यह अजब गाँव की गजब कहानी है. इस गाँव में सभी कुछ तो अच्छा है लेकिन वहाँ के बाशिंदों के नाम अजब गजब हैं. तीन-चार पीढ़ी पहले गाँव में एक बार बाढ़ आ गयी थी तब किसी ठग तांत्रिक ने यहाँ आकर खबर फैला दी थी कि "अगर गाँव के बच्चों के नाम सीधे सीधे अर्थपूर्ण रखे जायेंगे तो गाँव पूरी तरह पानी में डूब जाएगा, और कोई भी नहीं बच पायेगा." लोग अनपढ़ और सरल थे उसकी बातों से डर गए. तब से बच्चों के नामकरण उल्टे-पुल्टे व बेतुके किये जाने लगे जैसे झगडू, नकटू, नखरू, लटकू, पटकू, ढक्कन, पटकन, कूड़ा, चूड़ा, डोकिया, फोतिया आदि और लड़कियों में तिकड़ी, बिगड़ी, कीड़ी, लोकाती, सेड़ी, चूरी, बासी आदि नाम रखे जाने लगे.
वर्तमान पीढ़ी तक आते आते भी ये निरर्थक नाम रखने का क्रम नहीं टूटा है क्योंकि ये लोग अंधविश्वासी और भीरु संस्कारी होते आये हैं, अतः अपनी परम्परा नहीं तोडना चाहते. पर जब से शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ है बच्चे स्कूल जाने लगे हैं और अपने बेढब नामों को लेकर परेशान रहते हैं, पर क्या करें? उनके नाम तो तब रख दिये जाते हैं जब वे खुद कुछ समझ ही नहीं पाते थे. अपने गंदे नामों पर कोफ़्त होती है साथ ही बताने में शर्म भी आती है.
शहर से मास्टर साहब आये तो यहाँ के नाम जान-सुन कर हैरान हो गए. उन्होंने गाँव के मुखिया बिगाड़ूसिंह को बुला कर इस पर चर्चा की कि ये भोंडे नाम ठीक नहीं है, इनको जमाने के हिसाब से बदला जाना चाहिए. पर मुखिया ने उनकी बात पर सहमति नहीं जताई. वह बोला, “ये तो हमारी पीढ़ियों से चली आ रही परम्परा है, हम ग्राम देवता को नाराज नहीं कर सकते हैं.” मुखिया ने आगे यह भी कहा, “मास्टर जी, आप तो इन बच्चों को पढ़ाइए, नाम में क्या रखा है?”
मास्टरजी बहुत निराश हुए. आखिर सोचने लगे कि ’जालिम, निखतू, रोनी, झोटी, मतवा, ठेकवा कितने बेतुके नाम हैं, पर मर्जी गाँव वालों की.’ वे बड़ी कसक के साथ उन बच्चों को पढ़ाते रहे, साथ ही उनको नामों के महत्व को समझाते भी रहे.
ठेकवा जब जवान हो गया तो उसकी शादी हो गयी. आन गाँव से उसकी शिक्षित पत्नी आ गयी. उसे भी अपने पति का नाम बड़ा खराब लगता था. एक दिन उस नई नवेली ने शर्माते हुए ठेकवा से कहा, “अजी, आप अपना कोई अच्छा सा नाम बदलो, मुझे जब लोग ठेकवा की बीवी पुकारते हैं तो बहुत शरम आती है, पीहर में तो मेरी सहेलियां –भाभियाँ आपका नाम ठहाके लागाकर बोलती हैं, हंसती हैं.”
पत्नी की इस दारुण व्यथा को सुनकर ठेकवा द्रवित हो गया और बोला, “ठीक है मैं शहर की तरफ जाता हूँ और कोई अच्छा सा सार्थक नाम खोज कर आता हूँ.”
ठेकवा जब शहर की राह पर था तो रास्ते में उसे एक शवयात्रा में जाते हुए लोग मिले, उसने मृतक का नाम पूछा तो बताया गया “अमरसिंह.” वह सुनकर हँस पड़ा.
जब वह आगे बढ़ा तो एक औरत भीख मांग रही थी, ठेकवा ने उसका नाम पूछ लिया. उसने बताया “लक्ष्मी”, विरोधाभासी नाम सुनते हुए जब वह और आगे गया तो एक अंधे व्यक्ति से टकरा गया, उसका नाम पूछा तो उसने बताया कि उसका नाम नयनसुख है. ठेकवा वहीं से घर लौट पड़ा और घर आकर अपनी प्यारी पत्नी को नामों के बारे में समझाते हुए बोला,
वर्तमान पीढ़ी तक आते आते भी ये निरर्थक नाम रखने का क्रम नहीं टूटा है क्योंकि ये लोग अंधविश्वासी और भीरु संस्कारी होते आये हैं, अतः अपनी परम्परा नहीं तोडना चाहते. पर जब से शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ है बच्चे स्कूल जाने लगे हैं और अपने बेढब नामों को लेकर परेशान रहते हैं, पर क्या करें? उनके नाम तो तब रख दिये जाते हैं जब वे खुद कुछ समझ ही नहीं पाते थे. अपने गंदे नामों पर कोफ़्त होती है साथ ही बताने में शर्म भी आती है.
शहर से मास्टर साहब आये तो यहाँ के नाम जान-सुन कर हैरान हो गए. उन्होंने गाँव के मुखिया बिगाड़ूसिंह को बुला कर इस पर चर्चा की कि ये भोंडे नाम ठीक नहीं है, इनको जमाने के हिसाब से बदला जाना चाहिए. पर मुखिया ने उनकी बात पर सहमति नहीं जताई. वह बोला, “ये तो हमारी पीढ़ियों से चली आ रही परम्परा है, हम ग्राम देवता को नाराज नहीं कर सकते हैं.” मुखिया ने आगे यह भी कहा, “मास्टर जी, आप तो इन बच्चों को पढ़ाइए, नाम में क्या रखा है?”
मास्टरजी बहुत निराश हुए. आखिर सोचने लगे कि ’जालिम, निखतू, रोनी, झोटी, मतवा, ठेकवा कितने बेतुके नाम हैं, पर मर्जी गाँव वालों की.’ वे बड़ी कसक के साथ उन बच्चों को पढ़ाते रहे, साथ ही उनको नामों के महत्व को समझाते भी रहे.
ठेकवा जब जवान हो गया तो उसकी शादी हो गयी. आन गाँव से उसकी शिक्षित पत्नी आ गयी. उसे भी अपने पति का नाम बड़ा खराब लगता था. एक दिन उस नई नवेली ने शर्माते हुए ठेकवा से कहा, “अजी, आप अपना कोई अच्छा सा नाम बदलो, मुझे जब लोग ठेकवा की बीवी पुकारते हैं तो बहुत शरम आती है, पीहर में तो मेरी सहेलियां –भाभियाँ आपका नाम ठहाके लागाकर बोलती हैं, हंसती हैं.”
पत्नी की इस दारुण व्यथा को सुनकर ठेकवा द्रवित हो गया और बोला, “ठीक है मैं शहर की तरफ जाता हूँ और कोई अच्छा सा सार्थक नाम खोज कर आता हूँ.”
ठेकवा जब शहर की राह पर था तो रास्ते में उसे एक शवयात्रा में जाते हुए लोग मिले, उसने मृतक का नाम पूछा तो बताया गया “अमरसिंह.” वह सुनकर हँस पड़ा.
जब वह आगे बढ़ा तो एक औरत भीख मांग रही थी, ठेकवा ने उसका नाम पूछ लिया. उसने बताया “लक्ष्मी”, विरोधाभासी नाम सुनते हुए जब वह और आगे गया तो एक अंधे व्यक्ति से टकरा गया, उसका नाम पूछा तो उसने बताया कि उसका नाम नयनसुख है. ठेकवा वहीं से घर लौट पड़ा और घर आकर अपनी प्यारी पत्नी को नामों के बारे में समझाते हुए बोला,
“जो मर गए वो थे अमरसिंह, लक्ष्मी मांगे भीख,अजब गाँव की परम्परा आज भी जारी है.
नयनसुख को दीखे नाहीं, मैं ठेकवा ही ठीक.”
***.
देख कबीरा रोया..
जवाब देंहटाएंपुरुषोत्तम पाण्डेय
जवाब देंहटाएंhttp://purushottampandey.blogspot.com/2012_09_01_archive.html
अनंत काल से ये क्रम चलता आ रहा है कि लोग मरते रहते हैं और नए लोग अवतरित होते रहते हैं.
धर्मों की व्यवस्थाओं की स्थापना इसलिए जरूरी है कि लोग दुराचरण से डरते रहें......
“जो मर गए वो थे अमरसिंह, लक्ष्मी मांगे भीख,
जवाब देंहटाएंनयनसुख को दीखे नाहीं, मैं ठेकवा ही ठीक.”लेकिन भाई साहब कुछ भी कहो -नाम सामाजिक सोच का आइना होतें हैं .जैसे पुराने लोग नाम रखते थे ,राम प्रकाश ,शिवदयाल ,किशनलाल ,शंकर लाल ,या फिर मिश्री सिंह ,इमारती देवी ,फुलवा ,चमेली ,गुलाबो ,लोगों को देवता और मिठाई दोनों भाते थे ,और फूलों की खुशबू वह तो आज भी भाति है तभी औरत मर्द दोनों के नाम हैं सुमन ,कई के उपनाम हैं सुमन .त्रिभुवन .
दूसरे छोर पर लड़कियों को आज भी दुतकारता बुहारता समाज उनका नाम रखता है -भतेरी ,धापा ,मनभरी ,
“जो मर गए वो थे अमरसिंह, लक्ष्मी मांगे भीख,
नयनसुख को दीखे नाहीं, मैं ठेकवा ही ठीक.”
इन सड़ी गली परम्पराओं को लोग आज भी ढौ रहें हैं .वैसे ही नहीं कहा गया था -यथा नाम तथा गुण.लेकिन हम काले अँगरेज़ उधारी भाषा के कायल हो गए -वाट इज देयर इन ए नेम ?क्या सचमुच नाम में कुछ नहीं रख्खा .फिर क्यों कहा गया -राम से बड़ा राम का नाम /उलटा नाम जपाजप जाना ,वाल्मीकि भये सिद्ध समाना .
:)
जवाब देंहटाएंsarthak post
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है ....अजब सी गज़ब कहानी (सही भी हो सकती हैं )...
जवाब देंहटाएंआपकी यह पोस्ट पढ़ कर मुझे काका हाथरसी की कविता याद आई .... नाम बड़े और दर्शन थोड़े ।
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