गुरुवार, 8 मार्च 2012

नारंगी बाई

महान सूफी संत कबीर ने एक दोहे में लिखा है:
     रंगी को नारंगी कहे, असल माल को खोया,
     दुनिया की ये उल्टी रीति, देख कबीरा रोया. 

जिस नारंगी बाई की ये कहानी है वह पूर्वी राजस्थान के एक देहात में पैदा हुई थी. पैदा होते समय उसके श्याम रंग रूप पर किसी का विशेष ध्यान नहीं था, पर वह ज्यों ज्यों बड़ी होती गयी उसका रंग रूप और काला होता गया, जबकि मातापिता दोनों ही उजले गेहुएँ रंग के थे.

प्रकृति के इस खेल को आज तक कोई ठीक से समझ नहीं पाया कि ऐसा क्यों होता है? कोई कहता है कि पुरानी पीढ़ी के जीन्स आने से ऐसा हुआ है और कोई कहता है कि जरूर इसकी महतारी ने काले कौवे अथवा काले कुत्ते की जूठन खाई होगी.

काली-गोरी चमड़ी के बारे में एक मजेदार तथ्य कुछ साल पहले सामने आया कि नेदरलैंड में एक गोरी दम्पति को काली संतान पैदा हुई तो आपस में विवाद हो गया, मामला तलाक की नौबत तक अदालत में पहुँच गया. इस विषय पर तहकीकात करने पर पाया गया कि वह महिला कभी भी काले लोगों के संपर्क में नहीं आई थी, लेकिन उसके बेडरूम में एक बेहद काली मानवाकृति कलाकृति थी जिसका बिम्ब उसके गर्भ पर पड़ना एक लौकिक चमत्कार था. इस बारे में ये दलील बहुत कारगर हुई कि अश्व-प्रजनन केन्द्रों पर जिस रंग का बछड़ा चाहिए होता है, उसी प्रकार का घोड़ा/घोड़ी गर्भाधान के समय घोड़ी के सामने बाँध दिया जाता है. ये प्राचीन प्रायोगिक सच है.

इस श्याम रंग बालिका को भी उदयपुर के नाथद्वारा वाले श्याम रंग श्रीनाथजी की मनोती से पाया गया था, और उन्हीं का बिम्ब आ जाने पर मनभर बाई और उसका पति रामकल्याण गूजर खुश हुए थे. बहरहाल स्याह काली लड़की को नाम दिया गया, नारंगी. वैसे राजस्थान के गाँव देहात में पुराने लोग बच्चों के नाम इसी तरह फल, फूल, या सब्जियों के नाम पर रख देते थे जैसे केला बाई, अनार बाई, पालक बाई, बादाम बाई, गुलाब बाई आदि. अब नए जमाने में तो लगभग सभी नाम फ़िल्मी होने लगे हैं.

कुछ लोग ये भी कहते हैं कि नाम में क्या रखा है? गुण होने चाहिए. विरोधाभासी नामों की लोग ठट्टा करते रहते हैं, पर सब लोग अपने बचपन के नाम को बदलने की सोच भी नहीं सकते हैं. जैसा कि अभी भी राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में शारदा ऐक्ट की धज्जियां उड़ाते हुए बहुत से नाबालिग बच्चों की शादी कर दी जाती है, ऐसे ही नारंगी के बाप ने उसकी शादी १० वर्ष की उम्र में सजातीय मोडूलाल गूजर से कर दी. जिसकी उम्र भी तब दस वर्ष ही थी. दरसल इस तरह की शादियाँ एक तरह से सगाई की रस्म जैसी हैं क्योंकि असल मे शादी तो गौने पर पूरी होती है, जो कि दुल्हा-दुल्हन के सयाने होने पर होता है. इन समाजों के लोगों का विचार है कि बाद में कुंवारे लड़के नहीं मिलते हैं. परिणाम यह होता है कि लड़कियां तो फ़टाफ़ट जवानी की दहलीज पर पहुँच जाती है और लड़के इतनी जल्दी गृहस्थाश्रम के लिए तैयार नहीं हो पाते हैं इसलिए अनेक आदिवासी अथवा दलित लड़कियां 'नाते चली जाती हैं. जोड़े बिगड़ जाते हैं तथा रिश्तेदारी के नए समीकरण बन जाते हैं. जाति पंचायतों द्वारा तय करके नाते ले जाने वालों को इसकी कीमत झगड़ा के नाम से चुकानी होती है. ये एक असामान्य सामाजिक प्रथा है.

१६ साल तक की उम्र तक गौना न होने पर नारंगी बाई भी आँन गाँव में नाते भेज दी गयी, लेकिन जिस घर में वह बहू बन कर गयी वह एकदम जाहिलों का परिवार निकला. दूल्हा भी शारीरिक रूप से विकलांग था. पहले ही दिन घर के लोग नारंगी बाई के रंग रूप पर फब्तियां कस् रहे थे. नारंगी को ये वातावरण असह्य सा लगा और रात में ही किसी को बिना बताए भाग कर मायके आ गयी, और फिर लौट कर कभी वहाँ नहीं गयी. राम कल्याण ने जो खर्चा-पर्चा लिया था सो वापस कर दिया.

इधर सरकार ने ग्रामीण इलाकों की औरतों व सयानी लडकियों के लिए प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चला रखा था, उसका असर हो रहा था. बहुत सी लड़कियां पढ़ने लगी थी. नारंगी बाई भी कक्षा आठ तक पढ़ गयी और ए.एन.एम (मिडवाईफरी) की ट्रेनिंग करके दूर बाड़मेर के इलाके में एक प्राइमरी हेल्थ सेंटर में कार्यरत हो गयी.

राजस्थान में पढ़ी-लिखी नर्सिंग स्टाफ में लडकियों की कमी रहने के कारण इस क्षेत्र में केरल व आन्ध्र से आने वाली नर्सों का वर्चस्व रहा है, जिनकी चमड़ी का रंग भी कमोवेश पक्का ही रहता है. नारंगी बाई का श्याम रंग इनके साथ मेल खा गया और उसकी स्थानीय पहचान कम हो गयी.

गत दो वर्ष पूर्व मरुस्थलीय इलाकों में मच्छरजन्य चिकनगुनिया व मस्तिष्क ज्वर की महामारियां चिंताजनक रूप से फ़ैली तो मेडीकल स्टाफ ने दिन रात जी जान से काम करके इससे निबटाने में प्रशंसनीय काम किया. जिन कर्मचारियों को राज्य सरकार ने इस विशिष्टता के लिए पुरस्कृत किया उनमें नारंगी बाई भी एक थी. अखबारों में नाम व फोटो छपे. पूरे प्रदेश में देखे व पढ़े गए.

मोडूलाल गूजर (नारंगी बाई का पहला पति) ने जब पूरा विवरण अखबार में पढ़ा तो वह स्तंभित रह गया. वह भी पढ़-लिख कर एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में अध्यापक हो गया था. पारिवारिक दबावों के बावजूद उसने पुनर्विवाह नहीं किया था. वह कई दिनों तक नारंगी बाई के बारे में सोच कर मानसिक उथल-पुथल से ग्रस्त रहा. फिर एक दिन वह एकाएक नारंगी बाई से मिलने बाड़मेर की तरफ चल पड़ा.

वह बाड़मेर जिले में उस स्वास्थ्य केन्द्र पर पहुँचा जहाँ नारंगी बाई नियुक्त थी. जब दोनों का आमना-सामना हुआ तो नारंगी बाई उसको नहीं पहचान पाई क्योंकि वह लंबे अंतराल के बाद मिला था. मोडूलाल अब गबरू जवान-मुच्छड़ हो गया था. मोडूलाल ने जब उसको बताया कि वह उससे मिलने बूंदी जिले से आया है, तो वह उसे स्टाफ रूम में ले गयी और आने का कारण पूछा. मोडूलाल झेंपते हुए बोला कि मैं मोडूलाल हूँ, तेरा पति. इसे सुन कर नारंगी बाई अवाक रह गयी. कमरे में सन्नाटा पसर गया. वे एक दूसरे का मुँह देखते रह गए. नारंगी बाई की आखें भर आई और जब वह मोडूलाल के पैर छूने के लिए झुकने लगी तो मोडूलाल ने उसको सम्हाल लिया. दोनों गले लग गए. नारंगी बाई इतनी भावुक हो गयी कि उसे रोना आ गया. स्टाफ के अन्य लोग इस हलचल पर जमा होने लगे. कमरे के नजारे को देख कर सब लोग अचंभित थे, लेकिन जब सबको ये मालूम हुआ कि आगंतुक नारंगी बाई का पति है तो माहौल बदल गया. सभी ने उनको दुबारा एक हो जाने पर बधाइयां दी. स्टाफ के एक चुलबुले ने हँसते हुए कह डाला, काले हैं तो क्या हुआ, दिलवाले हैं.” सभी लोग खिलखिला कर हँस पड़े.

बाद में कोशिश करके नारंगी बाई अपनी बदली करवा कर पति के पास बूंदी जिले में आ गई.
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