मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, जो भी प्राणी जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है. हमारे सनातन धर्म में श्रीमद्भागवत पुराण को मृत्यु-ग्रन्थ भी कहा गया है जिसमें इस सत्य से अनेक आख्यानों द्वारा साक्षात्कार कराया गया है.
सँसार में अनेक धर्म हैं, जिनके अपने अपने अन्तिम संस्कार के तौर तरीके हैं. हमारे धर्म में शव को जलाने का प्रावधान है. जलाने के लिए तालाब, नदी या नदियों का संगम स्थल शमशान के रूप में कुछ खास जगहों पर चिन्हित होते हैं. नियम-विधान तो यह भी है कि छोटे बालक-बालिकाओं के शवों को दफनाया जाता है. इसके अलावा कोढ़ी, सन्यासी या जोगी वंश-जाति के लोगों को मृत्योपरांत दफनाया जाता है. दक्षिण भारत में लिंगायत (शैव मतावलंबी) लोग भी मृतकों के शवों को दफनाया ही करते हैं.
‘आपातकाले मर्यादा नास्ति’ का हवाला देते हुए कहीं ‘जल समाधि’ भी दी जाती है. अब लकड़ी की कमी व पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के लिए ‘विद्युत शवदाहगृह’ बनाए जाने लगे हैं, जो बहुत सुविधाजनक भी हैं. लेकिन परम्परावादी एवँ रूढ़िवादी लोग इसमें भी धार्मिक मीन-मेख निकालने से नहीं चूकते हैं. वैज्ञानिक सत्य यह है कि मुत्यु हो जाने पर यह शरीर मिट्टी हो जाता है, इसीलिए जगत कल्याणी सोच वाले लोग मृत्यु से पूर्व ही अंगदान अथवा देहदान की घोषणा कर जाते हैं.
अनंत काल से ये क्रम चलता आ रहा है कि लोग मरते रहते हैं और नए लोग अवतरित होते रहते हैं. धर्मों की व्यवस्थाओं की स्थापना इसलिए जरूरी है कि लोग दुराचरण से डरते रहें.
हमारे शहर हल्द्वानी में शवदाह के लिए चित्रशिला घाट की बड़ी मान्यता है. उत्तर दिशा में काठगोदाम से दो किलोमीटर आगे रानीबाग की छोटी सी घाटी है, जहाँ से एक सड़क नैनीताल को और दूसरी भीमताल को जाती है. नीचे गहराई में गौला नदी निरंतर प्रवाहित होती रहती है. गौला नदी काफी दूर शहरफाटक की तरफ पहाड़ों से अनेक गधेरों को समेटती हुई आती है. यहाँ पर नैनीताल की तरफ से आता हुआ बलिया नाला का संगम स्थल है, जिसे देवस्थल के रूप में मान्यता प्राप्त है. भगवान शंकर, गणेश तथा शनिदेव के मंदिर विकसित किये गए हैं. मुख्य सड़क के किनारे ‘मुक्तिधाम’ का बड़ा सा द्वार बना हुआ है. सुन्दर, सुरम्य यह आख़िरी यात्रा का पड़ाव, प्रकृति की गोद में बसा हुआ दर्शनीय स्थल भी है. कलकल निनादिनी गौला नदी इस क्षेत्र की जीवन रेखा भी है. पूरे शहर के लिए पीने का पानी व भाबर के खेतों के लिए सिंचाई की नहरें इसी से निकाली गयी हैं, इसके लिए काठगोदाम में एक बैराज बनाया गया है. एक बृहद योजना यह भी है कि भविष्य की पानी की आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए ‘जमरानी बाँध’ का निर्माण किया जाएगा. बरसात में जब गौला पूरे उफान पर होती है तो अपने साथ लाखों टन रेत व पत्थर भी बहा कर लाती है, जिसका खनन व प्रबंधन सैकड़ों लोगों के रोजगार तथा सरकार के राजस्व का श्रोत होता है.
शवदाह स्थल के पास नदी के पश्चिमी तट पर एक बड़ी सी, ऊपर से लगभग गोल प्रस्तर शिला है जिसमें लाल, पीले, नीले, श्वेत अनेक चकत्ते चिपके हुए लगते हैं प्रथम दृष्टय लगता है कि यह मनुष्यकृत है, पर ऐसा है नहीं. इसका इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना बताया जाता है. ये प्रकृति की अनुपम प्रस्तर कलाकृति है. इसके बारे मे अनेक दन्त कथाएं प्रचलित हैं पर आस्थाएं तो एकपक्षीय होती हैं.
शवों को जलाने के लिए सरकार ने पर्वतीय विकास निगम के माध्यम से लकड़ियों का टाल खोल रखा है शायद ही कोई दिन जाता होगा जब दो-चार शव यहाँ नहीं पहुचते हों. रात में शमशान को नहीं जगाया जाता. इसलिए शान्ति रहती है. हाँ गौला नदी की तरंगिनी आवाज आती रहती है. मुर्दियों के लिए एक-दो अपर्याप्त शेड बने हैं, जिन पर भी बाबा लोगों ने कब्जे कर रखे हैं. चिता की अधजली लकडियाँ व कोयले नदी में प्रवाहित कर दिये जाते हैं जो नदी को तो प्रदूषित करते ही हैं, इसके अलावा कफ़न के कपड़े, दांडी के बाँस सब नदी में धकेल दिये जाते हैं. इस पर अनेक बार चर्चाएँ तथा व्यवस्था में सुधार की बातें होती रहती हैं क्योंकि इसी प्रदूषित जल को जल निगम शोधन(?) करके शहर वासियों को पेय जल के रूप में देता है.
शहर के बाहरी क्षेत्रों में जरूर अब ट्यूब-वेल बनाए जाने लगे हैं और चर्चा यह भी है कि विद्युत शवदाहगृह बनाया जाने वाला है, पर यह अभी भविष्य के गर्भ में है. यह भी सच है कि इससे भी चित्रशिला घाट का महातम्य कम नहीं होगा. जरूरत इस बात की है कि पेय जल को हर कीमत पर प्रदूषण से बचाया जाये.
सँसार में अनेक धर्म हैं, जिनके अपने अपने अन्तिम संस्कार के तौर तरीके हैं. हमारे धर्म में शव को जलाने का प्रावधान है. जलाने के लिए तालाब, नदी या नदियों का संगम स्थल शमशान के रूप में कुछ खास जगहों पर चिन्हित होते हैं. नियम-विधान तो यह भी है कि छोटे बालक-बालिकाओं के शवों को दफनाया जाता है. इसके अलावा कोढ़ी, सन्यासी या जोगी वंश-जाति के लोगों को मृत्योपरांत दफनाया जाता है. दक्षिण भारत में लिंगायत (शैव मतावलंबी) लोग भी मृतकों के शवों को दफनाया ही करते हैं.
‘आपातकाले मर्यादा नास्ति’ का हवाला देते हुए कहीं ‘जल समाधि’ भी दी जाती है. अब लकड़ी की कमी व पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के लिए ‘विद्युत शवदाहगृह’ बनाए जाने लगे हैं, जो बहुत सुविधाजनक भी हैं. लेकिन परम्परावादी एवँ रूढ़िवादी लोग इसमें भी धार्मिक मीन-मेख निकालने से नहीं चूकते हैं. वैज्ञानिक सत्य यह है कि मुत्यु हो जाने पर यह शरीर मिट्टी हो जाता है, इसीलिए जगत कल्याणी सोच वाले लोग मृत्यु से पूर्व ही अंगदान अथवा देहदान की घोषणा कर जाते हैं.
अनंत काल से ये क्रम चलता आ रहा है कि लोग मरते रहते हैं और नए लोग अवतरित होते रहते हैं. धर्मों की व्यवस्थाओं की स्थापना इसलिए जरूरी है कि लोग दुराचरण से डरते रहें.
हमारे शहर हल्द्वानी में शवदाह के लिए चित्रशिला घाट की बड़ी मान्यता है. उत्तर दिशा में काठगोदाम से दो किलोमीटर आगे रानीबाग की छोटी सी घाटी है, जहाँ से एक सड़क नैनीताल को और दूसरी भीमताल को जाती है. नीचे गहराई में गौला नदी निरंतर प्रवाहित होती रहती है. गौला नदी काफी दूर शहरफाटक की तरफ पहाड़ों से अनेक गधेरों को समेटती हुई आती है. यहाँ पर नैनीताल की तरफ से आता हुआ बलिया नाला का संगम स्थल है, जिसे देवस्थल के रूप में मान्यता प्राप्त है. भगवान शंकर, गणेश तथा शनिदेव के मंदिर विकसित किये गए हैं. मुख्य सड़क के किनारे ‘मुक्तिधाम’ का बड़ा सा द्वार बना हुआ है. सुन्दर, सुरम्य यह आख़िरी यात्रा का पड़ाव, प्रकृति की गोद में बसा हुआ दर्शनीय स्थल भी है. कलकल निनादिनी गौला नदी इस क्षेत्र की जीवन रेखा भी है. पूरे शहर के लिए पीने का पानी व भाबर के खेतों के लिए सिंचाई की नहरें इसी से निकाली गयी हैं, इसके लिए काठगोदाम में एक बैराज बनाया गया है. एक बृहद योजना यह भी है कि भविष्य की पानी की आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए ‘जमरानी बाँध’ का निर्माण किया जाएगा. बरसात में जब गौला पूरे उफान पर होती है तो अपने साथ लाखों टन रेत व पत्थर भी बहा कर लाती है, जिसका खनन व प्रबंधन सैकड़ों लोगों के रोजगार तथा सरकार के राजस्व का श्रोत होता है.
शवदाह स्थल के पास नदी के पश्चिमी तट पर एक बड़ी सी, ऊपर से लगभग गोल प्रस्तर शिला है जिसमें लाल, पीले, नीले, श्वेत अनेक चकत्ते चिपके हुए लगते हैं प्रथम दृष्टय लगता है कि यह मनुष्यकृत है, पर ऐसा है नहीं. इसका इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना बताया जाता है. ये प्रकृति की अनुपम प्रस्तर कलाकृति है. इसके बारे मे अनेक दन्त कथाएं प्रचलित हैं पर आस्थाएं तो एकपक्षीय होती हैं.
शवों को जलाने के लिए सरकार ने पर्वतीय विकास निगम के माध्यम से लकड़ियों का टाल खोल रखा है शायद ही कोई दिन जाता होगा जब दो-चार शव यहाँ नहीं पहुचते हों. रात में शमशान को नहीं जगाया जाता. इसलिए शान्ति रहती है. हाँ गौला नदी की तरंगिनी आवाज आती रहती है. मुर्दियों के लिए एक-दो अपर्याप्त शेड बने हैं, जिन पर भी बाबा लोगों ने कब्जे कर रखे हैं. चिता की अधजली लकडियाँ व कोयले नदी में प्रवाहित कर दिये जाते हैं जो नदी को तो प्रदूषित करते ही हैं, इसके अलावा कफ़न के कपड़े, दांडी के बाँस सब नदी में धकेल दिये जाते हैं. इस पर अनेक बार चर्चाएँ तथा व्यवस्था में सुधार की बातें होती रहती हैं क्योंकि इसी प्रदूषित जल को जल निगम शोधन(?) करके शहर वासियों को पेय जल के रूप में देता है.
शहर के बाहरी क्षेत्रों में जरूर अब ट्यूब-वेल बनाए जाने लगे हैं और चर्चा यह भी है कि विद्युत शवदाहगृह बनाया जाने वाला है, पर यह अभी भविष्य के गर्भ में है. यह भी सच है कि इससे भी चित्रशिला घाट का महातम्य कम नहीं होगा. जरूरत इस बात की है कि पेय जल को हर कीमत पर प्रदूषण से बचाया जाये.
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बड़े नगरों में शवदाह को करने के लिये एक अलग व्यवस्था करनी होगी, वह भी नगर के बाहर ।
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