शनिवार, 3 मार्च 2012

नौली

नौली शब्द हिन्दी के नवेली का अपभ्रंश है. उत्तरांचल में रहने वालों के लिए इसका अर्थ ऐसी पत्नी से है, जो बिना किसी धार्मिक अनुष्ठान किये ही लाई गयी हो. वह अन्यत्र पहले से शादीशुदा भी हो सकती है, परित्यक्ता भी हो सकती है, या समय-समाज की मारी कोई विधवा. यद्यपि खुद को कुलीन बताने वाले ब्राह्मणों में ये प्रथा नहीं के बराबर रही है, पर सभी सर्वहारा खेतिहर ब्राह्मण, राजपूत, तथा दलितों में इस पर कोई हार्ड एण्ड फास्ट नियम क़ानून नहीं रहा है. ये आदिवासी पुरुष प्रधान पारंपरिक व्यवस्था भी समझी जा सकती है और समय की मांग भी.

कन्यालीकोट गाँव का खीमसिंह ऐसे ही एक नौली का बेटा था. नौली का बेटा होने के कारण उसे सामाजिक मर्यादाओं में रिश्तेदारी करने-कराने में अवश्य कम अंक मिलते होंगे पर यह कोई गंभीर समस्या न थी क्योंकि गाँव में और भी कई घर नौली औरतों से बसे हुए थे और सामान्य तौर पर ग्राह्य थे.

पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में अमीरी कन्यालीकोट जैसे तमाम पहाड़ी गाँवों में कोई हव्वा या चिन्तनीय विषय भी नहीं था क्योंकि सामान्यत: सभी ग्रामवासी गरीब व स्वावलम्बी थे. कोई प्रतिस्पर्धा भी दौलत के लिए नहीं होती थी.
१५ साल की उम्र में खीमसिंह की शादी कर दी गयी, और घर में एक किशोरी ब्वारी आ गयी. गाँव के लड़कों में १७-१८ साल का हो जाने पर फ़ौज में भर्ती होने का एक क्रेज होता था. बागेश्वर के उत्तरायणी के मेले का इन्तजार होता था जहाँ हर साल नए लड़के इस अवसर पर बिना घरवालों को बताए भर्ती हो जाया करते थे. सो खीमसिंह भी लाइन में लगा और पास होकर कुमाऊं रेजीमेंट के मुख्यालय, रानीखेत भेज दिया गया. उसकी रंगरूटी शुरू हो गयी. जो लड़के इस तरह घर से भाग कर फ़ौज में शामिल हो जाते थे, उनके घर वाले सुखी या दु:खी दोनों तरह से शंकित रहते थे. अगर बाद में ज़िंदा वापस आगया तो खुशियाँ ही खुशियाँ होती थी, यदि लड़ाई में मारा गया तो खाली तार से खबर आया करती थी तब रोना-धोना ही होता था.  धारणा थी कि सरकार इसी बात के लिए तो खिलाती-पिलाती है और पेंशन देती है कि देश पर कुर्बान रहो. आज की जैसी सामाजिक सुरक्षा तब फौजियों को प्राप्त नहीं थी.

इधर खीमसिंह की रंगरूटी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया. रंगरूटों को भी जापानी सैनिकों से लड़ने के लिए बर्मा के जगलों में भेज दिया गया, जहाँ सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फ़ौज जापानी सैनिकों के साथ मिलकर ब्रिटिश सेना से मुकाबला कर रही थी. इस लड़ाई में दोनों तरफ के सैकड़ों सैनिक मारे गए जापानियों का पक्ष भारी पड़ रहा था. बहुत से ब्रिटिश सैनिक बंदी बना लिए गए. जब तक विश्व युद्ध चला इन बंदियों को नहीं छोड़ा गया. बंदियों में से भी बहुत से अपने जख्मों के कारण मर गए, या बर्मा के जंगलों में मच्छरों के काटने से मलेरियाग्रस्त हो कर चल बसे.

खीमसिंह के घर कमांडर की तरफ से तार आया कि वह लापता है. लापता का मतलब होता था कि शायद ही ज़िंदा होगा. खीमसिंह अपने लगभग २०० साथियों के साथ एक कैम्प में ज़िंदा बचा रहा. कैदियों के साथ कैसा सलूक किया गया? कितना सताया गया? वह तो अकल्पनीय है क्योंकि तब वहाँ रेडक्रास या मानवाधिकार जैसी कोई निगरानी संस्था नहीं थी. जब बाद में मित्र देशों की सेना की तरफ से जापान के बड़े शहर हिरोशिमा तथा नागासाकी पर परमाणु बम डाल कर तबाह कर दिये गए, तब जापान ने हथियार डाल दिये. बचे हुए बंदी सैनिक बाद में छुड़ा लिए गए. जब खीमसिंह टक्करें खाते हुए गाँव लौटा तो माँ-बाप भाई-बहिन तो खुशी के मारे फूले नहीं समाये लेकिन खीमसिंह को ये सुनकर दारुण आघात लगा कि उसको मरा समझ कर उसकी पत्नी बगल के अनरसा गाँव में नौली बन कर चली गयी थी.


ये फौजियों की त्रासदी थी. खीमसिंह के गृहस्थी उजड़ गयी थी. माता-पिता, चाचा-ताऊ सबने सांत्वना दिलासा दी कि दूसरा ब्याह करा देंगे, "कोई नौली हम भी ले आयेंगे," पर खीमसिंह को लगा कि दूसरी भी इसी तरह उसकी अनुपस्थिति में चली गयी तो और बदनामी झेलनी पड़ेगी. वह अपने कमांड में लौट गया. उसकी मनोदशा बड़ी खराब रही. यहाँ तक कि अगले दो साल के अंतराल में जब उसके माता और पिता दोनों गुजरे तो वह पीपल-पानी तक में शामिल होने के लिए गाँव लौट कर नहीं आया. बाद में कई साल बाद आया भी तो बागेश्वर खोली गाँव में अपनी बहन के घर तक आकर लौट गया.

पेंशन हो जाने पर तो उसे आना ही पड़ा. ट्रेजरी अल्मोडा में सब कागजात बनवाए. पेंशन में सरकार ने १० रुपये मासिक अतिरिक्त इसलिए दिये कि वह जापानियों का बंदी रहा था. जब उन दस रुपयों की कैफियत उसे बताई गयी तो उसका मन हुआ कि उस पर हँसे या रोये?.

अल्मोड़ा में सोल्जर बोर्ड के कार्यालय में अन्य फ़ौजी भी जा रहे थे, वह भी गया. वहां उसे बताया गया कि सिविल में सरकारी उद्यमों के लिए वाचमैन की भर्ती होने जा रही है, तो खीमसिंह ने भी अपना नाम दे दिया. इस प्रकार वह मध्य प्रदेश के जबलपुर स्थित आर्डिनेंस फक्ट्री में सुरक्षा गार्ड तैनात हो गया.

कहानी का सुखान्त ऐसे हुआ कि उसकी बहन ने चिट्ठी लिख कर उसको बताया कि "उसके गाँव में एक आनंदी नाम की  विधवा औरत है, जिसको उसने नौली के लिए तैयार कर रखा है." भाई को उसने आग्रहपूर्वक लिखा था कि "आनंदी अच्छी औरत है. उसके जीवन में फिर से बहार ले आयेगी, जरूर आकर साथ ले जाये."

खीमसिंह एक सप्ताह की छुट्टी लेकर बागेश्वर आया. आनंदी को उसके पीहर वालों की स्वीकृति से अपना लिया और अपने जीवन के नए सोपान में पदार्पण करने के लिये आनंदी सहित जबलपुर आ गया. दोनों पति-पत्नी ने एक दूसरे पर भरोसा करते हुए सुख पूर्वक जीवनयापन किया. यहाँ किसी ने उसे नौली नाम से नहीं पुकारा. अब रिटायर होकर ८८ वर्षीय खीमसिंह, बीती बिसार कर, अपने नाती-पोतों सहित बागेश्वर, मंडल सेरा में घर बना कर रहते हैं.
                                       ***

7 टिप्‍पणियां:

  1. भाव पूर्ण , सत्य कथा सा , रोचक कथानक .... बधाई.
    आपको सपरिवार होली की शुभ कामनाएं.

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  2. चलो, अच्छा हुआ।
    अंत भला तो सब भला।

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  3. मित्रों, इस कहानी का आधार एक सत्य सामाजिक व ऐतिहासिक प्रसंग है.कहानी का नायक खीमसिंह कोई काल्पनिक चरित्र नहीं है.रविकर जी ने इसे चर्चामंच पर आगिम स्थान दिया है, ह्रदय से आभार.

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  4. It's a real life touching tale. i had forgotten this aspect of our Kumauni lifestories. it was good too in a way to provide support to women who would otherwise have been at the receiving end of a lonely life! very well written.

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  5. very well written, keep writing...waiting for the next one...

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