गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

शुभ आशीषें (माँ के पत्र -8)

                         आठवां पत्र

प्यारी बिटिया,
शुभ आशीषें.

इस बार तुम्हारे जाने के बाद घर बहुत खाली खाली लगने लगा है, पर तुम्हारे पापा ने जो मोबाइल फोन तुमको लेकर दिया है उससे जब चाहो बात हो जाती है इसलिए पत्र लिखने के लिए पहले जैसी अनिवार्यता नहीं रह गयी है. और फोन से बात करने के बाद ऐसा नहीं लग रहा है कि तुम घर से दूर हो. तुम्हारे दादा-दादी जी भी तुमको खूब याद करते रहते हैं. उनके आशीर्वाद भी सदा तुम्हारे साथ हैं. सचमुच वे बच्चे बहुत भाग्यशाली होते हैं, जिनको बुजुर्ग दादा-दादी, नाना-नानी का सानिध्य प्राप्त होता है. तुम्हारे नाना कहा करते हैं कि मूल धन से व्याज ज्यादा प्यारा होता है. यह बुजुर्गों की एक खूबसूरत मानसिकता है कि बच्चों को स्नेह व असीमित अपनापन देते हैं.

अपने देश में सामाजिक व्यवस्था में परिवार की इकाई को इतनी पूर्णता प्राप्त है कि बूढ़े, अशक्त या अपाहिज सभी के हितों की रक्षा होती है. परिवार के सुख-दु:ख व तमाम व्यवस्थाओं में सभी सदस्य किसी न किसी रूप में जुड़े हुए रहते हैं. वैज्ञानिक/मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखो तो हमारी ये सनातनी परम्परा सर्वोत्तम है.

पश्चिमी देशों में भौतिक संपदाओं के अधिक होने के वावजूद परिवार का स्वरूप बिलकुल भिन्न है, बूढ़े माता-पिता को उनके बच्चे केवल ‘Thanksgiving Day’ पर मिलने की जुर्रत समझते हैं. अपवाद भी हो सकते हैं, पर नगण्य. अधिकतर बुजुर्ग बृद्धाश्रमों में जाने को मजबूर होते हैं. अपने प्यार भरे संबंधों की हूक उन बुजुर्गों के मन में उठाती ही होगी जिन्होंने अपना बचपन दादा-दादी, नाना-नानी या चाचा-ताऊ की छाया में संयुक्त परिवारों में बिताया हो. जीवन की आपाधापी तथा भौतिकवाद के प्रभाव में अब हमारे देश के नगर/महानगरों में भी दिखने लगा है. इस विषय में अनेक समाजशास्त्री/विचारक अपने लेख, पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित करते रहते हैं.

हमारे रिश्तों में एक दूसरे के प्रति कितनी प्रतिबद्धता होनी चाहिए इसके लिए कहीं से उपदेश/आदेश की अपेक्षा नहीं होती है. अपने माता-पिता या सासससुर की सेवा का हमारा उत्तरदायित्व कोई कर्ज नहीं है, ये तो फर्ज है क्योंकि एक दिन सबको बुढ़ापा आना ही है. तुम्हारी नानी ने मुझे मेरे बचपन में एक कहानी सुनाई थी कि एक परिवार में जवान पति-पत्नी व पति के बूढ़े पिता तीन सदस्य रहते थे. पिता बीमार रहते थे, काफी निर्बल हो गए थे, जवानी में उन्होंने अच्छे दिन भी देखे थे, पर अब उनको लगने लगा कि बहू-बेटा उनकी उपेक्षा करने लगे हैं, तो वे स्वभाव से चिड़चिड़े हो गए और बात बात में बहू को अपशब्द भी कह जाते थे. स्थिति यहाँ तक बिगड़ गयी कि एक दिन बहू ने अपने पति से रोते हुए कहा कि बाबू जी बहुत दुर्व्यवहार करने लग गए हैं. मैं बरदाश्त नहीं कर पा रही हूँ. इस घर में या तो ये रहेंगे या मैं. बेटा भी बाप की ज्यादातियों का अनुभव कर रहा था, उससे पत्नी की आंसू देखे नहीं गए इसलिए बुड्ढे से छुटकारा पाने के लिए रिक्शे में बिठा कर शहर से बाहर दूर एक चबूतरे पर छोड़ कर वापस आने लगा तो बाप ने आखों में आंसू भर कर रूआंसे स्वर में बेटे को बताया कि मैं भी अपने बाप को इसी चबूतरे पर छोड़ कर गया था. बेटे को सद्-बुद्धि आई बाप को वापस घर ले आया और सामंजस्य बनाकर रहने लगे.

ये तो एक उपदेशात्मक कथानक है. वास्तव में हम जैसा व्यवहार अपने बुजुर्गों के साथ या परिवार के अन्य सदस्यों के साथ करते हैं, भावी पीढ़ी वैसे ही संस्कारित होती है. अत: बुजुर्गों का भरपूर सम्मान होना चाहिए.

एक टी.वी. चेनल पर मैंने देखा, एक मीटिंग में एक बुजुर्गवार कह रहे थे कि अपने बच्चों से हम केवल सम्मान चाहते हैं, स्नेह चाहते हैं और प्यार चाहते हैं हमें और कुछ नहीं चाहिए.

अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना. इस बार छुट्टियों में चाहो तो अपनी किसी सहेली को निमंत्रित करके यहाँ बुला लाना, पर उसके घर वालों से पूर्वानुमति जरूर ले लेना.

घर के सभी लोगों की शुभकामनायें.
तुम्हारी माँ.
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