इस बार दीपावली पर उनके घर में कोई दिया नहीं जला क्योंकि घर का इकलौता चिराग कुछ दिन पहले ही बुझ गया था. यों तो एक दिन सभी को जाना पड़ता है, पर जिस तरह से माता-पिता व बहन को सरेराह रोता छोड़कर वरुण चला गया और अन्धेरा कर गया, इसकी कभी कल्पना नहीं की थी.
मित्र व रिश्तेदार मातमपुरसी लगातार आते रहते हैं और मालती को रुला जाते हैं. सूर्यकांत वैसे तो बहुत हिम्मतवाला आदमी है, पर पुत्रशोक ने उसे भी तोड़ डाला है. मालती को सुबकते देख कर उसका भी गला भर आता है आँखों से आंसू झरने लगते हैं.
आनेजाने वालों की मजबूरी होती है. वे सामाजिक दस्तूर के हिसाब से ढाढस बधाने की बातें करते हैं. इसके आगे क्या कर सकते हैं? सँसार का कालचक्र कभी थमता नहीं है. विधाता की श्रृष्टि को अभी तक कोई समझ नहीं पाया है. अगर छीनना ही था तो दिया क्यों था? यह प्रश्न बार बार मन में उठता है.
सूर्यकांत के पिता सनाडय ब्राह्मण तथा मालती के पिता कान्यकुब्ज थे. एक ही उद्योग में कार्यरत दोनों पड़ोसी थे. बच्चों के जवान होते होते ना जाने कब आपस में प्यार का बीज प्रस्फुटित हुआ, घर वालों को कानोंकान खबर नहीं हुई. सूर्यकांत के घर में माँ सौतेली थी और उसके लिए बहुत अच्छा वातावरण नहीं रहता था इसलिए उसे भरोसा नहीं था कि उसके प्यार को घर में स्वीकृति मिल पायेगी. उसने मालती से सलाह लेकर चुपचाप नजदीक के बड़े शहर में जाकर आर्यसमाज मंदिर में विवाह कर लिया. कुछ हमउम्र दोस्तों का सहयोग और शुभकामनाओं के साथ दोनों विवाहित तो हो गए पर अपने मध्यवर्गीय समाज के कारण त्रासदी भुगतते हुए मानसिक यातनाएं खूब दिनों तक सहते रहे.
जो लोग अपने परिवार/समाज की इच्छा के विरुद्ध अपने प्यार के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को उद्यत रहते हैं, वे बहुत जीवट वाले होते हैं. कहते हैं कि ‘हिम्मते मरदां, मददे खुदा’.सूर्यकांत और मालती का हनीमून पीरियड बहुत परेशानियों व तंगहाली में बीता. चूंकि सूरज एक स्पोर्ट्समैन भी था, क्रिकेटर के रूप में उसकी पहचान बनी हुई थी, उसे बहुत जल्दी एक उद्योग में अकाउंट्स कलर्क की तथा मालती को सकारी प्राथमिक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिल गयी. उसने बी.ए. के बाद बी.एड. की डिग्री भी हासिल कर ली थी.
तुलसीदास जी ने सही लिखा है, ‘समरथ को नहि दोष गुसांई’. धीरे धीरे समयांतर पर व अपने अपने परिवारों द्वारा स्वीकृत कर लिए गए. प्यार की जीत हो गयी. सूर्यकांत–मालती की जोड़ी नौजवानों के लिए आदर्श बन गयी. उनका परिवार चार वर्षों के अंतराल में पहले दो से तीन फिर तीन से चार के आंकड़े पर आ गया. बड़ी बेटी रश्मि व छोटा वरुण, फूल से सुन्दर प्यारे बच्चे, सबके दुलारे, सौम्य बच्चे. छोटा नियोजित परिवार, सुखी परिवार, यह उनकी पहचान बनी थी.
ये कल की सी ही बात थी, गत वर्ष बिटिया ने एम.एससी. कर लिया और वरुण ने ग्रेजुएशन करके मेडीकल ट्रांसक्रिप्शन में डिप्लोमा लेकर जयपुर में काम शुरू कर लिया. जहाँ ना जाने कब उसके फेफड़ों में इन्फैक्शन हो गया. उसने इसे गंभीरता से नहीं लिया. हल्का फुल्का लाक्षणिक ईलाज अनियमितता से करवाता रहा. अन्दर बीमारी बढ़ती रही. घरवालों को तब खबर की गयी जब साथ में न्यूमोनाइटिस भी हो गया और दोनों फेफड़े जवाब देने लगे. बीमारी तीसरी स्टेज में थी. सघन चिकित्सा में ले जाया गया, पर उसे बचाया नहीं जा सका. एक जवान मौत हो गयी और साथ में माँ-बाप व बहिन सब के अरमानों को भी मौत मिल गयी.
सूर्यकांत दो वर्ष पहले अपनी नौकरी से रिटायर हो चुका था. रिटायरमेंट के बाद उसने अपने सपनों का एक सुन्दर घर बनवाया. घर मुख्य बस्ती से बाहर एकांत में है, जहाँ से मालती को स्कूल आने जाने की सुविधा होती. विडम्बना यह है कि अब यही एकांत काटने को आ रहा है.
घर को पता नहीं किस की नजर लग गयी थी, घर बनने के एक साल के अंदर ही वरुण का देहावसान हो गया. अब सब तरफ उदासी है, मायूसी है, दुःख है, रोना है, नाउम्मीदी है अन्धेरा सा है. सूरज रुँधे गले से कहता है, “सब खत्म हो गया है. जीवन का कोई उद्देश्य नहीं रहा.” मालती गुमसुम हो गयी है. कभी जार जार रोती भी है. उसे हर रात सपनों में वरुण दीखता है. घावों को हरा कर जाता है. यह ऐसा दर्द है, जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है और ना इस दर्द की कोई दवा है.
रश्मि खुद घायल सी हो गयी है. उसके पास माता-पिता को सांत्वना के लिए कोई शब्द नहीं हैं.
पर क्या यह सच नहीं है कि जिस दिन प्राणी का जन्म होता है, उसी दिन उसकी मृत्यु की तारीख भी उसके माथे पर लिख दी जाती है. यह तो मनुष्यों की अपनी माया-ममता है, जिसमें परमात्मा उसे उलझा कर रखता है. मौत तो बिछुड़ने का एक अपरिहार्य बहाना मात्र है.
एक शायर ने लिखा है, "गुलों की तो जिंदगी थी ही इतनी, नाहक खिजां पर इल्जाम आया."
मित्र व रिश्तेदार मातमपुरसी लगातार आते रहते हैं और मालती को रुला जाते हैं. सूर्यकांत वैसे तो बहुत हिम्मतवाला आदमी है, पर पुत्रशोक ने उसे भी तोड़ डाला है. मालती को सुबकते देख कर उसका भी गला भर आता है आँखों से आंसू झरने लगते हैं.
आनेजाने वालों की मजबूरी होती है. वे सामाजिक दस्तूर के हिसाब से ढाढस बधाने की बातें करते हैं. इसके आगे क्या कर सकते हैं? सँसार का कालचक्र कभी थमता नहीं है. विधाता की श्रृष्टि को अभी तक कोई समझ नहीं पाया है. अगर छीनना ही था तो दिया क्यों था? यह प्रश्न बार बार मन में उठता है.
सूर्यकांत के पिता सनाडय ब्राह्मण तथा मालती के पिता कान्यकुब्ज थे. एक ही उद्योग में कार्यरत दोनों पड़ोसी थे. बच्चों के जवान होते होते ना जाने कब आपस में प्यार का बीज प्रस्फुटित हुआ, घर वालों को कानोंकान खबर नहीं हुई. सूर्यकांत के घर में माँ सौतेली थी और उसके लिए बहुत अच्छा वातावरण नहीं रहता था इसलिए उसे भरोसा नहीं था कि उसके प्यार को घर में स्वीकृति मिल पायेगी. उसने मालती से सलाह लेकर चुपचाप नजदीक के बड़े शहर में जाकर आर्यसमाज मंदिर में विवाह कर लिया. कुछ हमउम्र दोस्तों का सहयोग और शुभकामनाओं के साथ दोनों विवाहित तो हो गए पर अपने मध्यवर्गीय समाज के कारण त्रासदी भुगतते हुए मानसिक यातनाएं खूब दिनों तक सहते रहे.
जो लोग अपने परिवार/समाज की इच्छा के विरुद्ध अपने प्यार के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को उद्यत रहते हैं, वे बहुत जीवट वाले होते हैं. कहते हैं कि ‘हिम्मते मरदां, मददे खुदा’.सूर्यकांत और मालती का हनीमून पीरियड बहुत परेशानियों व तंगहाली में बीता. चूंकि सूरज एक स्पोर्ट्समैन भी था, क्रिकेटर के रूप में उसकी पहचान बनी हुई थी, उसे बहुत जल्दी एक उद्योग में अकाउंट्स कलर्क की तथा मालती को सकारी प्राथमिक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिल गयी. उसने बी.ए. के बाद बी.एड. की डिग्री भी हासिल कर ली थी.
तुलसीदास जी ने सही लिखा है, ‘समरथ को नहि दोष गुसांई’. धीरे धीरे समयांतर पर व अपने अपने परिवारों द्वारा स्वीकृत कर लिए गए. प्यार की जीत हो गयी. सूर्यकांत–मालती की जोड़ी नौजवानों के लिए आदर्श बन गयी. उनका परिवार चार वर्षों के अंतराल में पहले दो से तीन फिर तीन से चार के आंकड़े पर आ गया. बड़ी बेटी रश्मि व छोटा वरुण, फूल से सुन्दर प्यारे बच्चे, सबके दुलारे, सौम्य बच्चे. छोटा नियोजित परिवार, सुखी परिवार, यह उनकी पहचान बनी थी.
ये कल की सी ही बात थी, गत वर्ष बिटिया ने एम.एससी. कर लिया और वरुण ने ग्रेजुएशन करके मेडीकल ट्रांसक्रिप्शन में डिप्लोमा लेकर जयपुर में काम शुरू कर लिया. जहाँ ना जाने कब उसके फेफड़ों में इन्फैक्शन हो गया. उसने इसे गंभीरता से नहीं लिया. हल्का फुल्का लाक्षणिक ईलाज अनियमितता से करवाता रहा. अन्दर बीमारी बढ़ती रही. घरवालों को तब खबर की गयी जब साथ में न्यूमोनाइटिस भी हो गया और दोनों फेफड़े जवाब देने लगे. बीमारी तीसरी स्टेज में थी. सघन चिकित्सा में ले जाया गया, पर उसे बचाया नहीं जा सका. एक जवान मौत हो गयी और साथ में माँ-बाप व बहिन सब के अरमानों को भी मौत मिल गयी.
सूर्यकांत दो वर्ष पहले अपनी नौकरी से रिटायर हो चुका था. रिटायरमेंट के बाद उसने अपने सपनों का एक सुन्दर घर बनवाया. घर मुख्य बस्ती से बाहर एकांत में है, जहाँ से मालती को स्कूल आने जाने की सुविधा होती. विडम्बना यह है कि अब यही एकांत काटने को आ रहा है.
घर को पता नहीं किस की नजर लग गयी थी, घर बनने के एक साल के अंदर ही वरुण का देहावसान हो गया. अब सब तरफ उदासी है, मायूसी है, दुःख है, रोना है, नाउम्मीदी है अन्धेरा सा है. सूरज रुँधे गले से कहता है, “सब खत्म हो गया है. जीवन का कोई उद्देश्य नहीं रहा.” मालती गुमसुम हो गयी है. कभी जार जार रोती भी है. उसे हर रात सपनों में वरुण दीखता है. घावों को हरा कर जाता है. यह ऐसा दर्द है, जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है और ना इस दर्द की कोई दवा है.
रश्मि खुद घायल सी हो गयी है. उसके पास माता-पिता को सांत्वना के लिए कोई शब्द नहीं हैं.
पर क्या यह सच नहीं है कि जिस दिन प्राणी का जन्म होता है, उसी दिन उसकी मृत्यु की तारीख भी उसके माथे पर लिख दी जाती है. यह तो मनुष्यों की अपनी माया-ममता है, जिसमें परमात्मा उसे उलझा कर रखता है. मौत तो बिछुड़ने का एक अपरिहार्य बहाना मात्र है.
एक शायर ने लिखा है, "गुलों की तो जिंदगी थी ही इतनी, नाहक खिजां पर इल्जाम आया."
***
सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंवरिष्ठ गणतन्त्रदिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ और नेता जी सुभाष को नमन!
बहुत मार्मिक .... जीवन के साथ ही मृत्यु निश्चित है लेकिन ऐसी मौत माता - पिता को तोड़ जाती है ।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंएक शायर ने लिखा है, "गुलों की तो जिंदगी थी ही इतनी, नाहक खिजां पर इल्जाम आया."और बिलकुल लिखा है यह भी -मौत का एक पल
मुऐयन है ,नींद क्यों रात भर नहीं आती .जिसका जब तक साथ होता है वह बना रहता है .हिसाब किताब चुकता शरीर छोड़ा आत्मा ये जाए
के वो जाए .सवाल विधना का है .भाग्य का है .क्या भाग्य फल नहीं होता ?मार्मिक प्रसंग कसावदार ताना बाना घटना कथा का .शुक्रिया
आपकी टिपण्णी का .
आपकी पोस्ट की चर्चा 24- 01- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें ।
मर्मश्पर्शी रचना. मन को छू लिया.
जवाब देंहटाएंअचानक पोस्ट के बीच के इस शब्द पर मेरे नजर चले गये
जवाब देंहटाएंमाता-पिता व बहन
को सरेराह रोता छोड़कर वरुण
चला गया और अन्धेरा कर गया
मुझे काफी आश्चर्य हुआ
वैसे बहुत अच्छी पोस्ट ।
क्या कहें...? पढ़ते पढ़ते आँखें भर आईं.... :(
जवाब देंहटाएंभगवान के खेल भी निराले हैं!
कहना बहुत आसान है और करना बहुत मुश्किल ... फिर भी ईश्वर से यही दुआ है कि वो वरुण के माता-पिता व बहन को ये दुख सहन करने की शक्ति दे !
~सादर!!!
सब छोड़ चले जाना है,
जवाब देंहटाएंएक दिन ऐसा आना है।
जवाब देंहटाएंकाल चिंतन इससे आगे और क्या होगा एक शब्द चित्र आपने भारत बनाम इंडिया का खींच दिया .इंडिया भाग लेता है गणतंत्र दिवस की झांकियों में भारत देखता है .कृपया आजका सेहतनामा ज़रूर पढ़ें .आभार आपकी नित्य टिप्पणियों का .हमारे लिए ताश अखबार सी कीम्तीं हैं आपकी टिप्पणियाँ हर पल कुछ नया देती हुईं .
गणतंत्र दिवस और ईद मिलादुल नबी की मुबारक बाद .
करमन की गति न्यारी ....
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