास्टर का घर देख रखा है.”

(३)
पिता के ऑफिस से लौटते ही बेटे ने शिकायत भरे स्वर में बताया कि “नए नौकर के रंग-ढंग ठीक नहीं हैं. इसकी चोरी करने की आदत है.”
“क्यों क्या हुआ?” पिता ने पूछा.
बेटे ने कहा, “होना क्या था, आप जो बढ़िया पार्कर पैन अपने ऑफिस से मारकर लाये थे, वह इसने पार कर लिया.”

(४)
एक व्यक्ति ने अपने मित्र को एक मोटी महिला के साथ देखकर पूछ डाला, “क्या ये आपकी अर्धांगिनी हैं?”
मित्र बोला, “हाँ, ये कभी मेरी अर्धांगिनी हुआ करती थी, पर अब तो ये मेरी डबलान्गिनी हो गयी हैं.”

(५)
दुनिया में कुछ ठन्डे मुल्क ऐसे भी हैं जहाँ की जनसंख्या बहुत कम है. जन्मदर बढ़ाने के लिए लोगों को प्रोत्साहन राशि दी जाती है. उस देश का एक शोधछात्र जब भारत आया तो उसको बताया गया कि "भारत की आबादी एक अरब बीस करोड़ से भी ज्यादा हो चुकी है, और अभी भी तेजी से बढ़ रही है. आंकड़े बताते हैं कि हर तीन मिनट में एक बच्चा पैदा होता है."
उसने अपना काम शुरू करने से पहले एक जनसंख्या अधिकारी से कहा, “सबसे पहले मैं उस महिला से मिलना चाहता हूँ जो हर तीन मिनट में बच्चा जनती है.”

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