शनिवार, 24 सितंबर 2011

पोस्टमॉर्टम


अपने दोस्त तरुण सक्सेना का अन्तिम संस्कार करके उसके क्वाटर पर लौट आया हूँ. मैं उसके बेटे वरुण को अपने साथ ले गया था और अपने साये में ही उसे घर ले आया हूँ. कुछ रिश्तेदारों के अलावा स्टाफ के बहुत से लोग साथ थे और चिता जलने तक काफी लोग जमे रहे लेकिन धीरे-धीरे लोग खिसकते गए. हम आठ-दस जने पूरा जल जाने के बाद ही वापस चले.

वरुण बहुत उदास था. उसकी मन:स्थिति क्या रही होगी ये समझना आसान नहीं था. वह १० वर्ष का बालक पाचवीं कक्षा में पढता था. उसने इससे पहले मृत्यु को इतने करीब से कभी नहीं देखा था. श्मशान में लोग बातें कर रहे थे. कुछ लोग अपनी अपनी चर्चाओं में व्यस्त थे आपस में हँसने की आवाजें भी कई बार आ रही थी. वरुण बारबार मेरे मुँह की तरफ देख कर सिचुएशन पर मेरा रिएक्शन देखना चाहता था. मेरा रिएक्शन यही था कि मैं भी बहुत शोक संतप्त था क्योंकि तरुण को मैंने बहुत नजदीक से देखा व पहचाना था.

मैं उससे सर्व प्रथम मुम्बई चर्च गेट स्टेशन के सामने पश्चिम रेलवे के हेड क्वाटर बिल्डिंग में मिला था. हम दोनों नौकरी के इंटरव्यू के लिए वहाँ गए थे. वह सिविल इंजीनियरिंग का डिप्लोमा करके 'पी. डब्लू. आई'. के पद के लिये तथा मैं बी. ई. इलेट्रीकल कर के 'जे.ई.' पद के लिए आये थे. दोनों सलेक्ट हो गए और एक ही जगह गंगापुर जंक्शन पर हमारी पोस्टिंग हो गयी. रेलवे कालोनी में दोनों को घर भी अलाट हो गए पर हम दोनों मेरे क्वार्टर में ही रहते थे. तरुण खाना अच्छा बनाता था और मैं अच्छी गप मारता था. बहरहाल उसके और मेरे बीच अभिन्नता हो गयी. करीब दो वर्ष तक हम साथ-साथ रहे फिर दोनों की शादियाँ हो गयी तो थोड़ी दूरियां बन गयी. 


मेरी पत्नी मात्र हाईस्कूल तक पढ़ी थी, लेकिन तरुण की पत्नी एम्. ए. करके किसी प्रोफेसर के अंडर में पी.एच.डी. कर रही थी. उसे जल्दी ही सवाईमाधोपुर कालेज में लेक्चरर की नौकरी मिल भी गयी. अब जुगाड़ करके तरुण ने भी सवाईमाधोपुर में रेलवे क्वार्टर अलाट करवा लिया और वहीं शिफ्ट हो गया. उसका काम गंगापुर से कोटा के बीच रेलवे  ट्रेक की देख-रेख करना था जिसके लिए वह नित्य सुबह चार गैंगमैन साथ लेकर निकल जाता था इस कारण उसका मेरा मिलना जुलना बहुत कम हो गया.

तीन चार साल तक उनका सब ठीक ठाक चल रहा था. एक दिन अचानक श्रीमती ज्योति सक्सेना का ट्रांसफर टोंक शहर के डिग्री कालेज को हो गया. उसने ट्रासफर रुकवाने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुई.

इस प्रकार पति पत्नी दूर-दूर हो गए. सप्ताह में एक बार आना जाना होने लगा. वह मुझे एक दिन अचानक लाइन पर मिल गया तो मैंने पाया कि वह बहुत डिस्टर्ब था. उसने ज्यादे बात तो नहीं की पर मैं समझ गया कोई बड़ी बात हुई है अन्यथा वह हँसने-बोलने वाला आदमी दार्शनिक की तरह बातें कर रहा था जैसे जीवन के प्रति उसका मोह भंग हो गया हो.

इस बीच मेरा भी ट्रान्सफर मथुरा जंक्शन पर हो गया. अपनी गृहस्थी और ड्यूटी के चक्कर में समय नहीं निकाल पाया कि उसके हाल-चाल पूछ आऊँ. मुझे एक सहयोगी ने बताया कि तरुण और उसकी पत्नी के रिश्ते अच्छे नहीं चल रहे है. उसका एक लड़का भी हुआ पर उसने कोई दावत-जलसा भी नहीं किया. ज्योति सक्सेना पी.एच. डी. होने के बाद विभागाध्यक्ष बना दी गयी थी. बाद में मालूम पड़ा कि किसी प्रोफ़ेसर के साथ उसका उठाना-बैठना ज्यादा है. जिसके साथ कुछ आपत्तिजनक फोटो थे और वे तरुण को प्राप्त हो गए थे. ये अन्दर की बात उसके चपरासी ने गुपचुप तरीके से मुझे भी बताई थी. ये भी बताया कि इसी बात से परेशान होकर तरुण तांत्रिकों के चक्कर में पड गया है. उसके आठ अँगुलियों में अंगूठियों का राज तब मेरी समझ में आया. ये ऐसा नाजुक मामला था कि सीधे-सीधे बात करना खतरनाक था. अत: मैंने तरकीब से उसे कुरेदने की कोशिश की लेकिन वह खुला नहीं.

मुझे लगा कि उसको उसकी लम्बी तन्हाई खाए जा रही है और वह अंतर्मुखी और शक्की हो गया है. पर यह अनुमान नहीं था कि वह नुवान पीकर आत्महत्या जैसा कदम उठाएगा.

अब जब हम उसके पार्थिव शरीर को पोस्ट्मॉर्टम करवा कर अन्तिम संस्कार करके उसके क्वार्टर पर शोक संतप्त बैठे है तो आत्मह्त्या के कारणों पर खुसर-पुसर हो रही थी. चर्चाए तो लोगों के बीच पहले से रही होंगी पर खुल कर कोई नहीं बोल रहा था. उसकी पत्नी एकदम निढाल हो कर पडी थी. कुछ रिश्तेदार महिलायें भी आई हुई थी जो सम्हाल रही थी.

उसका उजाड़ घर अपनी सहमी और तिरस्कृत अवधि की कहानी मुँह बोल रही थी, घर का फर्नीचर बेरंग, दीवारें मैली और फर्श जैसे बरसों से साफ़ नहीं किया गया था. आनन्-फानन में टेंट हाउस से मगवाई गयी दरियां बिछाई गयी थी. मैं वहाँ रुकना नहीं चाहता था. देर शाम जब मैं वापस मथुरा को चलने को हुआ तो फार्मेलिटी के तौर पर श्रीमती सक्सेना के पास गया तो वह फूट-फूट कर रोने लगी. बोली, "भैय्या इनको इनके शक ने मार डाला प्रोफ़ेसर वर्मा मेरे राखीबंध भाई है. मैं बहुत सफाई इनको देती रही पर इनके दिमाग में जो कीड़ा घुस गया था वह निकाल नहीं सकी. मैं वरुण की कसम खा कर कहती हूँ कि मैंने तरुण के साथ कभी भी बेवफाई नहीं की. ये कहते हुए वह बेहोश सी हो गयी.

मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था. नम आँखों के साथ वरुण के माथे पर हाथ फेरता हुआ बाहर आ गया हूँ. मथुरा जाने वाली गाड़ी का सिगनल हो चुका था. 

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