रविवार, 29 अप्रैल 2012

चोखी रसोई

सात गावों के पंडितों का महा-सम्मलेन आयोजित किया गया. व्याकरण से लेकर वेदों तक की चर्चाएं हुई. चूँकि समय बहुत तेजी से बदल रहा है, और लोग धर्म की आस्थाओं से विमुख होते जा रहे हैं, ये बड़ी चिंता का विषय रहा. कलिकाल में जहाँ भौतिकवाद का ऐसा प्रभाव हो गया है कि आम आदमी बिना मेहनत किये अवैध तरीकों से घन कमाना चाहता है, इसके लिए धर्म अधर्म की भी कोई सोच नहीं रही है.

सम्मलेन में उपस्थित शास्त्रीगण/महापंडितों ने गहरी चिंताए जताई कि अगर इस अधोपतन के क्रम को रोका नहीं गया तथा संस्कारित नहीं किया गया तो निश्चय ही धर्म का स्वरूप विद्रूप हो जाएगा.

एक रामायणी विद्वान ने तो रामचरितमानस में कलिकाल का उद्धरण करते हुए घोर निराशा का चित्रण कर डाला. सारी चर्चा में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, जैसे नारे बार बार लगते रहे. पर किसी ने धार्मिक कर्मकांडों में आई विकृतियों अथवा पाखंडों पर कोई चर्चा करना ठीक नहीं समझा. क्योंकि सभी लोग किसी न किसी रूप में अपनी दैनिन्दिनी में अंधविश्वासों व पाखंडों में लिप्त रहते हैं. "हम सब पाखंडी हैं," यह कहने की हिम्मत किसी में नहीं रही. बिगड़ी हुई मान्यताओं को बदलने का साहस भी नहीं कर पा रहे थे. सत्यम वद, धर्मं चर,' जैसे आदर्श तो केवल पोथी के बैगन रह गए हैं. इनको न छेड़ा जाये तो ही अच्छा है. क्योंकि सभी लोग सुबह से शाम तक सैकड़ों झूठों का बोझ ढोते चलते हैं. लेकिन उपदेश तो दे ही सकते थे. नहीं दिये.

महासम्मेलन की एक बड़ी खुली रसोई थी. पाँच शुद्ध जनेऊधारी ब्राह्मण मात्र सिंगल धोती धारण करके, शुद्ध देशी घी का तड़का लगा कर दाल, सब्जी, दूध में आटा मल कर पूडियां, देहरादून की खुशबूदार बासमती का भात, सौंठ-रायता और लालमिर्च का भुना हुआ हुआ अचार सब बन कर तैयार था. रसोइये गर्मी पसीने से तरबतर सुस्ता रहे थे. पता नहीं कहाँ से एक लाल रंग का लम्बी पूंछ वाला कुत्ता चुपके से रसोई में घुस गया, सभी छोटे-बड़े पकवानों के बर्तनों को सूंघते हुए भात के बड़े तौले पर रखे बड़े करछे को चाटने लगा. अचानक एक रसोइये की नजर पड़ी तो उसने हो-हल्ला किया, सब जागृत हो गए. सबने देखा कुत्ता रसोई के गर्भगृह से दुम दबाकर निकल रहा था.

गजब हो गया, सारी रसोई जूठी और अशुद्ध हो गयी, उधर भोजन की पत्तलें लगने वाली थी, उससे पहले ये कांड हो गया. खबर आग की तरह फ़ैली, पांडाल में आचार्य जी के कान में कही गई, उनके माथे में चिंता की लकीरें आना स्वाभाविक ही था. भोजन की महक से सभी की भूख खुली हुई थी, जिह्वा स्वाद लेने के इन्तजार में थी कि अचानक सारा माहौल बदल गया, सब भ्रष्ट हो गया.

हुल्लड़ जैसा होने पर स्थिति को सँभालते हुए हरिद्वार से पधारे हुए विद्यावाचस्पति पंडित गोविन्द भट्ट जी ने माइक पर आकर संबोधित करते हुए सब को शांत रहने को कहा और पाँच महापंडितों की राय सुनाते हुए समस्या का हल निकाला कि "चूंकि कुत्ता भगवान भैरब के गणों में एक प्रमुख गण है, और उसे मानव जाति की निगरानी का स्वाभाविक अधिकार प्राप्त है इसलिए शास्त्रों के आधार पर उसका खुली रसोई में घुसना कोई आपत्तिजनक व्यवहार नहीं है. दूसरी बात ये भी है कि कुता लाल वर्ण का है इसलिए वह सूर्य/अग्नि का प्रतीक है, जो हर हाल में शुद्ध व शुद्धि करने वाला होता है.

उपस्थित जन समूह ने सहर्ष ताली बजाई और भोजन की पंक्ति में बैठ गये.
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6 टिप्‍पणियां:

  1. धर्म- सत्य, न्याय एवं नीति को धारण करके उत्तम कर्म करना व्यक्तिगत धर्म है । धर्म के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है ।
    धर्म पालन में धैर्य, विवेक, क्षमा जैसे गुण आवश्यक है ।
    ईश्वर के अवतार एवं स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है । लोकतंत्र में न्यायपालिका भी धर्म के लिए कर्म करती है ।
    धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    अधर्म- असत्य, अन्याय एवं अनीति को धारण करके, कर्म करना अधर्म होता है । अधर्म के लिए कर्म करना, अधर्म है ।
    कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म (किसी में सत्य प्रबल एवं किसी में न्याय प्रबल) -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मंत्रीधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
    जीवन सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक एवं परमात्मा शिव की इच्छा तक रहेगा ।
    धर्म एवं मोक्ष (ईश्वर के किसी रूप की उपासना, दान, तप, भक्ति, यज्ञ) एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है ।
    धार्मिक ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है । by- kpopsbjri

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  2. अपनी सुविधाओं के लिए 'धर्म' की 'लक्ष्मण रेखा' का सृजन कर, उसी को लांघना विडंबना ही है.

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