मंगलवार, 6 सितंबर 2011

काला चरेऊ

आज कूर्मांचल (उत्तरांचल) के दूर-दराज, दुर्गम गाँवों तक विकास की ज्योति पहुंच रही है. गांवों में वायरलेस टेलीफून हो गए है. बहुत सारी पढ़ी-लिखी बहुओं के पास मोबाइल फोन भी आ गए है, जो अपने परदेसी पिया से जब चाहें बात कर लेती हैं. जंगल से गाज्यो (घास) लेने जाना हो, लकड़ियाँ लानी हो, पिरूल-सुतार लाने जाना हो या खेत में काम कर रही हो तो उनकी जेब में प्यार का यंत्र मोबाइल रहता है,.पर अब से कुछ दशक पहले तक हालात बिलकुल अलग थे. पहाड़ के लोकगीतों में उनके एकाकीपन व विरह की व्यथा जार-जार रोती सुनाई देती है.

बात कांडा के एक निकटवर्ती गाँव की बचुली दीदी की है, जिसकी शादी १० वर्ष की उम्र में सानीऊड्यार के एक गाँव  ककड़ीथल में हो गयी. उस वक्त उसके पति खीमानंद की उम्र १४ वर्ष थी. बच्चों को शादी का महत्व मालूम नहीं होता है, पर बुजुर्ग लोग अपनी जिम्मेदारी से जल्दी फारिग हो जाना चाहते है. दरसल बचुली के माँ-बाप दोनों ही उसकी शादी से पहले ही गुजर गए थे. चाचा-चाची ने ही सब रस्में निभाई. बचुली ४ मील दूर ससुराल की हो गयी. लेकिन उसका दुर्भाग्य वहाँ भी उसके ताक में बैठा था. दो साल बाद खीमा अचानक गायब हो गया. आसपास तलाश किया गया पर वह लापता हो गया.

गाँवों में बहुत सी बाल विधवाएं, जिनको पता होता है कि उनका पति मर चुका है, वे अपने सुहाग के चिन्ह काला चरेऊ (उत्तरांचल में बारीक काले मोतियों की माला मंगलसूत्र के रूप में सुहागनें अपने गले में पहनती है.) बिंदी-टिकुली सब हटा देती है, लेकिन बचुली का पति तो मरा नहीं था इसलिए उसने अपना काला चरेऊ पहने रखा. मायके में माई-बाप, भाई-बहिन कोई नहीं, ससुराल में पति नहीं; बालिका का जीवन अभिशाप से कम नहीं था. देवर के परिवार के साथ खेतिहर मजदूर की तरह काम करते हुए बचुली समय की मार सहते हुए ढलती गयी. जिसके जीवन में कोई उमंग न हो, प्यार की एक बूँद भी न हो, कोई लक्ष न हो; ऐसे अभागे लोगों में से एक बचुली दीदी अकेले में सुबक-सुबक कर रोती पर अन्य लोगों के सामने मुस्कुराती रहती थी, जवानी में बड़ी सुन्दर और सुडौल थी बचुली दीदी.

बहुत सी बाल विधवायें सन्यासिन (जिनको मात् कहा जाता है) बन जाती है. गेरुआ वस्त्रों में गाँव-गाँव भिक्षा मांग कर किसी मंदिर या कुटिया में जीवन काटती हैं, पर बचुली दीदी तो ऐसा भी नहीं कर सकती थी क्योंकि उसका सुहाग मरा नहीं था.

समय बड़ा बेरहम होता है, बचुली दीदी के ससुराल में पिछली पीढ़ी के सभी लोग स्वर्गवासी हो गए. उसके देवर के नाती-पोते उसे आमा कहकर पुकारते थे. आमा अब साठ के पार पहुँच चुकी थी. शरीर पर झुर्रियों व बेवाइयों का कब्जा हो चुका था. कान्ति या सौष्ठव नाम की कोई चीज नहीं बची थी.

एक दिन एक जटा-जूट बूढ़ा साधु गाँव में आया और बात परिचय बढाते-बढाते वह बोला कि वह खीमानंद है. एक अजीब सी स्थिति पैदा हो गयी. साधू को देखने के लिए पूरा गाँव उमड़ पड़ा. लेकिन साधु की पहचान करने वाला कोई नहीं था. बचुली आमा को जब यह समाचार मिला तो उसके बदन में एक झुरझुरी सी उठी. वह उस निष्ठुर व्यक्ति को देखने के लिए पहुँची जिसने उसकी जिंदगी वीरान-रेगिस्तान सी कर दी थी. लोग बचुली आमा का रिएक्सन देखना चाहते थे. बच्चे हँस रहे थे. एक बच्चा शरारतन बोला आमा ये देखो! ये बूबू है, पहचान इनको.

बचुली आमा के शरीर में कोई अदृश्य आत्मा आ गयी, वह देवी-देवताओं के डंगरिये की तरह नाचने लगी. नाचते हुए बोली खीमा तो बहुत पहले मर गया था. नाचते हुए उसने अपना काला चरेऊ तोड़ डाला, बिंदी निकाल फैकी और बेहोश हो गयी. लोगों ने पानी के छींटे डाले, मुँह में पानी डालने की कोशिश की लेकिन वह उठी नहीं, हमेशा के लिए सो गयी.
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