सोमवार, 22 दिसंबर 2014

हींग

एक पुरानी आम बोलचाल की कहावत है, "हींग लगे ना फिटकरी, रंग चढ़े चोखा".  ऐसा लगता है कि बेचारे हींग को जबरदस्ती इसमें घसीटा गया है क्योंकि रंगने-रंगाने में हींग की कोई भी भूमिका नहीं होती है. हींग तो भोजन का एक गुणकारी मसाला है, जो हमारे देस-परदेस में अनंत काल से इस्तेमाल होता आ रहा है. इसमें निहित गुणों की लम्बी फेहरिस्त है. आयुर्वेद, जिसे पाँचवां वेद भी कहा जाता है, उसमें इसके बारे में वृहद चर्चा है. चरक संहिता ने इसे दमा रोगियों के लिए रामबाण औषधि के रूप में प्रमाणित किया है. वैसे पेट में गैस व दर्द संबंधी सभी विकारों में इसका प्रयोग बहुत लाभकारी होता है दाल-सब्जी में हींग का छौंक केवल खुशबू के लिए नहीं, उसकी गुणवत्ता बढ़ाने के लिए होता है. हमारे यहाँ पंसारी की दूकान पर हींग की पुड़िया या डिब्बी मिल जाती है, पर शुद्ध हींग हो इस बात की कोई गारंटी नहीं होती. क्योंकि हींग के व्यापारी शुद्ध हींग को गोंद में मिलाकर मुनाफ़ा कमाया करते हैं.

हाल ही में इन्दिरापुरम (गाजियाबाद) के एक पार्क में गुनगुनी धुप सेकते समय, एक "हाथरसी" सज्जन से मेरी मुलाकात हुई. उन्होंने बताया कि हाथरस में हींग की मंडी है. युगों से वहीं से इसका वितरण पूरे देश में होता रहा है. हाथरस की हींग के बारे में उसी तरह प्रसिद्धि बताई जिस तरह हापुड़ के पापड़, मथुरा के पेड़े, अलीगढ़ के ताले, आगरा का पेठा, लखनऊ की गजक, अल्मोड़े की बाल मिठाई, बनारस की साड़ी, आदि, अनेक शहरों के साथ जुड़े हुए उपमान हैं. हालाँकि कई कारणों से अब ये विशेषण गायब होते जा रहे हैं.  

प्यारेलाल हाथरसी ने बताया कि वे स्वयं बैंक आफ इलाहाबाद के कर्मचारी थे, लेकिन हींग का व्यवसाय उनका पुश्तैनी धंधा रहा है. बातें करते करते उन्होंने अपने झोले में से हींग की 50 ग्राम की पॉलिथीन पैकेजिंग के पाउच बाहर निकाला और बताया कि नो प्रॉफिट- नो लॉस के सिद्धांत पर हींग बेच कर मित्रता बढ़ाते रहते हैं. यहाँ वे एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत अपने पुत्र के पास आया जाया करते हैं. उन्होंने बातों बातों में कई बार डेबिट-क्रेडिट बराबर जैसे जुमले का इस्तेमाल किये. उनके इस बैंकीय भाषा के आदतन प्रयोग पर मैंने उनको एक लतीफा भी सुनाया कि एक बस कंडक्टर शादी के बाद अपनी सुहागरात की सेज पर चढ़ने से पहले अपनी नवेली वधु से बोला, थोड़ा परे हटके बैठो, एक सवारी और इस सीट पर आयेगी.

बात हींग की हो रही थी. प्यारेलाल हाथरसी ने एक अच्छे सेल्समैन की तरह मुझे ये महसूस करा दिया कि ऐसा शुद्ध हींग इस सस्ती दर पर (100 रुपयों में 50 ग्राम) अन्यत्र नहीं मिल सकता है. मैंने अपनी अर्धांगिनी की सहमति पर उनसे एक पैकेट खरीद भी लिया.

ये तो मुझे मालूम था कि हींग एक हर्बल उत्पाद होता है, पर इसका उत्पादन कहाँ और कैसे होता है, इसकी जानकारी नहीं थी. इस बारे में जब इंटरनेट पर खोजा तो मालूम हुआ कि ये सौंफ की तरह ही दो से चार फुट वाले पौधों से प्राप्त किया जाता है, इसकी खेती ईरान, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, व खुरासान की पहाड़ी क्षेत्रों में होती है और वहीं से इसका आयात किया जाता है.

हींग स्वाद में बहुत कटु होता है, इसकी तासीर गर्म होती है इसलिए गरमी के दिनों में इसका उपयोग कम करना चाहिए. एक घरेलू नुस्ख़ा है कि हींग के साथ सौंठ, कालीमिर्च, छोटी पीपल, अजवाइन, सफेद जीरा, काला जीरा सब बराबर मात्रा में लेकर घी में भून कर बारीक पीस कर चूर्ण बनाकर सादे पानी के साथ सेवन करने से पेट के समस्त विकार दूर होते हैं. आयुर्वेद में वर्णित 'हिंग्वाष्टक चूर्ण (जो सभी आयुर्वैदिक स्टोर्स पर उपलब्ध होता है) बहुत असरकारक दवा है. इसलिए कहा जाता है कि हींग केवल मसाला ही नहीं दर्द-निवारक औषधि भी है.
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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

चुहुल - ६९

(१)
एक चटोरे मास्टर जी ने बच्चे का पूरा टिफिन खा लिया और आँख दिखाते हुए बच्चे से बोले, घर जाकर मत कह देना कि मास्टर जी ने खाया था.
सहमा हुआ बच्चा बोला, नहीं बोलूंगा.
मास्टर जी ने बात पक्की करने के लिए पूछ ही लिया, तो क्या कहेगा? किसने खाया?
बच्चा बोला, मैं कह दूंगा कि कुत्ता खा गया.

(२)
एक महिला ब्यूटी पार्लर से लौट कर घर आई. पति का ध्यान आकर्षित करने के लिए कुछ इठलाती सी, शर्माती सी उसके सामने आई, पर वह बेपरवाह होकर कुछ बोला ही नहीं. अत: महिला को मुस्कुराते हुए खुद पूछना ही पड़ा, कैसी लग रही हूँ?
पति उसकी तरफ गौर से देखने के बाद बोला, क्या आज भी पार्लर बंद मिला?

(३)
एक स्मार्ट दादा जी अपने छोटे पोते को पास बिठा कर, उसे अपनी जवानी के तारीफी किस्से सुना कर, खुश हुए जा रहे थे. तभी बीच में टोक कर पोता बोला, वो सब तो आपने बहुत अच्छे अच्छे काम किये हैं, लेकिन एक काम जरूर गलत किया.
दादा ने पूछा, तुझे कौन सा काम गलत लगता है?
पोता बोला, बुढ़िया के साथ शादी की! हा...  हा...  हा...

(४)
सुबह सुबह वह कॉलेज को निकला. मोहल्ले की लड़की रास्ते में मिल गयी. फ्लर्ट करने के इरादे से उससे बोला, हाय, बढ़िया मेकअप, परफ्यूम की गजब महक, खूबसूरत हेयर स्टाईल, कपड़ों की बेहतरीन चॉइस... 
लड़की बीच में ही बोल पड़ी, थैंक यूं, भैया!
लड़का टोन बदल कर मुंह बिगाड़कर बोला, ये सब होते हुए भी राखी सावंत लग रही हो.

(५)
एक कंजूस आदमी की बेटी शादी लायक थी. एक कन्यार्थी मेहमान आया तो फ़ौरन सत्कार के लिए उसके सामने काजू-किशमिश-बादाम-पिस्ता  वाला डिब्बा रखा गया. मेहमान बातें करते हुए कुछ काजू-किशमिश खाता रहा और फिर रुक गया. स्वागतकर्ता  घर के मालिक, ने अनुरोध भरे स्वर में कहा, "अरे, आप रुक क्यों गए, और काजू लीजिये ना.
इस पर मेहमान बोला, तीन-चार खा चुका हूँ. ज्यादा खाना ठीक नहीं होगा.
मेहमाननवाज बोला, खाने को तो आपने 9 काजू, 6 बादाम और 10 किशमिश खा लिए हैं, पर यहाँ कौन गिन रहा है, आप खाते रहिये, अपना ही घर समझिए.
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रविवार, 7 दिसंबर 2014

चिंतन - ३

2014 का लोकसभा चुनाव अपना विशेष ऐतिहासिक महत्त्व रखता है क्योंकि इससे पहले सभी प्रबुद्धजनों का मानना था कि देश में अब पूर्ण बहुमत वाली एक पार्टी सरकार नहीं आ सकती है, यानि ख्याल था कि अब जो बनेगी वह खिचड़ी सरकार ही बनेगी. खिचड़ी सरकारों का हश्र हमने पूर्व में कई बार देख चुके हैं, जो कि बुरा ही रहा है.

इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी के पराभव के अनेक कारण रहे हैं. ऐसा नहीं कि कांग्रेस सरकारों ने कोई अच्छे कार्य या विकास के कार्य नहीं किये, लेकिन समय के साथ साथ उसमें दीमक सी लग गयी थी; पुराने नेता अपनी बपौती समझने लगे थे, निगरानी तंत्र कमजोर होने से सर्वत्र भर्ष्टाचार पनप गया था. पिछले वर्षों में बड़े बड़े घोटाले उजागर होते रहे; कोई दमदार नेता उभर कर नहीं आया. अत: पार्टी बुरी तरह हाशिये पर आ गयी है.

नरेंद्र मोदी जी का अभ्युदय देश में बहुत अरसे से जोर मारती हुई हिंदूवादी शक्तियों के एकीकरण या यों कहिये दूसरी तरफ भी साम्प्रदायिक शक्तियों के ध्रुवीकरण के साथ आम लोगों में परिवर्तन की तीव्र भावना के कारण स्वाभाविक तौर पर हुआ. यद्यपि भाजपा में भी बहुत से अंतर्विरोध थे/हैं, पर मोदी जी ने अपने वाक्चातुर्य से सबको दबा दिया लगता है. कभी कभी ऐसा भी लगने लगता है कि जिस तरह से इंदिरा गांधी वन-मैन आर्मी कही जाती थी, वैसे ही मोदी जी को भी अधिनायकवादी कहा जा रहा है. पर मोदी जी ने अल्पकाल में ही अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी छवि बना ली है वह अभूतपूर्व है.

यूनाइटेड स्टेट्स अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा जी मोदी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित बताये जा रहे हैं. मोदी जी ने उनको आगामी गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में बुला भी लिया है. ओबामा जी का मोदी प्रेम/ 'भारत प्रेम के पीछे ओबामा के अपने संस्कार तो हैं, लेकिन अमेरिका एक ऐसा देश है जो अपने राष्ट्रीय हितों के प्रति बहुत स्वार्थी रहा है. वह अपने व्यापारिक दृष्टिकोण से निर्णय लेता है. विशेषकर अपने पुराने हथियारों के लिए मार्केट तलाशता रहता है. उसे दक्षिण एशिया में वर्चश्व बनाए रखने के लिए आर्मी एवं नेवल बेस चाहिए. खाड़ी देशों में तेल भंडारों पर अपना प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण चाहिए. पाकिस्तान जैसे धर्मांध इस्लामिक देश को पालना उसकी नीति का जाना पहचाना चेहरा है. आज भारत के प्रति अमरीकी नेतृत्व का प्यार कोई अबूझ पहेली नहीं है. अमेरिका में चाहे रिपब्लिकन पार्टी सत्ता में हो या डेमोक्रेटिक पार्टी हो, दोनों की विदेश नीति में कोई सैद्धांतिक भेद नहीं होता है. विगत सात वर्षों में पार्टी की लोकप्रियता घटने से बराक साहब की नजर आगामी चुनाव के मद्देनजर वहां बसे हुए भारतीय मूल के निवासियों पर है, जो वोटों का बैलेंस बनाने में मददगार सिद्ध होंगे. इसलिए एक समय जिसे घोर मानवाधिकार हनन करने वाला मान कर, अपने देश का वीजा देने से इनकार कर दिया था, उसपर अब हार्दिक प्यार जताया जा रहा है.

इधर चीन की अपनी विस्तारवादी, विश्वासघाती नीति रही है; वह कभी नहीं चाहेगा कि कोई अन्य एशियाई देश उसके मुकाबले में आगे आये अत: वह हमेशा से पाकिस्तान को थपथपाते हुए  नेपाल, श्रीलंका व मालदीव  को प्रभावित करते हुए, भारत के भू-भागों को अपने नक्शों  में चीन का हिस्सा बताता है, इसप्रकार भारत को रक्षा बजट पर बांधे रखना चाहता रहा है. सीमा पर भी  रोज छेड़छाड़ हो रही है. मोदी जी के साथ उनका झूले पर पेंग मारना, दोस्ती का दिखावा मात्र है.

देश के अन्दर समाजवादी नामक तत्व अब अपना असली रंग खो चुका है. वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, और मूल नीतियों से हट कर परिवारवाद पर केन्द्रित होकर पूंजीवादी-सामंती व्यवहार में आ गया है. तमाम क्षेत्रीय पार्टियों से भी आम लोगों का मोहभंग होता नजर आ रहा है. कुछ क्षत्रप हैं जो अभी भी कुण्डली मार के बैठे हैं, पर मोदी जी के वर्तमान चमचमाती छवि उनको भी जल्दी निगल जायेगी ऐसा सामने दीख रहा है. दिल्ली में केजरीवाल की स्थिति एक बरसाती नाले की तरह है क्योंकि राजनैतिक पार्टी बना कर वे अपने मूल चरित्र से भटक पड़े हैं.

सबसे बुरा हाल टुकड़ों में बंटी हुई साम्यवादी पार्टियों का है, जो कि भारत के राजनैतिक परिदृश्य में हाशिये के भी पल्ली तरफ जा पहुचे हैं. हाँ, कुछ अतिवादी जो अपने को आज भी साम्यवादी बताते हैं नक्सलवादियों के रूप में नासूर बने हुए हैं. सत्ता पर काबिज होने का इनका सपना दूर की कौड़ी है मात्र  दिवादु:स्वप्न है.

ये सियासत है, सबके अपने अपने नजरिये और स्वार्थ हैं, जो लोग कल तक विपक्ष में थे आज सत्तानशीं हैं. जो सत्ता में थे. उनको अभी भी सत्ता के सपने आ रहे हैं. कहते हैं कि कुल्हाड़ी दूसरों के कंधे पर हल्की नजर आती है. जब आप पर जिम्मेदारी आती है, तब आपसे ही सवाल पूछे जायेंगे. देश के अन्दरूनी हालात क्यों नहीं बदल रहे हैं? सीमाओं पर जवान रोज शहीद हो रहे हैं, नक्सलवादी तथा आतंकवादी रोज पूर्ववत वारदातें कर रहे हैं, विदर्भ में किसान आज भी आत्महत्या करने को मजबूर हैं, ठेकेदार आज भी मजदूर का हक मारकर इंजीनियर/नेता जी को मोटा करता जा रहा है. पर आशावादी लोगों का कहना है कि नई सरकार को और समय चाहिये क्योंकि समस्याओं की जड़ें बहुत गहरी हैं.

कुल मीजान ये है कि मोदी नाम के इस धूम्रकेतु को सभी प्रशसक  उगते सूर्य की तरह अनुशंसा कर रहे हैं, पर सूर्य तो सूर्य है, जिसके प्रभाव और प्रकाश से सारी कायनात अस्तित्व में है.
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गुरुवार, 20 नवंबर 2014

चुहुल - 68

(१)
एक आदमी सड़क पर चिल्लाता जा रहा था, ये सरकार निकम्मी है. पुलिस वाले ने सुना और उसे पकड़ कर थाने ले गया. थाने में ले जाकर सरकार के खिलाफ बगावती बातें करने के आरोप में उसकी ताजपोशी की जाने लगी तो वह अपनी सफाई में बोला, मैं तो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ नारे लगा रहा था.
इस पर थानेदार ने उसकी पिटाई करते हुए कहा, साले, तू झूठ बोल रहा है. हमको भी मालूम है कि कौन सी सरकार निकम्मी है.

(२)
एक नौसिखिया आशिक अपने ही स्कूल की जूनियर कक्षा की लड़की से मेलजोल बढ़ाने में कामयाब हो गया, पर प्यार का इजहार नहीं कर पा रहा था. एक दिन मौक़ा पाकर उससे बोला, जब से तुमसे मुलाक़ात हुई है, ना जाने मुझे क्या हो रहा है नींद कम आती है, भूख भी कम लगती है, और पढ़ाई में बिलकुल मन नहीं लगता है. क्या करना चाहिए?
लड़की चिंतित होकर बोली, भैय्या, तुम आज ही किसी सायकायट्रिक को दिखाओ. मेरी माँ सही कह रही थी कि तुम्हें कोई बीमारी है.

(३)
अध्यापक दो में से दो गये तो क्या बचा?
विद्यार्थी सर, मैं समझा नहीं?
अध्यापक इस तरह समझो कि तुम्हें खाना दिया गया, जिसमें दो रोटिया हैं, वे दोनों  ही तुमने खाली, तो क्या बचा?
विद्यार्थी सब्जी बचेगी सर.

(४)
दस वर्षीय नेहा पिछली छुट्टियों में अपनी मौसी के घर गयी. मौसी ने रसोई में जाने से पहले नेहा से पूछ लिया नेहा, तुम कितनी रोटिया खाती हो?
नेहा ने बड़े भोलेपन से जवाब दिया, वैसे तो मैं तीन रोटियाँ खाती हूँ, सब्जी अच्छी लगे तो चार खा लेती हूँ, लेकिन अगर कोई नहीं देख रहा हो तो पांच रोटियां भी खा लेती हूँ.

(५)
तीन जिगरी दोस्त हैं: चिंटू, मिंटू और छोटू. उम्र क्रमश: 12, 10 और 8 साल. एक दिन इन तीनों ने प्रोग्राम बनाया कि बड़ों की ही तरह अपन भी पिकनिक मनाने चलें. तीन बोतल कोल्ड ड्रिंक शाम को ही खरीद कर रख ली, आज हलवाई की दूकान से 6 समोसे खरीदे और चल पड़े
पार्क काफी दूर था, वहां जाकर याद आया कि कोल्ड ड्रिंक तो घर ही रह गया. अब घर जाकर कौन लाये? तय हुआ कि लो सबसे छोटा है वह जाकर लेकर आयेगा. छोटू ने कहा, मैं इस शर्त पर जाऊंगा कि मेरे आने तक तुम समोसे नहीं खाओगे.
ठीक है, दोनों ने कहा.
छोटू का इन्तजार करते करते एक घंटा, दो घंटे, और तीन घंटे बीत गए, छोटू नहीं दिखा. अब तो घर लौटने का समय भी हो चला था तो चिंटू ने मिंटू से कहा यार, अब तो भूख भी लग आई है, छोटू आने वाला नहीं लगता है, चलो समोसे खा लेते हैं.
जैसे ही उसने समोसे का पैकेट खोला तो झाड़ी के पीछे से छोटू निकल कर आया और बोला, अगर तुम लोग ऐसी बेईमानी करोगे तो मैं कोल्ड ड्रिंक लेने जाऊंगा ही नहीं.
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सोमवार, 17 नवंबर 2014

ईवेन्ट मैनेजर (सामयिकी)

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता, भूतपूर्व उपप्रधान मंत्री श्री लालकृष्ण अडवानी ने वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के बारे में सटीक बात कही है कि “वे एक अच्छे ईवेंट मैनेजर (event manager) है. इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी जी ने भारतीय मतदाताओं की नब्ज को बहुत बढ़िया ढंग से पकड़ा है. गुड़ नहीं तो गुड़ जैसी बात ही करो
का फार्मूला फिट किया हुआ है. उधर कांग्रेस पार्टी औंधे मुंह गिर कर परिवर्तन की मार सह रही है. सच बात तो यह है कि मोदी जी के मुकाबले उनके पास कोई धुरंधर नेता नहीं है. राहुल गांधी को धक्का दे दे कर आगे किया जाता रहा है, पर वह एक अविकसित, डरी हुए आत्मा है, जिसने अपने सामने अपनी दादी इंदिरा जी व पिता राजीव गांधी की प्रत्यक्ष मौत देखी है, जो कि बदले की भावना से की गयी थी. जिस बच्चे का शैशव, नाम बदल कर, डर के साये में बीता हो, उसके मानसिक स्थिति के बारे में सही आकलन करना आसान नहीं हो सकता है. बहरहाल वह मोदी जी जैसे सर्वगुणसंपन्न राजनैतिक खिलाड़ी की तुलना के ग्राफ में बहुत नीचे है. यहाँ उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी व राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता कोई मुद्दा नहीं है, ना इस बारे में उन पर कोई शक किया जा सकता है. वह एक सहज, सरल व परावलम्बी व्यक्तित्व है, जो आज की धूर्ततापूर्ण राजनीति में सफल कलाकार साबित नहीं हो सकता है.

वोल्टेयर ने कहा था कि “Give me the press, I will not care who rules the country.” उस जमाने में जब आज की तरह इलैक्ट्रोनिक मीडिया नहीं था, अखबार ही जनमत को प्रभावित करते थे. आज तो हमारे बेडरूम के अन्दर तक मीडिया का दखल हो चुका है, टीवी चैनल्स के मालिकों व संपादकों के वेस्टेड इंटरेस्ट हो सकते हैं, जिनका प्रत्यक्ष/परोक्ष प्रभाव हम लोग पिछले दिनों से देखते आ रहे हैं. मीडिया वालों के कई बिजनेस टार्गेट हो सकते हैं, पर सत्ता को दण्डवत करने का नया इतिहास इस बार उजागर हो रहा है.

मैंने इंटरमीडिएट करने के बाद करीब आठ महीनों तक एक प्राइवेट जूनियर हाई स्कूल में अध्यापन कार्य भी किया था, रवाईखाल, बागेश्वर के उस नए स्कूल के हेडमास्टर स्वर्गीय रूपसिंह परिहार थे. वे एक काफी वृद्ध रिटायर्ड हेडमास्टर थे, जिन्होंने अपनी जवानी के दिनों में मेरे पिताश्री को भी काण्डा मिडिल स्कूल में पढ़ाया था और मुझे भी सन 1949-50 में बागेश्वर मिडिल स्कूल में पढ़ाया था. वे जबरदस्त ईवेंट मैनेजर माने जाते थे. उनका कहना था कि लिफ़ाफ़े के भीतर क्या है ये तो लोगों को बाद में मालूम होता है, प्रथम दृष्टया लिफ़ाफ़े का बाहरी लुक आकर्षक होना चाहिए. रवाईखाल का वह ग्रामीण स्कूल अब हायर सेकेंडरी बन चुका है, पर उसकी बुनियाद भविष्यदृष्टा रूपसिंह जी ने तभी डाल दी थी.

दूसरा उदाहरण ए.सी.सी. लाखेरी सीमेंट कारखाने का है, जिसमें 1980-90 के दशक के बीच कई वर्षों तक स्वनामधन्य श्री प्रेमनारायण माथुर का जनरल मैनेजर के रूप में वर्चस्व रहा. मुझे उनके साथ काम करने का लम्बा अवसर मिला.  प्राईवेट कंपनियों में प्लांट हैड अपनी फैक्ट्री व कैम्पस का राजा होता था. ये कारखाना सात बर्षों से ज्यादा समय तक लगातार घाटे में चलता आ रहा था, और सिक यूनिट घोषित हो चुका था. चूंकि माथुर साहब अच्छे ईवेंट मैनेजर थे, उन्होंने बुरे दिनों में भी कॉर्पोरेट ऑफिस, सरकारी तंत्र और कर्मचारियों के साथ सामंजस्य बनाते हुए सीमेंट उत्पादन की तिथियों को इस प्रकार से समायोजित किया कि उत्पादकता का राष्ट्रीय अवार्ड हासिल किया. ये उनका कमाल था कि कुछ ना होते हुए भी सब कुछ होने का अहसास कराते रहे थे. ये दीगर बात है कि उनके जाने के बाद कारखाना बिकने के कगार पर आ गया था.

माथुर साहब उसके बाद सऊदी अरब के एक सुलतान के कारखाने जनरल मैनेजर बने थे. वहां से रिटायर होने के बाद भी सुलतान ने उनको नहीं छोड़ा, उनको अपना सलाहकार बनाए रखा था. उनके ईवेंट मैनेजरी का किस्सा ये भी है कि उन्होंने सुलतान को भारत भ्रमण का निमंत्रण दिया, और जब सुलतान  दिल्ली में उतरा तो बड़ी भीड़ फूल मालाओं से उसका स्वागत करने को तत्पर मिली. उसके बाद जब वह ताजमहल देखने आगरा गया तो वहाँ भी बहुत लोग उनकी अगवानी में मालाएं लेकर इन्तजार कर रहे थे. इसी प्रकार जब वह चारमीनार देखने हैदराबाद पहुंचा तो वहां का स्वागत देख कर गदगद हो गया. जबकि माथुर साहब का उन शहरों में कोई व्यक्तिगत आधार नहीं था फिर भी सुलतान को अहसास कराया गया कि प्रेमनारायण माथुर कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं.

मैं माथुर साहब को उनकी जवानी के दिनों से जानता हूँ, वे एक जूनियर ऑफिसर के रूप में लाखेरी माईन्स में इंजीनियर थे, पर वे लोगों के दिलों को जीतने की कला जानते हैं. भगवान उनको लम्बी उम्र दे. वे आजकल फरीदाबाद में विराजते हैं.

गत पांच महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जहां भी, जिस देश में भी, किसी भी प्रयोजन से भ्रमण कर रहे हैं, उनके मैनेजर्स/प्रायोजक आगे आगे वहाँ पहुँच कर प्रवासी भारतीय जनमानस को इस तरह से उद्वेलित करते आ रहे हैं कि मोदी जी की यात्रा एक यादगार समारोह बन जाता है. दुनिया हंसती है, हंसाने वाला चाहिए. मीडिया पूरी तरह समर्पित है और व्यवस्थापक सुनियोजित ढंग से अपना कर्तव्य निभा रहे हैं.

ये सब लिखकर मैं मोदी जी के करिश्माई चरित्र को कम नहीं करना चाहता हूँ, लेकिन घरेलू मोर्चे पर अभी तक महंगाई, बेरोजगारी, ग्रास-रूट पर भृष्टाचार तथा साम्प्रदायिक सौहार्द्य की यथास्थिति चिंतनीय है. बीच बीच में कालाधन, शौचालय, स्वच्छता अभियान जैसे मुद्दे उछालकर कुछ हो रहा है का अहसास कराया जा रहा है. अंतर्राष्ट्रीय बाजार में सोने व पेट्रोल के भावों में गिरावट को मोदी इफेक्ट नाम देकर भरमाया जा रहा है. हाँ ये जरूर है कि मनमोहन सिंह जी के समय में जो शून्य की सुनसानी थी, वह अब नहीं है. लगता है कि देश में कोई प्रधानमंत्री नाम की चीज मौजूद है जैसा कि जवाहरलाल जी के समय में होता था.
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मंगलवार, 11 नवंबर 2014

डर

आज मौली का 35वां हैप्पी बर्थडे है. वह कई दिनों से इसे कुछ नए ढंग से मनाने की सोच रही थी, पर घर गृहस्थी के काम उसे उलझाए रहे. उसने परम्परागत ढंग से ही सुबह नहा-धोकर घर के ही मंदिर में दीप प्रज्ज्वलित कर पूजा-अर्चना की फिर पतिदेव को प्रणाम कर प्यार पाया, उल्लासित होकर रसोई में चली गयी. उसे माँ की बहुत याद आ रही थी. उसने माँ की पसंद की काजू, किशमिश, पिस्ते-बादाम वाली गाढ़ी खीर बनाई. पूड़ियाँ बनाई, बड़े बनाए और केले के मालपुए बनाए. दस वर्षीय बेटे अक्षत और पति रजनीकांत को पेटभर खिलाया. शनिवार था इसलिए अक्षत को आज स्कूल नहीं जाना था. रजनीकांत अपने निर्धारित समय पर ऑफिस को चला गया. 

पकवान खुद खाने से पहले उसने एक टिफिन डिब्बे में अलग अलग खानों में सारी चीजें माँ के लिए पैक कर रख दी. माँ के पास जाने के लिए जल्दी जल्दी तैयार हो रही थी कि इतने में उसकी स्कूलमेट भावना का फोन आ गया कि वह एक घंटे बाद उसके घर विज्ञान नगर पहुँच रही है’. मौली एकदम सकते में आ गयी. वह भावना को बता नहीं सकी कि उसे डडवाडा (कोटा रेलवे स्टेशन के पास) माँ के पास जाना है. नई परिस्थिति पर सोचते हुए उसने अक्षत को पास बुलाकर पूछा, बेटा, तू अकेला नानी के पास जा सकता है? अक्षत ने बिना सोचे समझे आत्मविश्वास से कहा, मैंने नानी के घर का रास्ता देखा है, टेम्पू से जाऊंगा, बजरिया में मंदिर पर उतर कर सीधे नानी के घर चला जाऊंगा.

मौली की माँ वेदवती देवी अपने पुश्तैनी घर में अकेली रहती हैं. वह अध्यापिका थी और अब रिटायर हुए पांच साल हो चुके हैं. मौली उनकी इकलौती संतान है. वह मौली की शादी के बाद चाहती थी कि रजनीकांत घर जंवाई बन कर उनके पास ही रहें, पर रजनीकांत को ये मंजूर नहीं था. उसका कहना था, आप आकर हमारे साथ रहो”. रजनीकांत का विज्ञान नगर में अपना बड़ा दुमंजिला मकान है, जिसमें सभी आधुनिक सुविधाएं हैं. उसका अपना कार्यस्थल इन्द्रप्रस्थ औद्योगिक क्षेत्र भी दूसरी दिशा में है, तथा अक्षत का स्कूल भी तलमंडी में नजदीक है. माँ का मन है, वो बेटी से कहने लगी, मेरे बाद ये सब तुम्हारा ही है, जब तक हाथ-पाँव चल रहे हैं, मैं डडवाडा में ही रहूँगी. इसमें तुम्हारे पिता की यादें भी बसी हुयी हैं. जब अशक्त हो जाऊंगी तो तुम्हारे पास ही आना पड़ेगा. माँ-बेटी में बहुत प्यार व समझदारी है, स्वाभाविक रूप से एक दूसरे की बहुत चिंता किया करती हैं. मौली ने बचपन में बाप की जगह भी माँ को ही पाया था, और ये भी सच है कि बेटी ही माँ को सबसे अच्छी तरह समझ सकती है. उसे याद है उसके जन्मदिन पर माँ उसे सजा-संवार कर पूजा किया करती थी, उसकी सहेलियों को घर बुलाकर ढेर सारे पकवान बना कर खिलाती थी. अब मौली हर वार-त्यौहार या शुभ दिन, माँ का आशीर्वाद लेना नहीं भूलती है.

आज ऐन वक्त पर भावना का फोन आ गया तो सोचा माँ से शाम को जाकर मिल लूंगी. माँ के पास लैंड-लाइन टेलीफोन है, पर माँ के कान जवाब दे गए हैं, बहुत कम सुनाई पड़ता है. समस्या के निराकरण के लिए ई.एन.टी. डॉक्टर से कान की जांच करवाकर सुनने की मशीन लगवा दी है, पर माँ कहती है कि ये बहुत असुविधाजनक है इसलिए निकाल कर रख देती है, और जब जरूरत महसूस करती है तो फिट कर लेती है. मौली की शुक्रवार को माँ से बात हुयी थी. मौली ने कह दिया था कि खाना मत बनाना, मैं लेकर आऊँगी”. अब इस असमंजस में जब अक्षत नानी के घर जाने को तैयार हो गया तो उसे राहत मिल गयी. एक थैले में टिफिन डब्बा रख कर, अच्छी तरह ले जाने को समझाकर, टेम्पो के लिए खुले रुपये देकर, अन्दर की जेब में १०० रुपयों का एक नोट भी रख दिया. अक्षर तुरंत दबे पाँव निकल गया. मौली जब तक उसे देख पाती, वह एकदम गायब हो गया. मौली पीछे पीछे झालावाड़ रोड तक भी गयी, पर अक्षत ने कमाल कर दिया इतनी जल्दी निकल गया. मौली ने कभी भी बेटे को इस तरह अकेले सड़क पर नहीं छोड़ा था. जिस तरह मुर्गी अपने चूजे को अपने पंखों के अन्दर छुपाये रखती है, उसी तरह मौली ने बेटे को कोई एक्सपोजर नहीं होने दिया था. अब सोच रही थी कि सीधे सीधे टेम्पो जाते है, हजारों लोग आते-जाते रहते हैं’, लेकिन मन में बैठा चोर डरा भी रहा था कि कोई अक्षत का अपहरण न कर ले क्योंकि आजकल कोटा में ऐसी अपराधिक धटनाएं बहुत होने लगी थी. ये भी सोच रही थी कि एक दिन तो बच्चे को इस दुनिया में अकेले विचरण करना है. उसने कई बार माँ को फोन लगाया पर वह उठा नहीं रही थी. माँ जरूर मशीन हटाकर काम में लग रही होगी या सो गयी होगी.

भावना आई, खूब गले मिले, गिले शिकवे हुए. वह बर्थडे गिफ्ट लेकर आई थी. दरअसल भावना मौली का जन्मदिन हमेशा याद रखती है. दो घटों तक दोनों सहेलिया खूब बतियाती रही फिर वह चली गयी. इस बीच भी मौली के मन में बार बार अक्षत का ख़याल आ रहा था. एक बार फिर से फोन लगाया तो माँ ने उठा लिया, पर ये क्या? उसने बताया कि अक्षत वहाँ नहीं पंहुचा था. दिन के दो बजने को आये थे. बच्चे का वहां नहीं पहुंचना चिंता का विषय हो गया. उसने तुरंत पति को फोन किया और घबराहट में यथास्थिति बयान कर दी. रजनीकांत पहले तो अक्षत को इस तरह अकेले भेजने पर नाराज हुआ फिर तुरंत घर की तरफ रवाना हो गया. मौली बदहवास सी होकर पड़ोस के लोगों व बच्चों को अपनी बात बताने निकल पड़ी. सब लोग सुनकर हैरत में थे कि अक्षत खो गया.

उधर माँ भूखी थी, इस बात की भी चिंता हो रही थी. तीन बजे रजनीकांत घर पहुँच गया. पति-पत्नी दोनों ने तय किया कि एकदम पुलिस स्टेशन जाने के बजाय रेलवे स्टेशन की तरफ जाकर डडवाडा में उसे खोजना चाहिए. पड़ोस में हल्ला होने से कुछ लड़के पहले ही निकल पड़े थे. रजनीकान्त ज्यों ही मोटर-बाईक उठाने के लिए सीढ़ियों से नीचे उतरा तो उसको वहाँ कुछ खटपट की आवाज सी सुनाई पड़ी, जब झुककर देखा तो अक्षत को सिमटकर छुपा बैठा पाया.

रजनीकांत ने मौली को आवाज दी और बताया, अक्षत तो यहाँ दुबका बैठा है! उसे पाकर दोनों को बड़ी राहत मिली. इस अजीब स्थिति पर अक्षत ने रोना शुरू कर दिया. उसे प्यार से समझाकर अन्दर ले गए. रजनीकांत मौली से बोले, इसे डरपोक बनाने का श्रेय तुमको जाता है. फिर अक्षत की नानी को फोन से सूचना देकर वे तीनों टिफिन डिब्बा लेकर नानी के पास गए. वह भी बेहद डरी हुई थी.
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बुधवार, 5 नवंबर 2014

हिटलर

जर्मनी के तानाशाह अडोल्फ़ हिटलर का असली सरनेम हिडलर था. चूंकि वह अपने तेजस्वी भाषणों से हिट होता गया इसलिए उसे हिटलर कहा जाने लगा, ऐसा कहा जाता है. वह एक विकासपुरुष के रूप में भी जाना जाता था. उसने लोगों को खूब सपने दिखाए थे और तदनुसार बहुत काम भी किये. यहाँ तक कि उसकी मृत्यु के बाद, यानि द्वितीय विश्व युद्ध में हार के बाद भी जर्मनी का विकास रुका नहीं क्योंकि मित्रराष्ट्रों ने जर्मनी पर पुरानी कठोर शर्तें नहीं लगाई कि कोई दूसरा हिटलर फिर से पैदा ना हो.

मैंने जर्मनी का इतिहास पहले नहीं पढ़ा था. मेरे पौत्र/पौत्री की बुकसेल्फ़ में अनेक महापुरुषों की जीवनी संबंधी पुस्तकें संग्रहित हैं, इन्हीं में मुझे अडोल्फ़ हिटलर की जीवनी (लेखक IGEN B.) भी मिली. ये पुस्तक सरल अंग्रेजी में लिखी हुई है. इसके पूर्वार्ध में जर्मनी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का बड़े सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है. अब तक मैंने हिटलर को महज एक क्रूर तानाशाह व यहूदियों के हत्यारे के रूप में जाना-सुना था, और मैं उसे मानवता का दुश्मन माना करता रहा हूँ, जिसने दुनिया को द्वितीय विश्वयुद्ध में धकेला था. उसकी जीवनी पढ़ने के बाद उसके द्वारा मानवता के प्रति किये गए अपराधों को एक तरफ रख कर देखा जाए तो वहां की तत्कालीन परिस्थितियों के वशीभूत उसके बचपन और युवावस्था में किये गए संघर्षों की कहानी में होनहार विरवान के होत चीकने पात वाली तमाम विशिष्टताएं हैं, जो हर किसी में नहीं हो सकती हैं. उसका दादा जूते बनाकर गुजारा करता था, उसका बाप एक मामूली सरकारी नौकर था, वह स्वयं मात्र एक पेंटर-कलाकार था, जो आर्थिक विपन्नताओं में पला-बढ़ा था.

यह भी सच है कि उन दिनों जर्मनी में राजनैतिक समीकरणों व देश के विभाजन के बाद मूल जर्मनों की दुर्दशा हो रही थी. सारे वैभव तथा सरकारी उच्च पदों पर यहूदियों का कब्जा था. बालक अडोल्फ़ ने अनुभव किया कि इस दुर्दशा के लिए यहूदी लोग जिम्मेदार हैं इसलिए वह यहूदियों से घृणा करता था. परिस्थितियों ने जब उसे कम उम्र में ही सीढ़ी दर सीढ़ी चांसलर के पद तक पहुंचा दिया तो उसने यहूदियों पर अनेक अत्याचार किये, और उनका नरसंहार कराया  और वह धार्मिक उन्माद के चलते जर्मनों का हृदय सम्राट बना रहा. जो जर्मन लोग ह्यूमिलिएशन में  जी रहे थे, उनमें जातीय जोश भर कर राष्ट्रप्रेम की शक्ति का नवसंचार किया. हम ही सर्वश्रेष्ठ नस्ल हैं" का मंत्र फूंका. सत्ता पर कब्जा होने के साथ ऐसी बिसात बिछाई कि विरोधियों का एक एक कर खात्मा कर दिया. कम्यूनिस्टों को देश का दुश्मन करार दे दिया, पर उसकी विश्व विजय की महत्वाकांक्षा उसके लिए भारी पड़ी. पड़ोसी देशों से दुश्मनी और युद्ध के चलते उसके मनसूबे नाकामयाब हो गए. उसे छुपकर अपने बंकर में ही अपनी पत्नी सहित आत्महत्या करने को मजबूर होना पड़ा. ये उसके तानाशाही विचारों की अंतिम परिणीति थी. 

परिवर्तन प्रकृति का नियम और समय की मांग होती है. किसी ना किसी रूप में क्रान्ति होती रहती है. उसके शुभाशुभ परिणाम तो बहुत बाद में निकलते हैं. जर्मनी हार गया उसे दो भागों में बंटना पड़ा. उसकी जो दुर्दशा हुई उसके घाव बहुत दिनों तक हरे रहे,

हम भारत में रहने वाले लोग पंचायती हैं. हमारे संविधान में सत्ता हस्तांतरण की प्रजातंत्रीय प्रक्रिया मतपेटियों के मार्फ़त होती है. अभी ये जरूर है कि चुनावों में धनबल, बाहुबल, और जाति+धर्म-बल का खुला खेल होता रहा है, अशिक्षा व गरीबी का बड़ा रोल चुनावों में रहता आया है.

सन २०१४ के लोकसभा चुनावों का परिणाम कतई अप्रत्याशित नहीं था क्योंकि पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह जी की सरकार अपने ढीले रवैये व भ्रष्टाचार+घोटालों के चलते बहुत बदनाम हो चली थी. गत वर्षों से इसी सम्बन्ध में अन्ना हजारे व रामदेव जी के आन्दोलन लोगों को उद्वेलित करते आ रहे थे अत: आम लोग सत्ता में परिवर्तन चाहते थे. ऐसे में नरेंद्र मोदी जी जैसे साधन सम्पन्न, अनुभवी सुवक्ता की अगुवाई में धार्मिक जोश के तड़के के साथ लहर सी फ़ैलती गयी. जिस तरह जर्मनी में १९३० के दशक में हालात बने थे, ठीक उसी तरह मोदी जी हिन्दू ह्रदयसम्राट का परोक्ष तमगा लगा कर, गरीब चाय बेचने वाले बालक का चेहरा बता कर सुनियोजित ढंग से सत्ता पर काबिज हो गए. उनके पीछे कट्टर हिन्दू विचारधारा वाले संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का पूरा हाथ भी था और है. संघ का कि पूरे भारत में ही नहीं बल्कि अप्रवासी भारतीयों में भी सुनियोजित नेटवर्क काम करता है.

कल क्या होगा, ये तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन आज मोदी और बीजेपी हिटलर की नाज़ी पार्टी की याद दिलाते हैं. उन्होंने पार्टी और सरकार में सारे सिपहसालार अपने ढंग से प्रतिष्ठित कर लिए हैं. इस निरंकुशता को पार्टी के अन्दर के अतृप्त तत्व कितने दिन बर्दाश्त करेंगे, ये भी भविष्य के गर्भ में है. इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने जिस तरह से चापलूसी और खुट्टेबर्दारी की हदें पार कर रखी हैं, शुभ लक्षण नहीं है क्योंकि कोरे आश्वासनों से लम्बे समय तक लोगों का असंतोष दबाया नहीं जा सकेगा.

विशेष सावधानी पड़ोसी देश चीन व पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध निभाने में रखनी होगी. कहा जाता है कि चौथा विश्वयुद्ध लाठी-भाटों से लड़ा जाएगा, अब इसका दोष हमारे सनातन राष्ट्र पर नहीं आना चाहिए. मुझे बार बार पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी का एक वाक्य हॉन्ट करता है, जिसमें उन्होंने मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने को डिजास्टरस यानि विनाशकारी कहा था. अब चूंकि मोदी जी लोकप्रिय प्रधानमंत्री बन चुके हैं, वे काग्रेस पार्टी के लिए जरूर डिजास्टरस साबित हो चुके हैं, पर राष्ट्र तथा यहाँ बसने वाले निर्दोष नागरिकों के लिए किसी प्रकार से भी डिजास्टरस ना हो, ऐसी कामना है.
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सोमवार, 3 नवंबर 2014

टापू

महावीर नगर (प्रथम), कोटा, राजस्थान में बजरंगबली का मंदिर तथा बजरंग व्यायामशाला एक अच्छे बड़े दूबाच्छादित पार्क में स्थित हैं. इसमें बड़े छायादार पेड़ हैं. पार्क के किनारे पर जगह जगह बैठने के लिए बैंच लगाई गयी हैं. बच्चों के लिए झूले डाले गए हैं. चौहद्दी में अन्दर की तरफ घूमने के लिए चौकोर पथ बनाया गया है, जिसमें पक्की टाईल्स बिछाई गयी हैं. इस पार्क की नगर निगम कोटा द्वारा देखरेख की जाती है. मंदिर में भजन कीर्तन होते रहते हैं, घन्टियां बजती हैं, जीवन की आपाधापी के बीच ये सुन्दर मनभावन परिदृश्य बहुत सुकून देता है. मैं पिछले दस-बारह सालों से जाड़ों में जब भी कोटा अपने बच्चों के पास आता रहा हूँ तो आधा-एक घंटा इस पार्क में घूमने व विश्राम करने में बिताया करता हूँ.

इस बार घूमते हुए मैंने देखा कि एक अफ्रीकी नस्ल का सा व्यक्ति रोज नियमित रूप से आकर एक बैंच पर निर्विकार बैठा रहता है और घूमने वाले लोगों को बड़े गौर से घूरता रहता है. पिछले सप्ताह वह नित्य मुझसे हर राउंड पर आँखें चार करता रहा. कल वह गैरहाजिर था. थकान मिटाने के लिए मैं उसकी वाली बैंच पर पत्नी सहित बैठ गया, और खेलते हुए बच्चों का तमाशा देखने लगा. थोड़ी देर बाद वह अजनबी भी आकर उसी बैंच पर बैठने के लिए हमारे सामने खड़ा हो गया. मैंने खिसक कर उसके लिए जगह बनाई और अपने स्वभाव के अनुसार उससे परिचय प्राप्त करने की पहल गुड ईवनिंग कह कर की. इसके जवाब में उसने भी गुड ईवनिंग कहा और मुस्कुराते हुए मेरी तरफ मुंह किया तो मैंने देखा उसने राख का दक्षिण भारतीय स्टाईल का लिंगायाती टीका माथे पर लगाया हुआ था. मुझे अपनी गलती का तुरंत अहसास हो गया कि ये सज्जन अफ्रीकी कदापि नहीं हैं. मैंने मेलजोल बढ़ाने के लिए उससे हिन्दी में बातचीत शुरू की तो पाया उसकी हिन्दी में हल्का दक्षिण भारतीय लहजा जरूर था, पर वह साफ़ साफ़ हिन्दी बोल रहा था. मैंने खोद खोद कर उससे उसके बारे में पूछ डाला और वह एक अच्छे अनुशासित बच्चे की अपनी राम कहानी सुनाता रहा. उसने जो भी कहा मैं अपने शब्दों में लिख रहा हूँ.   

मेरा नाम टापूमुत्थूकृष्णन है. आप मुझे सिर्फ टापू कह सकते हैं. मैं तमिलनाडु का रहने वाला हूँ. यहाँ राजस्थान विद्युत निगम में मैं सुपरवाईजर था. अब रिटायर हो चुका हूँ. मैंने यहाँ महावीर नगर प्रथम में बीस साल पहले एक जमीन का प्लॉट खरीदा और मकान बना लिया था. मैं विद्युत निगम में काम करने के लिए अपने गाँव के आसपास से 25 और आदमियों को भी साथ लेकर आया था, लेकिन वे सब धीरे धीरे सबके सब यहाँ से चले गए हैं. कोटा में मेरे अलावा तमिल लोग बहुत से होंगे लेकिन मेरा किसी से संपर्क नहीं है. मैं किसी तमिल सोसाइटी या संगठन से भी जुड़ा हुआ नहीं हूँ. यहाँ मेरे परिवार में हम तीन लोग हैं, मैं, मेरी पत्नी और हमारा एक बेटा. हमारा बेटा एक फैक्ट्री में इंजीनियर है. मैं साल-दो साल में तमिलनाडु अपने सगे लोगों से मिलाने जाया करता हूँ. रास्ता बड़ा लंबा है, पूरे ३० घंटे लगते हैं. इस बार मैं काफी दिनों तक साउथ में रहा. बेटे के लिए बहू की तलाश करता रहा. उसकी उम्र ३५ से ऊपर हो चुकी है. मैं उसकी शादी नहीं करा सका क्योंकि अपनी जाति में कहीं रिश्ता बन ही नहीं पाया. जहां भी बात होती है, बाद में बिगड़ जाती है क्योंकि कोई भी अपनी लड़की को इतनी दूर नहीं भेजना चाहता. मैं बहुत दु:खी हूँ. आज मैं सोचता हूँ कि मैंने इतनी दूर आकर नौकरी की और यहीं घर बना लिया, ये बड़ी गलती थी. मुझे यहाँ से चले जाना चाहिए था. कहते हुए उसकी आँखें डबाडब भर आई.

मैंने उसे सांत्वना देते हुए बात बदलने की कोशिश की. मैंने उसको बताया कि मैं उसे नाईजीरियन समझ रहा था. मुझे कन्नड़ भाषा के लगभग एक सौ शब्द आते हैं (जो कि मैंने पिछले सत्तर के दशक में अपने कर्नाटक प्रवास में सीखे थे) टापू को भी मामूली कन्नड़ समझ में आती है. वह बात करते हुए मेरे और निकट खिसक आया. उसने बताया कि उसकी रसोई में दाल, रोटी. सब्जी ही बनती है, इडली, डोसा, साम्भर आदि साउथ-इन्डियन खाना कभी कभी बन पाता है. "अड़ोस-पड़ोस में पंजाबी या जैन लोगों के घर हैं. हम लोग उनमें मिक्स नहीं हो पाए हैं. उसने बड़ी मासूमियत से बताया कि वह ज्यादा पढ़ा लिखा भी नहीं है और जिन्दगी के इस मुकाम पर बिलकुल अलग थलग पड़ा हुआ है. त्रिची वापस जाना चाहता है, जहाँ गोदावरी नदी के किनारे उसका गाँव है, लेकिन बेटा वहां जाना पसंद नहीं करता है. उसका बचपन राजस्थान में बीता और यहीं पढ़ाई-लिखाई हुई तथा यहीं नौकरी भी लग गयी. उसको यहीं अच्छा लगता है. मैंने टापू को सलाह दी कि बेटे की शादी यहीं किसी उत्तर भारतीय लड़की से करा दे, आजकल अंतरजातीय विवाह बहुतायत में हो रहे हैं. समय बदल गया है. इसके अनुसार चलने की कोशिश करो. अखबार में मैट्रीमोनियल द्वारा बहुत रिश्ते आ जायेंगे. तुम्हारे घर में किलकारियां और खुशियाँ अपनेआप आ जायेंगी. वह बोला, मेरा बेटा भी मेरी तरह पक्के रंग का है, इसलिए यहाँ की लड़किया उसे पसंद नहीं करेंगी. मैंने उसे बताया कि दुनिया की एक तिहाई आबादी पक्के रंग की है. तुम इस काले-गोरे वाली मानसिकता से बाहर निकलो. ये रंगरूप तो भगवान ने दिया है. इसके बारे में ज्यादा मत सोचा करो. तुम लम्बी छुट्टी दिलवाकर बेटे को तमिलनाडु ले जाओ कोई ना कोई रिश्ता सजातीय भी मिल जाएगा. मेरी बातों से उसे जरूर सांत्वना मिली होगी. वह बोला, मैं कल अपने बेटे को भी आपसे मिलाने के लिए लाऊंगा। आप उसे समझा देना.

ये नौकरीपेशा लोगों की दूर निर्वासन की पीड़ा सिर्फ इस अकेले की नहीं होगी. ऐसे बहुत से परिवार होंगे, जो ऐसी ही त्रासदी से जूझ रहे होंगे. यहाँ टापू अपने नाम को पूर्णतया सार्थक कर रहा है.
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मंगलवार, 28 अक्टूबर 2014

चरित्र

विश्व में जितनी भी चल या अचल चीजें हैं, उन सबका अपना अपना चरित्र होता है, जैसे मिर्च का चरित्र है- तीखा-चरपरापन, गुड़ का चरित्र है मिठास, सूर्य का चरित्र है गर्मी और प्रकाश. इसी तरह हर वस्तु का अपना एक विशिष्ठ धर्म होता है, जिसे हम उसका चरित्र कहा करते हैं. लेकिन हम मनुष्यों का सामाजिक व्यवहार हमारा चरित्र कहलाता है. व्यक्ति को, परिवार को या समाज को मर्यादित व अनुशासित रखने के लिए देश, काल व परिस्थितियों के अनुसार कुछ मान्य सिद्धांत बने हुए हैं, जिनका पालन करने वाले को चरित्रवान तथा पालन ना करने वाले को चरित्रहीन कहा जाता है.

शिक्षा चाहे घर में हो या पाठशालाओं में, उसका उद्देश्य यही रहता है कि बच्चे चरित्रवान बनें. अच्छा होने की चाहत सभी लोग रखते हैं इसीलिये बच्चों को छुटपन से ही बहुत से उपदेश पढ़ाये जाते हैं, जैसे सदा सच बोलो, चोरी मत करो,’ परनिंदा मत करो, दीन-दुखियों की मदद किया करो, अपने बड़े-बूढों का आदर किया करो, आदि, आदि. इस प्रकार की नैतिक शिक्षा से बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास में भी बहुत मदद मिलती है.

दुनिया के इतिहास में जितने महान लोग अब तक हुए हैं, उन्होंने समाज को अच्छी राहें दिखाई हैं. एक महापुरुष ने कहा है, मैं अपने आपसे प्यार करता हूँ और अपनी इज्जत करता हूँ, साथ ही मैं अन्य लोगों से भी इसी तरह व्यवहार करता हूँ.

दूसरे शब्दों में, "आप दूसरे लोगों से अपने लिए जैसे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं, खुद भी सबके साथ वैसा ही व्यवहार किया करो." इसका उल्लेख सभी धर्मों एवं संस्कृतियों में मिलता है. इसे golden rule भी कहा जाता वह है. बच्चों, आप पढ़ लिख कर कुछ भी बनो, पर आपमें अच्छे इंसान का चरित्र होना चाहिये.
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शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

किशोरों के नाम

प्यारे बच्चों,
कहते हैं कि मुग़ल काल के उर्दू-फारसी के महान शायर मिर्जा ग़ालिब बड़े मनमौजी किस्म के आदमी थे. एक बार उनको एक बार किसी शाही दावत का निमंत्रण मिला तो वे, यों ही, अपने साधारण लिबास में पहुँच गए, लेकिन द्वारपाल ने उनको ठीक से पहचाना नहीं तथा उनके पुराने, मैले से कपड़ों पर टिप्पणी करते हुए अन्दर घुसने की इजाजत नहीं दी. घर आकर मिर्जा ने अपनी सबसे अच्छी पोशाक पहनी और बड़े ठाठ से फिर पहुँच गए. इस बार उनके चमकते-दमकते लिबास को देखकर किसी भी दरबान ने उनको नहीं रोका. दावत के दस्तरखान पर जब खाना शुरू हुआ तो मिर्जा ग़ालिब ने शाही पकवानों को अपने कपड़ों पर चुपड़ना शुरू कर दिया. यह देखकर बादशाह सलामत तथा अन्य दरबारी आश्चर्य करने लगे. पूछने पर मिर्जा ने बताया कि ऐसा लगता है कि मुझसे ज्यादा इन कपड़ों की इज्जत है. इसलिए इनको पहले खाना खिला रहा हूँ. जब बात सबकी समझ में आई तो उनकी विद्वता की सराहना करते हुए माफी मांग ली गयी.

गांधीवादी ट्रेड यूनियन लीडर स्वर्गीय जी. रामानुजम ने अपनी पुस्तक द थर्ड पार्टी में मजदूर नेताओं को नसीहत देते हुए एक जगह लिखा है कि "प्रबंधको से बातचीत या बार्गेनिंग करते समय संयत भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए. पहनावा साफ़ सुथरा व सभ्य जनों का सा होना चाहिए". उन्होंने इस बाबत उदाहरण के तौर पर बताया है कि अगर कोई लड़का मैले कुचैले कपड़े पहन कर रूपये के छुट्टे लेने पान की दूकान पर जाता है तो पनवाड़ी छुट्टा होते हुए भी कह देता है छुट्टा नहीं हैं और अगर वह साफ़ सुथरा अच्छे कपड़े पहने होता है तो पनवाड़ी बगल वाली दूकान से मांग कर भी लेकर देता है.

इस बारे में स्वामी विवेकानंद जी का अमरीकी लड़कों से हुआ वर्तालाप भी समझने और स्वीकारने योग्य है कि जब उन लड़कों ने स्वामी जी को लम्बे चौड़े गेरुवे लबादे में देखा तो वे खिल्ली उड़ाने लगे पर स्वामी जी महान दार्शनिक व विद्वान थे. उन्होंने उत्तर दिया कि “In your country a tailor makes a man perfect, but in my country character makes a man perfect.” स्वामी जी की पोशाक भारतीय परिवेश में बहुत पवित्र और ग्राह्य थी. उन्होंने चरित्र की पवित्रता को बहुत सुंदर तरीके से समझा दिया. सब लोग उनके कायल हो गए. वहां की धर्म संसद में भी उन्होंने हमारे सनातन धर्म की जो व्याख्या की वह ऐतिहासिक दस्तावेज है. 

कुल सारांश यह है कि साफ सुथरी व अच्छी वेशभूषा के साथ साथ साथ चरित्रवान भी होना चाहिए. ये चरित्र क्या होता है? इसके अच्छे-बुरे होने के बारे में अपने अगले ब्लॉग में लिखूंगा.
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सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

चुहुल - ६७

(१)
लड़की देखने के लिए बेटे सहित माता-पिता लड़की के घर गए. जैसा कि आजकल आम रिवाज हो गया है लड़का-लड़की को एक दूसरे को समझने व बातचीत करने के लिए अलग कमरे में बैठा दिया गया. दोनों ही बड़े शर्मीले थे. बहुत देर तक कोई बातचीत नहीं हुई. लड़की ने पहल की और पूछ लिया, आप कितने भाई-बहन हैं? लड़का कुछ सोच कर बोला, अभी तक तो हम तीन हैं, अगर तुम आ जाओगी तो फिर चार हो जायेंगे.

(२)
एक शर्मीला दामाद लम्बी छुट्टी लेकर अपने शहर से अपने ससुराल के गाँव गया. सासू जी ने पांच दिनों तक सुबह-शाम पालक की हरी सब्जी से स्वागत किया क्योंकि उसकी मान्यता थी कि शहर में लौह एवं विटामिन युक्त ताजे पालक की उपलब्धता नहीं होती है. छठे दिन दामाद ने शर्माते हुए कह ही डाला, माता जी, आपका पालक का खेत कहाँ है मुझको बता दीजिये, वहीं जाकर चर आऊंगा.

(३)
बच्चों को पता चल गया कि कल पापा पड़ोस में रहने वाली आंटी के साथ इमरान हाशमी की फिल्म के मैटनी शो देखने गए थे. गुड्डू ने चुपके से मम्मी को ये खबर दे दी. मम्मी तो अन्दर ही अन्दर जल भुन गयी, सीधे जाकर पति से पूछने लगी, क्यों जी, कल आप उस चुड़ैल के साथ मैटनी शो देखने गए थे?
पति शातिराना अंदाज में बोला, हाँ, क्योंकि वह फिल्म परिवार के साथ देखने लायक नहीं है.

(४)
शहर में वायरल फीवर फैला हुआ था. एक डॉक्टर के क्लीनिक के दरवाजे पर सुबह सुबह लम्बी लाइन लग गयी. एक व्यक्ति लाइन से आगे जाने का प्रयास करने लगा तो लोगों ने उसे पीछे खींच लिया घुसने नहीं दिया. जब दो तीन बार ऐसा हो गया तो वह गुस्से से बोला, ठीक है, तुम लोग लाइन में लगे रहो, मैं आज क्लीनिक खोलूंगा ही नहीं. वह खुद डॉक्टर था.

(५)
एक बूढ़ी औरत फिल्म देख रही थी. हर दो चार मिनट के बाद वह कोल्ड ड्रिंक के कैन को बार बार मुंह पर ले जा रही थी. बगल में बैठे एक चुलबुले लड़के को शरारत सूझी, बोला, अम्मा, इतनी देर में तो आपका ये ड्रिंक गर्म हो गया होगा. इसकी सब गैस निकल गयी होगी. इसे ऐसे पीना चाहिए," ये कहते हुए उसने कैन अपने मुंह में उड़ेल लिया.
अम्मा बोली, अरे बेटा, ये क्या किया? इसमें कोल्ड ड्रिंक नहीं, मेरे पान की पीक थी.
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बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

बेटाराम

डार्विन के विकास के सिद्धांत को यों ही मान्यता नहीं मिली है. उसमें तमाम व्यवहारिक व वैज्ञानिक तथ्य हैं. ये प्राणीमात्र, ये समाज, और ये दुनिया पल पल बदलते रहे हैं. मनुष्य बन्दर से आदमी, जंगली से सभ्य मानव होते गए, यद्यपि मूलभूत गुणावगुण साथ चलते रहे हैं.

कहानी का नायक श्यामू, जो अब सम्मानीय रिटायर्ड वरिष्ठ नागरिक है, गाजियाबाद में आबाद है. पिछली शताब्दी के छठे दशक में रोजगार की तलाश में सुदूर पिथौरागढ़ के पास एक अति पिछड़े गाँव भट्टराई (तब पिथौरागढ़ अविभाजित अल्मोड़ा जिले का ही भाग था) से दिल्ली आया. दरअसल आजादी के बाद नई दिल्ली के सरकारी दफ्तरों व उनसे सम्बंधित गैर सरकारी दफ्तरों में उन दिनों नौकरियों की बहार आई थी. उसमें शीर्ष पद तो दक्षिण भारतीय या बंगाली बाबू ले उड़े क्योंकि उनको अच्छी अंग्रेजी आती थी. छोटे चपरासी, दफ्तरीयों, चौकीदारों-फराशों के लिए यू.पी., बिहार, या दिल्ली के आसपास के लड़के दरियागंज स्थित रोजगार दफ्तर के माध्यम से घुसने लगे. इन नौकरियों के प्रति आकर्षण ठीक वैसा ही था जैसा बाद में आई.टी. सैक्टर वाले लड़कों का हैदराबाद/बैंगलूरू की तरफ, और बाद में यूनाइटेड स्टेट्स की तरफ चला गया.

श्यामबल्लभ भट्टराई अपने गाँव के ही नामी चाचा प्रकाश भट्टराई के भरोसे दिल्ली युसूफ सराय पहुँच गया, जहां प्रकाश भट्टराई अपनी पत्नी व छोटी बेटियों के साथ एक झुग्गी-झोपड़े में रहता था. श्यामबल्लभ ने उसी साल थर्ड डिविजन में यू.पी बोर्ड से हाईस्कूल पास किया था. प्रकाश भट्टराई उसका सगा चाचा तो नहीं था, लेकिन गाँव में उसकी बड़ी हांम थी. वह कुछ वर्षों पहले दिल्ली आकर मालामाल हो गया था. उसे निर्माणाधीन आल इंडिया मेडीकल इंस्टिट्यूट में रात की चौकीदारी जो मिल गयी थी. रात में वह सीमेंट, लोहा-लक्कड़ का पूरा मालिक हो जाता था. चोर-कबाड़ी लोग व्यवस्था की कमजोर कड़ी ढूंढ ही लेते हैं. इस प्रकार उसने खूब रुपये कमाए. दुनिया को बताने के लिए उसने दिन में अपना एक चाय का खोमचा भी खोल रखा था. वैसे तब दौर समाजवादी आर्थिक क्रान्ति का चल रहा था, उसे तब भ्रष्टाचार नाम नहीं मिला था. कहते हैं कि पंजाब के कुछ असंतुष्ट नेताओं ने जब प्रधानमंत्री नेहरू जी से मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरो के बारे में गंभीर शिकायतें की तो उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज में लेकर कहा, "देश की दौलत देश में ही तो है.

प्रकाश भट्टराई जब भी पहाड़ अपने गाँव जाता था तो उसके साथ बहुत मालमत्ता होता था, उसके ठाट निराले होते थे. वह शाल-दुशाले में रहता था. गाँव में वह आदरणीय तथा आदर्श बन गया. वह जरूरतमंदों को आर्थिक मदद देकर उपकृत भी करता था इसलिए चंद वर्षों में उसका असली नाम नेपथ्य में चला गया और सेठजी के नाम से जाने जाना लगा.

श्यामू जब सेठजी के पास पहुंचा तो उन्होंने पहले तो उसे खूब अपनापन जताया. बेटाराम संबोधन से पुकारने लगे, पर धीरे धीरे आश्रय देने के एवज में रसोई के काम में चाची का हाथ बंटाने व जूठे बर्तन साफ़ करने की आवश्यक जिम्मेदारी से भी नवाज दिया. तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि पराधीन सपनेहु सुख नाही वह जो सपने संजो कर सेठजी के पास आया था, वे सब बिखर गए. सेठजी उससे काम कराने के लिए पुचकारते हुए बेटाराम तो पुकारते थे, पर श्यामू इसे आतंक के रूप में महसूस करने लगा था. फिर भी एक काम अच्छा यह हो गया कि श्यामू ने दरियागंज स्थित एम्प्लायमेंट एक्सचेंज में अपना नाम दर्ज करवा लिया.

श्यामू का मन दिल्ली से भाग जाने को करने लगा था. जाने से पहले वह एक बार रोजगार दफ्तर की तरफ पूछताछ के लिए गया, जहाँ अचानक उसे अपने स्कूल का पूर्वपरिचित, धर्मानंद नामक लड़का, मिल गया. धर्मानंद एक सरदार जी के घरेलू नौकर के बतौर काम करता था. उससे मिलकर श्यामू को ऐसा लगा कि जैसे किसी ने अँधेरे बीहड़ में उसका हाथ थाम लिया हो. धर्मा ने सरदार जी से उसका परिचय कराया तथा कोई काम दिलाने का निवेदन भी कर डाला. सरदार जी एक बन्दर एक्सपोर्ट कंपनी चलाते था. देश के कई भागों से बन्दर पकड़ कर पिंजरों में दिल्ली लाये जाते थे फिर उनको गंतव्य की और भेजा जाता था. सरदार जी ने श्यामू को दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर बन्दर गिनने व पिंजरे सँभालने का जिम्मा दे दिया. करीब एक साल तक बन्दर संभाल करते हुए श्यामू खुद भी बन्दर सा हो चला था, पर उसकी किस्मत ने ऐसी पलटी मारी कि उसे एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज से मेडीकल इंस्टीट्यूट में ही अटेंडेंट की नौकरी का परवाना मिल गया.

जब श्यामबल्लभ भट्टराई सरकारी नौकर हो गया तो उसने नए परिवेश में साथियों की देखादेखी अंग्रेजी टाईप-राईटिंग सीखनी शुरू दी. तीन साल बाद उसे अपनी योग्यतानुसार एल.डी.सी. टाईपिस्ट का प्रमोशन भी मिल गया. वह बाबू हो गया. जब संस्थान का विस्तार हुआ और विभागों का पुनर्गठन हुआ तो सेठजी चपरासी बन कर श्यामबल्लभ भट्टराई के विभाग में ही आ गया. अगले दस वर्षों के अंतराल में श्यामबल्लभ भट्टराई पहले सेक्शन इंचार्ज और बाद में एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफीसर बना दिया गया.
   
चोर चोरी करना छोड़ दे तो भी हेराफेरी से बाज नहीं आता है. अपने सेवाकाल के आख़िरी दिनों में प्रकाश भट्टराई ने कार्यालय के कबाड़े के साथ दो टाईपराईटर भी चोरी के साथ बेच डाले. बात पकड़ में आ गयी और ऊपर तक रिपोर्ट पहुँच गयी. वह सस्पेंड कर दिया गया. अब तो प्रकाश अपने बेटाराम को साहब-साहब पुकारते हुए पगचम्पी की जुगत में रहने लगा, लेकिन मामला बेटाराम के वश से बाहर हो चला था. केस लंबा चला, जैसा कि आम सरकारी कर्मचारियों के मामले में होता है. इन्क्वायरी की फाईल से कुछ जरूरी सबूत गायब हो गए. और सबूतों के अभाव में प्रकाश भट्टराई बाद में बरी कर दिया गया.करनी किसी की भी हो सकती थी पर लोग बातें करते रहे कि आखिरकार बेटाराम ही शायद सेठजी का तारणहार रहा होगा.
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मंगलवार, 16 सितंबर 2014

स्टोन माउन्टेन

हमारी ये दुनिया अनेक अजूबों से भरी पड़ी है. अमेरिका (यूनाइटेड स्टेट्स) के जॉर्जिया प्रांत में अटलांटा शहर के बगल में डीकाल्ब काउंटी में एक एक ही पत्थर से बना एक विशाल पहाड़ है, जो स्टोन माउन्टेन के नाम से प्रसिद्ध है. सन 1996 के ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेल इसके नजदीक ही हुए थे.
स्टोन माउन्टेन (सौजन्य विकीमीडिआ ) 
किसी विशिष्ट जगह को सँवार कर दर्शनीय बनाने की कला में अमेरीकी लोग माहिर हैं. ये पहाड़ पांच मील के घेरे में 1668 फीट ऊंचा है. स्टोन माउन्टेन (इसे पहले रॉक माउन्टेन भी कहा जाता था) की बस्ती को स्टोन माउन्टेन सिटी' के नाम से जाना जाता है, जो की अटलांटा-अगस्टा के पुराने मार्ग पर स्थित है. इस बस्ती की वर्तमान आबादी लगभग 6000 बताई जाती है. इसका पुराना इतिहास बताता है कि आदिवासियों का ये गाँव 1864 के युद्ध में पूरी तरह उजड़ गया था. बाद में सन 1915 में इसे पुन: बसाया गया.

हर सप्ताहांत स्टोन माउन्टेन के सामने बनी हुयी लम्बी-चौड़ी दीर्घा पर सैलानियों, दर्शकों, विशेषकर बच्चों की भारी भीड़ रहती है. ग्रेनाईट के इस पहाड़ पर काट कर एक बड़ा सा चौकोर स्क्रीन बनाया गया है जिस पर तीन घुड़सवार योद्धाओं की आकृतियां नायाब कारीगरी से बनाई गयी हैं. शाम होते ही इस स्क्रीन पर डेढ़ घटे का लेजर शो होता है. हजारों की संख्या में लोग हरी दूब पर बैठकर या लेटकर इसका आनंद लिया करते हैं. इससे पहले, दिन में हाइकिंग करके या रोप-वे द्वारा पहाड़ के शीर्ष पर जाकर चारों ओर के मनोहारी दृश्य देखे जाते हैं. शीर्ष पर रेस्टोरेंट व अन्य सुविधाएं मौजूद रहती हैं. वहाँ पर एक ब्रॉडकास्टिंग पॉइंट भी बना हुआ है.

नीचे शहर में क्लब, थ्री-डी थियेटर, गीत-संगीत गाते-बजाते कलाकारों-युक्त रेस्टोरेंट हैं. दुकानों में कलात्मक वस्तुऐं व बच्चों की मनभावन सभी चीजें उपलब्ध रहती हैं. तलहटी में विशाल पार्क है, ताल है, जहां रिवर-बोटिंग होती है. सबसे मजेदार है यहाँ का सत्रहवीं शताब्दी का रेलवे सिस्टम, जिसमें पुराने डिजाइन के भाप के इंजन एवं लकड़ी के डिब्बे हैं. रेलगाड़ी दर्शकों को लेकर पहाड़ के चारों और चक्कर काटकर मुख्य स्टेशन पर लौट आती है. रेल रूट पर घने जंगल व उनके बीच बीच में छोटे स्टेशनों पर नाचते गाते रंग बिरंगी पोशाकों में यात्रियों का स्वागत करते हुए कलाकारों को देखना अद्भुत अनुभव होता है. मुझे अपनी पत्नी सहित, अपने परम आदरणीय समधी जी (अब स्वर्गीय) एल.एम.जोशी जी, बेटी गिरिबाला, दामाद भुवन जी तथा नातिनी हिना के साथ सितम्बर 2006 में इस स्टोन माउन्टेन को देखने का सौभाग्य मिला था. हमारे साथ एक अन्य भारतीय परिवार भी था. ऐसा लगता है मानो कल ही की बात हो.
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