सोमवार, 19 अगस्त 2013

यादों का झरोखा - २

स्व. श्री सुवालाल व्यास के पिता का नाम श्री मूलचंद व्यास था. पुराने लोग बताते थे कि सभी उनको बोहरा जी सम्बोधित करते थे. बोहरा उनको इसलिये कहा जाता होगा कि वक्त जरूरत वे परिचितों को ब्याज पर रुपया उधार दिया करते होंगे. उनका गाँव भगवतगढ़ राजस्थान के सवाईमाधोपुर जिले में पश्चिम की तरफ अरावली पर्वतमाला की गोद में बसा है. कहते हैं कि पहले समय में लोगों का एक अन्धविश्वास था कि ये गाँव ‘खोड़ला’ था, और सुबह सवेरे इसका नाम ले लो तो दिन भर खाना नसीब नहीं होता था. खाना क्या पानी भी भी मुश्किल से मिल पाता था.

परन्तु ये सब अब से ८०-९०  वर्ष पुरानी बातें हैं. तब गाँव में न पक्की सड़क थी और न बिजली. लाल पत्थरों से बनी एक दो-तीन सौ वर्ष पुरानी चौकोर बावड़ी थी, जो गर्मियों में लगभग सूख जाती थी. बाहर दूर गाँव के कुओं से चरी-मटके भर कर पानी लाना पड़ता था. होने को एक बड़ा तालाब भी बुजुर्गों ने कभी खोद कर बनाया था, जिसमें बरसात का पानी फागुन-चैत के महीनों तक ही चल पाता था. इसलिए मवेशी पालना भी दुरूह हो जाता था. लेकिन अब तो गाँव का कायाकल्प हो गया है. भगवतगढ़ एक चमन है. नलकूप हैं, लहलहाते खेत है, पक्की सड़कें हैं, सुन्दर पक्के मकान हैं. आने जाने के निजी और सरकारी साधन हैं.

पहले से यहाँ गाँव में ब्राह्मण, बनिया, कोली, तेली, गूजर, कुम्हार, सुनार, चर्मकार आदि सभी जातियों के लोग रहते थे. आवश्यकताएं बहुत सीमित हुआ करती थी. दो जोड़े कपड़ों से गुजारा हो जाता था. खेत थे, पर सारी जमीन ऊसर थी. केवल बरसाती फसल हो पाती थी. जिसमें मक्का, ज्वार, बाजरा, तिल आदि मुख्य फसल होती थी. जाड़ों मे बिना पानी वाली सरसों, धनिया, अलसी की फसल ली जाती थी, पर यदि किन्ही वर्षों में इंद्र देव की कृपा नहीं हुई तो सब तरफ उदासी रहती थी. बावड़ी के पास एक शिव मन्दिर सबकी आस्था का केन्द्र रहा, वहीँ पर पीपल, कैत और धोकड़े के पेड़ भी थे. कुल मिलाकर एक सिमटी हुई अभावग्रस्त दुनिया रही होगी.

एक बार लंबे समय तक सूखा पड़ गया था. गाँव के पुरुष काम-धंधे की तलाश में सवाईमाधोपुर शहर अथवा जयपुर की तरफ निकल पड़े. बोहरा जी अपने दो तीन साथियों के साथ पड़ोसी जिले बूंदी स्थित लाखेरी ए.सी.सी. के सीमेंट कारखाने में पहुँच गए, जहाँ मजदूरों की कमी रहती थी क्योंकि लोग कारखानों में काम करने में बहुत डरा करते थे. आज सुनने में अजीब लगता है कि तब प्रतिदिन मजदूरी दो आने - चार आने हुआ करती थी.

कुछ समय बाद, एक दिन मूलचंद बोहरा कम्पनी के रेलवे यार्ड में इंजन की चपेट में आ गये और बौराणी माँगी बाई और उनके छ: साल के बेटे को अनाथ छोड़ स्वर्ग सिधार गए. तब मुआवजे के आज के जैसे कानून नहीं थे, पर मैनेजमेंट ने अपने सिविल डिपार्टमेंट में मांगी बाई को बतौर कुली-मजदूरनी नौकरी दे दी. सिविल डिपार्टमेंट में पहले से कुछ सधवा-विधवा महिलायें काम करती थी, उनमें बौराणी भी शामिल हो गयी. क्योंकि उनके पास जीविकोपार्जन का कोई विकल्प नहीं था. उसका बच्चा पूरी तरह उसी पर आश्रित था. कुछ सालों तक फैक्टी गेट पर क्रेच (शिशु सदन) में खेलता रहा. कुछ बड़ा हुआ तो उसे ऑफिस में बाबू लोगों को पानी पिलाने के काम पर लगा दिया गया. और जब वह बालिग़ हुआ तो उसे भी बतौर चपरासी पक्की नौकरी पर रख लिया गया.

माँ-बेटा दोनों नौकरी करते थे. कम्पनी द्वारा प्रदत्त छोटे से मजदूर आवास में रहते थे. इस बीच कितना सहा, कैसे वे कठिन दिन काटे, इसका हिसाब उन दोनों के दिलों में रहा है.

श्रीमती माँगी बाई कम्पनी के नियमानुसार ६० वर्ष की उम्र तक नौकरी करके रिटायर हुई. उसका बेटा एक सतगुरु के सानिध्य में रात्रि कक्षाओं में  पढ़ता भी रहा, और एक दिन मैट्रिक पास होकर उसी ऑफिस में क्लर्क बन गया, जिसमें वह छुटपन में मेजों के नीचे से घुस कर बाबू-अफसरों को पानी पिलाया करता था. उसे बाबू लोगों की कॉलोनी में बड़ा आवास मिल गया. सीमेंट कामगारों के लिए बने वेतन आयोगों का लाभ भी मिला. कार्यदक्षता व मेहनत के परिणामस्वरूप वेतन के ग्रेडों में पदोन्नत भी होता रहा. विवाह हुआ चार बेटों व दो बेटियों का पिता भी बना. सदगुरू ने उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी जोड़ दिया, जिससे उसके व्यक्तित्व में निखार आ गया. उसे आदर्शवादी व्यक्ति के रूप में पहचान मिल गयी. विशिष्ट बात ये भी थी कि वह एक समर्पित मातृभक्त पुत्र था. रुग्ण माँ की उसने बहुत सेवा की. जब से समर्थ हुआ एक गाय भी नियमित दूध के लिए पाली. इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तपस्या में उसकी धर्मपत्नी धापू बाई का भी पूरा योगदान रहा. माँ अपनी पूरी उम्र पाकर, आठवें दशक में स्वर्ग सिधार गयी. और सुवालाल व्यास जी कम्पनी में ४७ साल की नौकरी का प्रमाणपत्र लेकर रिटायर हुए.

वे एक बार ३ वर्ष के सेशन में कर्मचारी युनियन में क्लेरिकल स्टाफ का प्रतिनिधि चुनकर मेरे साथ सहायक के रूप में रहे, तब देश में आपातकाल की छाया थी. मैंने साथ रह कर देखा कि वे एक साहसी, कर्मठ व सच्चे इन्सान थे. उनकी हिन्दी और अंग्रेजी दोनों की लिखावट इतनी आकर्षक व सुन्दर होती थी कि देखते ही बनती थी.

बहुत वर्ष पहले सन १९६५ में जब अपनी कोऑपरेटिव सोसायटी का अवैतनिक जनरल सेक्रेटरी हुआ करता था, तब उनको कुछ लेजर का काम ठेके पर दे रखा था. इसी काम के सम्बन्ध में हम एक बार झगड़ पड़े थे. इसका उन्हें भी और मुझे भी बाद में वर्षों तक बहुत अफसोस रहा था.

आपातकाल के दौरान, मैनेजमेंट बहुत शक्तिशाली हो गया था. युनियन के अधिकारों पर अंकुश लगा दिये गए थे. इसलिए कई बार टकराव भी हुए. वह कहा करते थे, “मैनेजमेंट से रिश्ते इतने खराब कर लिए हैं कि अब हमारे बच्चों को इस उद्योग में प्रवेश नहीं मिलेगा,” पर उनके जीते जी उनके तीन बेटे अपनी योग्यता के बल पर इसी उद्योग में अन्यत्र सुपरवाइजर के पदों पर कार्यरत हों गए. चौथा रामू भाई व्यास फेसबुक पर मेरा मित्र बन गया है. वह अच्छा फोटोग्राफर है. अपनी खेती बाड़ी का काम संभालता है. माँ उसी के साथ रहती है. उनके  अपने घर का नाम खुद व्यास जी ने  ‘लाखेरी सदन’ रखा है, जो भगवतगढ़ का एक आकर्षण है.

मेरे मित्र सुवालाल व्यास जी जो अपने को च्यवन ऋषि के वंशज बताते थे, अब इस दुनिया में मौजूद नहीं है, पर उनकी स्मृतियां अभी भी मौजूद हैं.
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