पति मोहनलाल शर्मा के स्वर्ग सिधारने के बाद उनकी पत्नी सुखदेई बिलकुल अकेली हो गयी थी क्योंकि दोनों बेटियाँ पहले ही विवाहित होकर अपने अपने ससुराल चली गयी थी और कोई नाते रिश्तेदार नजदीक में था नहीं, जो आकर उनको संभालता. देवर व उनके बच्चों से पहले उनको उम्मीद रही कि बुढ़ापा उनके साथ ही कटेगा, पर अब उनकी अपनी अलग गृहस्थी थी. जायदाद सम्बन्धी कुछ मनमुटाव होने के कारण उनकी देखभाल रस्मी रह गयी.
जब तक हाथ पैर ठीक से चल रहे थे सुखदेई ने परवाह भी नहीं की, पर अब उम्र के आख़िरी पड़ाव पर जब डाईबिटीज से ग्रस्त शरीर को संधिवात ने जकड़ लिया तो मजबूरन अपनी छोटी बेटी छम्मो के दर पर आ गयी है. यहाँ बेटी, नाती-नातिनें सभी उनके स्नेहभाजन हैं. इसलिए इनके साथ रहने पर उनको अहसास हो रहा है कि औलाद का सुख क्या होता है? बुढ़ापे में सम्मान पूर्वक देखभाल ही तो चाहिए.
स्वर्गीय पति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता व आत्मीयता का यह भाव रहा कि मृत्योपरांत भी उनके साथ पुराने दिनों के सपने देखा करती हैं. जीवन भर पति-पत्नी अपने सुख-दुःख आपस में बांटते रहे, अब सुखदेई हर वक्त इसी सोच में रहती है कि पति की आत्मा को ना जाने क्या गति मिली होगी? कभी कभी इसी सोच में बेचैन हो जाया करती है.
नए संवत्सर पर वर्षफल सुनाने के लिए और अपनी बहुप्रतीक्षित पुरोहिती दक्षिणा लेने पण्डित भीमराज श्रीमाली आये तो बच्चों ने उनको सादर प्रणाम करके आसान पर बैठाया और नानी को खबर दी कि “आपके पण्डित जी आये हैं.” नानी यानि सुखदेई, जो पण्डित भीमराज पर अटूट विश्वास व श्रद्धा रखती रही हैं. काफी दिनों से उनसे मुलाक़ात नहीं हो पा रही थी क्योंकि वह स्वयं तो संधिवात के अतिप्रकोप से चलने-फिरने में असमर्थ हो गयी हैं और पण्डित जी भी अपने गाँव के बजाय अब शहर में जाकर रहने लगे हैं. कभी तीज त्यौहार पर या पुरोहिती के काम से ही गाँव में आना होता है.
सुखदेई के मन में कई दिन से एक सवाल घूम रहा था कि जिस तरह जन्मकुंडली पढ़ कर पिछले जन्मों के बारे में बताया जाता है उसी तरह अगले जन्म के बारे में भी क्या पण्डित जी का ज्योतिष बता सकता है.
बरसों पहले जब सुखदेई के पति मौजूद थे, तब पण्डित भीमराज जी ने ही कुंडली पढ़कर बताया था कि “पिछले जन्म में तुम दोनों पति-पत्नी चिड़ियों की योनि में थे.” सच कहा था या महज बहलाने के लिए झूठ, इसका पता नहीं, पर सुखदेई मानती है कि ज्योतिष का ज्ञान होने से पण्डित जी त्रिकालदर्शी हैं, वे झूठ नहीं बोल सकते हैं.
सच्चाई तो यह है कि पण्डित जी का यह भी एक धन्धा है. वे अपने यजमानों के इस विश्वास को नहीं तोड़ना चाहते कि पुरोहित जी सर्वज्ञानी हैं. इसीलिये जब अस्सी वर्षीय वृद्ध सुखदेई व्यग्रता से अपने अगले जन्म के विषय में पूछती है तो उन्होंने सहज भाव में मुस्कुराते हुए कहा, “नहीं, माताजी, अब आपको आगे जन्म-मरण के बंधन में नहीं पड़ना पड़ेगा, मैंने आपकी कुंडली बारीकी से देखी है, उसके अनुसार अब आपको मोक्ष मिलने वाला है. आप तुलसी की माला फेरते रहिये. आप सीधे परमधाम जायेंगी.” पण्डित जी के ये वाक्य सुन कर सुखदेई सन्न रह गयी और सोच में पड़ गयी क्योंकि अभी इतनी जल्दी वे मरना भी नहीं चाहती हैं, और न ही मोक्ष की कामना करती हैं. उनको लगा कि इस सँसार से उनकी इस तरह विदाई, अनेक अतृप्त इच्छाओं के साथ नहीं होनी चाहिए. पण्डित जी से उसने पुनः एक नादान सा प्रश्न पूछा, “क्या स्वर्ग में मेरी मुलाक़ात अब दुबारा छम्मो के पिता से नहीं हो पायेगी?”
पण्डित भीमराज ने स्थिति को भांपते हुए बहुत चतुराई से कहा, “अरे, क्यों नहीं माता जी, मोहनलाल जी की आत्मा तो वहाँ आपका बेसब्री से इन्तजार कर रही होगी. आपका तो उनके साथ सात जन्मों का बंधन था, और हिसाब से ये आपका सातवाँ जन्म है. इसके बाद आप दोनों ही ब्रह्मलोक में रहेंगे जहाँ सांसारिक दुःख भी नहीं झेलने पड़ेंगे.”
यह सुनकर सुखदेई बहुत प्रसन्न हो गयी. अपनी रामकोथली (बटुआ) खोली और पण्डित जी को ५०१ रुपये दक्षिणा देते हुये निहाल हो गयी.
जब तक हाथ पैर ठीक से चल रहे थे सुखदेई ने परवाह भी नहीं की, पर अब उम्र के आख़िरी पड़ाव पर जब डाईबिटीज से ग्रस्त शरीर को संधिवात ने जकड़ लिया तो मजबूरन अपनी छोटी बेटी छम्मो के दर पर आ गयी है. यहाँ बेटी, नाती-नातिनें सभी उनके स्नेहभाजन हैं. इसलिए इनके साथ रहने पर उनको अहसास हो रहा है कि औलाद का सुख क्या होता है? बुढ़ापे में सम्मान पूर्वक देखभाल ही तो चाहिए.
स्वर्गीय पति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता व आत्मीयता का यह भाव रहा कि मृत्योपरांत भी उनके साथ पुराने दिनों के सपने देखा करती हैं. जीवन भर पति-पत्नी अपने सुख-दुःख आपस में बांटते रहे, अब सुखदेई हर वक्त इसी सोच में रहती है कि पति की आत्मा को ना जाने क्या गति मिली होगी? कभी कभी इसी सोच में बेचैन हो जाया करती है.
नए संवत्सर पर वर्षफल सुनाने के लिए और अपनी बहुप्रतीक्षित पुरोहिती दक्षिणा लेने पण्डित भीमराज श्रीमाली आये तो बच्चों ने उनको सादर प्रणाम करके आसान पर बैठाया और नानी को खबर दी कि “आपके पण्डित जी आये हैं.” नानी यानि सुखदेई, जो पण्डित भीमराज पर अटूट विश्वास व श्रद्धा रखती रही हैं. काफी दिनों से उनसे मुलाक़ात नहीं हो पा रही थी क्योंकि वह स्वयं तो संधिवात के अतिप्रकोप से चलने-फिरने में असमर्थ हो गयी हैं और पण्डित जी भी अपने गाँव के बजाय अब शहर में जाकर रहने लगे हैं. कभी तीज त्यौहार पर या पुरोहिती के काम से ही गाँव में आना होता है.
सुखदेई के मन में कई दिन से एक सवाल घूम रहा था कि जिस तरह जन्मकुंडली पढ़ कर पिछले जन्मों के बारे में बताया जाता है उसी तरह अगले जन्म के बारे में भी क्या पण्डित जी का ज्योतिष बता सकता है.
बरसों पहले जब सुखदेई के पति मौजूद थे, तब पण्डित भीमराज जी ने ही कुंडली पढ़कर बताया था कि “पिछले जन्म में तुम दोनों पति-पत्नी चिड़ियों की योनि में थे.” सच कहा था या महज बहलाने के लिए झूठ, इसका पता नहीं, पर सुखदेई मानती है कि ज्योतिष का ज्ञान होने से पण्डित जी त्रिकालदर्शी हैं, वे झूठ नहीं बोल सकते हैं.
सच्चाई तो यह है कि पण्डित जी का यह भी एक धन्धा है. वे अपने यजमानों के इस विश्वास को नहीं तोड़ना चाहते कि पुरोहित जी सर्वज्ञानी हैं. इसीलिये जब अस्सी वर्षीय वृद्ध सुखदेई व्यग्रता से अपने अगले जन्म के विषय में पूछती है तो उन्होंने सहज भाव में मुस्कुराते हुए कहा, “नहीं, माताजी, अब आपको आगे जन्म-मरण के बंधन में नहीं पड़ना पड़ेगा, मैंने आपकी कुंडली बारीकी से देखी है, उसके अनुसार अब आपको मोक्ष मिलने वाला है. आप तुलसी की माला फेरते रहिये. आप सीधे परमधाम जायेंगी.” पण्डित जी के ये वाक्य सुन कर सुखदेई सन्न रह गयी और सोच में पड़ गयी क्योंकि अभी इतनी जल्दी वे मरना भी नहीं चाहती हैं, और न ही मोक्ष की कामना करती हैं. उनको लगा कि इस सँसार से उनकी इस तरह विदाई, अनेक अतृप्त इच्छाओं के साथ नहीं होनी चाहिए. पण्डित जी से उसने पुनः एक नादान सा प्रश्न पूछा, “क्या स्वर्ग में मेरी मुलाक़ात अब दुबारा छम्मो के पिता से नहीं हो पायेगी?”
पण्डित भीमराज ने स्थिति को भांपते हुए बहुत चतुराई से कहा, “अरे, क्यों नहीं माता जी, मोहनलाल जी की आत्मा तो वहाँ आपका बेसब्री से इन्तजार कर रही होगी. आपका तो उनके साथ सात जन्मों का बंधन था, और हिसाब से ये आपका सातवाँ जन्म है. इसके बाद आप दोनों ही ब्रह्मलोक में रहेंगे जहाँ सांसारिक दुःख भी नहीं झेलने पड़ेंगे.”
यह सुनकर सुखदेई बहुत प्रसन्न हो गयी. अपनी रामकोथली (बटुआ) खोली और पण्डित जी को ५०१ रुपये दक्षिणा देते हुये निहाल हो गयी.
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