बुधवार, 7 सितंबर 2011

पक्षियों की भाषा (१९७१ मे लिखी मेरी रचना)

मेरी दादी निपट अनपढ़ थी, पर रामायण-महाभारत के तमाम दृष्टान्त उसको याद थे. उसने मुझको बहुत छुटपन में बताया था कि रामायण की कथा काकभुशुण्डि नाम के कौवे ने ऋषी-मुनियों को सुनाई थी और महाभारत की कथा शुकदेव (तोते) ने राजा परीक्षित को सुनाई थी. रामायण में गरुड़ से संबाद भी आता है; यानि पक्षी भी बोलते थे और अभी भी बोलते होंगे, पर उनसे हमारा संवाद नहीं हो पाता है. मैं ज्यों-ज्यों किशोरावस्था में आगे बढता जा रहा था मुझे पक्षियों के बोली-भाषा के प्रति उत्कंठा भी बढ़ती गयी. मैं ध्यान से चिड़ियों के चहचहाने व उनके तरह तरह की आवाजों को पढ़ने समझने की कोशिश करता था. उस समय मेरे पास टेप रिकार्डर होता तो मुझे बहुत सुविधा होती पर मेरे पास तब कुछ भी नहीं था.

मैंने घिनौड़े (गौरय्या) की चिप-चिप, घुघुते (फाखते) की घुघूति-विलाप, सीटेय्या (मैना) की चपड-चूं, कौवे का राग दरबारी, कबूतर का गुटरगूं, कोयल की कूक, तोतों की चीटर-चांट, कफ़्फू का काफल पाक्को, गढ़मोलिया का चीटर चूं, तीतर का राम तेरी कुदरत, कटकोरिया (बुलबुल) का टुपक-टुपक आदि सभी आवाजों को बड़े गौर से सुना लेकिन उनमें कहीं स्वर-व्यंजन या भाषा का जैसा आभास नहीं हुआ. हाँ भय अथवा प्रणय की मुद्रा में उनकी चीत्कारों या आवाजों में भेद होता था.

मैं अपने रिसर्च से संतुष्ट नहीं था. इस विषय की उत्कंठा मेरे मन में गहराई तक गढी हुई थी. आज की बात होती तो इस विषय की सैकड़ों पुस्तकें उलट कर पढ़ लेता, इंटरनेट पर गूगल करके दुनिया भर के पक्षियों के चित्र, उनके व्यवहार तथा बोली-भाषा के बारे में बिना ज्यादा मेहनत बहुत सारी जानकारी प्राप्त कर लेता. पर पिछली सदी के मध्य में मेरी बाल-बुद्धि को कोई इस तरह का साधन-सहारा नहीं था. राख में दबी-छुपी आग की तरह मेरी यह अतृप्त इच्छा पडी हुई थी. मैं जब कॉडा कालेज से निकल कर दिल्ली यूनीवर्सिटी में आया तो आर्ट्स फैकल्टी के अफ्रीकन स्टडीज के लाइब्रेरियन मेरे मित्र एस.डी. भट्ट ने एक अफ्रीकन स्टूडेंट कासिम मुगाबे से मेरी मुलाक़ात कराई जो कि किसी विषय में पीएच.डी. करने भारत आया था. मैंने जब उसको अपनी चिड़ियों की बोली-भाषा की जानकारी की चाहत बताई तो वह बहुत खुश हुआ. उसने बताया कि बचपन में वह भी इसी बीमारी से ग्रस्त था. उसने शुतुरमुर्ग, सारस, बत्तख, चील, बाज आदि कई पक्षियों की हूबहू आवाज निकाल कर दिल खुश कर दिया, पर मेरी समस्या का समाधान नहीं हुआ.

तब दिल्ली का नया चिड़िया-घर पुराने किले (कहते हैं कि यह पांडवों का किला था) के बगल में ताजा-ताजा बना था. मैं एक मित्र के साथ एक दिन वहाँ गया. मुझे मालूम हुआ कि वहाँ के डाइरेक्टर स्वर्गीय नारायण दत्त बचखेती जी कुमाउनी हैं, वे पुराने आई.एफ.एस.थे, बड़े सीनियर कंजरवेटर रहे थे. मैंने संकोच करते हुए भी उनसे मुलाक़ात की और अपनी बात एक वाक्य में कह डाली. वे पहले तो बहुत हँसे फिर बोले, बोली-भाषा केवल इंसानों को मिली नियामत है बाकी प्राणियों में यह सांकेतिक होती है. उन्होंने मुझे जानवरों व पक्षियों से सम्बंधित बहुत सा लिटरेचर व पिक्चर्स दिये. मैं बहुत खुश हुआ लेकिन मूल समस्या जहां की तहां खड़ी थी. मेरी धुन थी कि एक दिन मैं इसका सूत्र पा लूगा.

किताबों में मुझे पक्षी विशेषज्ञ सलीम अली साहब का एड्रेस मिल गया तो मैनें उनको डिटेल में सारी बात लिख डाली. मैं काफी दिनों तक प्रत्युत्तर की प्रतिक्षा करता रहा पर कोई पत्र उनकी तरफ से नहीं आया. शायद मेरे प्रश्न का उत्तर उनके पास भी नहीं था.

इस दौरान मैं ए.सी.सी. सीमेंट कंपनी में सर्विस में लग गया और सन १९७० में मेरा ट्रान्सफर कर्नाटक के उत्तरी जिले गुलबर्गा के शाहाबाद को हो गया. अभी भी मैं अपनी नियमित ड्यूटी के साथ अपने मिशन पर अडिग था. मेरे इस फितूर का एक दुष्परिणाम यह हुआ कि मुझे नींद में चलने की बीमारी हो गयी, जिसके कारण मैं और मेरे परिवार के लोग परेशान रहने लगे.

इसी समयावधि सन १९७१ में जब पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्ला देश) में पाकिस्तानी सेना के अत्याचार हो रहे थे और भारत ने शेख मुजीबुर्रहमान की मदद के लिए सेना भेजी तो पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों की खबर अखबारों व रेडियो पर बड़े जोर शोर के साथ आने लगे. हजारों औरतें, बच्चे व आम नागरिक मारे गए थे. लाखों लोग भाग कर भारत में शरणार्थी बन कर आ गए. मैं रेडियो सुनते-सुनते सो गया था.

कगीना नदी मेरे आवास से तीन किलोमीटर दूर थी. ना जाने मैं कैसे वहाँ पहुच गया? पूनम की चांदनी रात थी. पानी के पम्पिंग स्टेशन के पास एक बड़े से लसूडे के पेड़ के नीचे चबूतरे पर जाकर मैं लेट गया. मुझे दो प्राणियों की आपसी वार्तालाप साफ़ सुनाई दे रही थी. वे दोनों उसी पेड़ की डाल पर बतिया रहे थे. मैंने गौर से देखा तो जाना कि वे दोंनों गिद्ध थे.

एक गिद्ध बोला, यार पूर्वी पाकिस्तान से आया हूँ. वहाँ बहुत भोजन पड़ा हुआ है. खाते-खाते पेट खराब हो गया था.

दूसरा बोला, "मैं भी भाई वही था पर मुझे तो अब इंसान का माँस अच्छा नहीं लगता है. ये लोग अब इतने क्रूर और राक्षसी प्रबृति के हो गए हैं कि डर लगता है इनका माँस खा कर हम पर भी गलत असर न हो जाए.

पहला गिद्ध बोला, बात तुम्हारी सही है. मुझे भी इंसानों से घृणा हो गयी है. खून-खराबा, मार-धाड़ के अलावा ये प्यार की भाषा जानते ही नहीं हैं. इससे तो दूसरे जानवरों की भाषा ठीक है. बिना बोले ही समझ जाते हैं.

अचानक आवाज हुई. मेरी पत्नी ने मेरी चादर खींच डाली थी. वह बोली, अब तो आप नींद में बहुत बड़बड़ाने लग गए हो. उठो! सुबह के आठ बज चुके हैं. ड्यूटी नहीं जाना है क्या?

                                ***

1 टिप्पणी:

  1. इंसान सी भाषाशक्ति शायद ही किसी प्राणी में हो लेकिन असुरत्व में भी मानव की बराबरी कोई अन्य प्राणी नहींकर सकता

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