गुरुवार, 8 अगस्त 2013

खुशी

(६ अगस्त को प्रकाशित कहानी दूरी से क्रमागत) 

मेरा नाम ‘खुशी’ मेरी दादी ने रखा था. अब तो मैं बड़ी हो गयी हूँ और मेरा पूरा नाम खुशी कांडपाल है. मैं सिद्धि एकेडेमी में दसवीं कक्षा में पढ़ती हूँ. मेरा छोटा भाई जय मुझसे दो साल छोटा है वह आठवीं में पढ़ता है. हमारी दादी बहुत प्यारी है. एकेडेमी के बच्चे उनको ‘बड़ी मैडम’ कहते हैं, पर पापा और मम्मी दोनों ही उनको माँ पुकारते हैं. दादी पहले टीचर थी और आज भी सबसे साफ़ सफाई और आनुशासन की ही बात करती रहती हैं. बच्चे उनसे डरते हैं. पर हम तो बिलकुल भी नहीं डरते क्योंकि जय और मैं तो दादी के लाड़ले हैं.

हमारे पापा इंजीनियर हैं और मम्मी प्रिंसिपल. ये दोनों हमेशा सुबह से शाम तक अपने कामों मे इतने व्यस्त रहते हैं कि केवल रविवार को ही हम साथ साथ रहते हैं. अन्यथा बाकी समय हम दादी के पल्लू से बंधे रहते हैं. गर्मियों की छुट्टियों में पापा और मम्मी हमको हर साल देशाटन कराते हैं. उस दौरान हम दादी से जब दूर रहते हैं तो उनकी बहुत याद आती है. जय तो कहता रहता है कि “हमारी दादी दुनिया की सब से अच्छी दादी है."

मेरे साथ की लड़कियां अपने ननिहाल और नानी की अकसर बातें किया करती हैं, पर मैं कभी भी अपने ननिहाल नहीं गयी. हमारे घर में ननिहाल के बारे में कोई चर्चा भी नहीं होती है. जब कोई नजदीकी रिश्तेदार हमारे घर आते हैं तो मम्मी को मैंने कई बार दबी जुबान से नानी के बारे में बातें करते हुए सुना है. ऐसा लगता है कि वह मुझसे इस बारे में कुछ छुपाना चाहती हैं. मैं समझती हूँ कि मम्मी ने जरूर वहां झगड़ा किया होगा क्योंकि वह अपनी आदत के अनुसार गुस्सैल है. वैसे मेरी मम्मी कभी भी गलत बात पर नहीं अड़ती है. इसीलिये एकेडेमी का पूरा स्टाफ उनका इतना आदर करता है. लेकिन सब लोग उनको कड़क मिजाज मानते हैं. पर मैं तो शैशव से उनके साथ रही हूँ. वह एकदम ‘स्नेहसिक्त माँ’ हैं. मैंने यद्यपि मम्मी को कभी खिलखिला कर हँसते हुए नहीं देखा, लेकिन उनकी आँखों में आंसू भी कभी नहीं देखे थे.

आज जब हम दोनों भाई-बहन घर आकर अपना अपना होमवर्क करने बैठे तो पापा ने अचानक आकर कहा, “चलो आज तुमको तुम्हारी नानी से मिलाकर लाते हैं.” ये सुन कर जय तो चहक उठा और मेरे मन में तो बहुत से प्रश्न पैदा हो गए. मैंने पापा से पूछा, “क्यों पापा, क्या बात हो गयी, आज तक तो आपने कभी हमसे नानी के बारे में कोई बात नहीं बताई है?”

पापा बोले, “बेटा, तुम्हारी नानी किसी पुरानी बात पर हमसे नाराज है. अभी बीमार पडी हैं, तो हमने सोचा है कि बीमारी का हालचाल पूछने के बहाने उनकी नाराजी दूर कर दी जाये. तुम लोग जल्दी से तैयार हो जाओ.”

पापा खुद गाड़ी ड्राइव करके ले गए. रास्ते में हम तो पिछली सीट पर बैठे थे. आगे पापा और मम्मी आपस में दबे स्वर में बतियाते रहे. मैं परी कहानियों की किसी बूढ़ी नानी की कल्पना करती हुई ना जाने क्या क्या सोचती रही थी. जय गुमसुम, लेकिन उत्कंठित होकर बैठा रहा.

लीलावती  कालोनी में नानी का अच्छा बड़ा घर है. हम लोग गाड़ी से उतर कर सीधे अन्दर चले गए. मेरे लिए तो ये पूरी तरह अनजानी जगह थी. दो तीन स्त्री-पुरुष इधर उधर आ जा रहे थे. घर में एक अजीब सी खामोशी थी. पापा और मम्मी भी सहमे सहमे से लग रहे थे. मम्मी ने एक महिला को अपना परिचय दिया. वह अन्दर गयी और थोड़ी देर मे लौट कर आई बोली, “आप लोग अन्दर चले जाओ.”

नानी अपने बड़े से बेडरूम में पलंग पर लेटी थी. उसके पास एक नर्स और एक तीमारदार मौजूद थे. एक तरफ दवाओं की बड़ी ट्रे रखी हुई थी. कमरे में दवाओं की गन्ध भी फ़ैली थी. नानी बहुत बूढ़ी हो चली थी. उसके सफ़ेद बाल, आँखें धँसी हुई, और चेहरे पर झुर्रियों की लकीरें साफ़ दिखाई दे रही थी. उसने लेटे लेटे ही अपना चश्मा पहना और देर तक हम सबको एकटक देखती रही. फिर जब मम्मी ने उनके पाँव छुए तो वह एकाएक उठ बैठी. उनको मानो हमारी उपस्थिति पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. उन्होंने मम्मी को अपने आगोश में ले लिया और सजल नेत्रों से अपनी खुशी व्यक्त करती रही. उनके बोल नहीं निकल रहे थे. पापा ने उनको प्रणाम किया और हमको भी प्रणाम करने को कहा .

नानी ने मेरा व जय का हाथ अपनी ओर खींच लिया और पलंग पर अपने बगल में ही बैठने को कहा. इस बीच पापा मम्मी के लिए कुर्सियाँ आ गयी थी. पापा कुर्सी पर बैठ गए पर मम्मी तो नानी पास पलंग पर बैठ कर सिसकने लगी. मैंने मम्मी को इस तरह रोते हुए पहली बार देखा. काफी देर बाद वातावरण सामान्य हो सका. नानी रुँधे गले से बोली, “मैं कब से इन्तजार कर रही थी कि मेरे बच्चे आकर मुझसे मिलें, अच्छा किया तुम लोग आ गए मैं समधन जी से भी क्षमा चाहूंगी.”

नानी ने अपनी दोनों हथेलियाँ पहले जय के माथे व चेहरे पर फिरायी, और फिर मेरे माथे-चेहरे पर हथेली लाकर मुझसे मेरा नाम पूछा. मैंने उत्तर दिया, “खुशी.”

इस मिलन में मैंने जो खुशी देखी, मैं शब्दों में उनका वर्णन नहीं कर पा रही हूँ.
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3 टिप्‍पणियां:

  1. स्नेह से वर्षों पुराना क्रोध भी पिघल जाता है। सुन्दर कहानी या रोचक सत्य।

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  2. सुंदर मार्मिक कथानक. अपने तो 'अपने' ही होते हैं.

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  3. दीवारें दरकीं,पल बने, अच्छा लगा।

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