श्रीमती रेवती देवी (1910-1998) |
मैं अपने माता-पिता की पहली संतान, वह भी बड़ी मिन्नतों के बाद पैदा हुआ था. उनकी शादी के १८ सालों के बाद मेरा अभ्युदय हुआ था. खुशी भी परम्परागत रूप से अवश्य मनाई गयी होगी. लेकिन मैं ये सोचकर दु:खी भी हूँ कि मेरे पैदा होने पर आज ही के दिन, माँ को अतिशय कष्ट व प्रसव वेदना सहनी पड़ी होगी. तदन्तर रात-दिन मेरी देखभाल व पालन-पोषण में व्यस्त रहना पड़ा होगा. उस बीच माँ ने हजारों बार मुझे चूमा भी होगा, अपनी छाती से लगा कर दूध पिलाया होगा.
मुझे याद है मेरी माँ बहुत सुन्दर दिखती थी. कुमायूं के सुदूर पहाड़ी गाँव में ही उन्होंने अपना आधे
से ज्यादा जीवन बिताया. मेरे पिता अध्यापक थे इसलिए गृहस्थी की सारी जिम्मेदारी भी
माँ पर थी, पर ये सौभाग्य था कि बूढ़ी दादी का साया बहुत वर्षों तक उनके ऊपर रहा.
खेती-पाती के रोजमर्रा कामों के साथ साथ दूध के लिए एक गाय/भैंस भी हमेशा पालती
रही.
मुझे बिलकुल याद नहीं है कि
बचपन में कभी माँ ने मुझे डांटा या पीटा हो. वे स्वयं पैदा होते ही मातृहीन हो गयी
थी, कहते हैं कि मेरी नानी प्रसव के दौरान ही चल बसी थी. इस प्रकार उनका बचपन बहुत
अभावों में गुजरा होगा और फिर अल्पायु में ही उनकी शादी करके ससुराल भेज दिया गया.
मैं जब भी घर-गाँव से अपने
रोजगार पर लौटता था तो विदाई पर माँ की डबडबाई आँखों को देखता था. वह जब भी अपने
दोनों हथेलियों से मेरे सर-माथे को स्नेह्स्पर्श देती थी तो मैं भी अपने आंसू नहीं
रोक पाता था. मेरी बहनों की विदाई पर भी मैंने उन्हें बहुत भावुक होकर आंसूं गिराते हुए देखा था.
पिता के देहावसान पर तो वह बहुत रोई थी, लेकिन उसके बाद जिन सत्रह वर्षों तक वह
जीवित रही, उनके आंसू बिलकुल सूखे रहे.
माँ बताती थी कि उसे बहुत
सपने आते हैं, अक्सर वह सपनों में पिता जी से संबाद किया करती थी. जिस दिन सपने
में पिता जी आते थे, सुबह गो-ग्रास दिया करती थी, तथा चिड़ियों-गिलहरियों को आटे के
पिंड बना कर छत में डाल देती थी.
वह ठेठ ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी
थी लेकिन पिता के मृत्युपरांत जब वह मेरे अथवा छोटे भाई बसंत के परिवारों के साथ
रहने मैदानी हिस्सों में आई तो उन्होंने नए वातावरण को बहुत जल्दी आत्मसात कर
लिया. वह टेलीविजन देखती थी, उसके संवादों को समझ पाती थी अथवा नहीं, पर उस विषय
में पूछ-ताछ अवश्य करती थी.
पिता जी, जीते जी उनकी बड़ी
चिंता करते थे कि “मेरे बाद इसका क्या होगा?” पर वे
हमारे परिवारों के साथ आसानी से व्यवस्थित हो गयी थी. वे अच्छे भोजन खाने-पीने की
शौक़ीन थी, बनाती भी स्वादिष्ट भोजन थी. उनके स्वर्गवास के दो साल पहले सन १९९५ में
मैंने उनका एक इन्टरव्यू रिकार्ड किया था, जिसमें पूछा कि “देहावसान
के बाद उनका श्राद्ध किया जाये अथवा नहीं?” तो उन्होंने तुरन्त उत्तर
दिया, "जरूर करना. खीर-पूड़ी बनाना-खाना और मुझे याद करना.”
नाती-पोतों से उनको बहुत
स्नेह था. मेरे बेटों के विवाहोत्सव के अवसर पर उनको महिलाओं के बीच नाचते देखकर
जो आनंदानुभूति हुई, उसका में वर्णन नहीं कर पा रहा हूँ.
८७ वर्ष की उम्र में धीरे
धीरे उन्होंने अन्न, फिर दूध, अंत में जल का त्याग किया माघ के महीने में ठीक बसंत पंचमी का दिन उन्होंने अपने निर्वाण के लिए चुना. हम पाँचों भाई-बहन उनके सामने थे
और बहुत सात्विक ढंग से, बिना किसी को ज्यादा तकलीफ दिये वह हमसे विदा हुई. उनके अन्तिम समय में छोटे भाई बसन्त तथा उसकी श्रीमती ने माँ की खूब सेवा की. सभी को ढेरों आशीर्वाद देकर गईं.
मैं अपने जन्म दिन पर
श्रद्धा पूर्वक उनको याद करता हूँ. समय कभी पीछे को नहीं चलता है, वरना अपनी माँ से
कौन बिछुड़ना चाहता है?
सत्य कहा गया है: "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी."
सत्य कहा गया है: "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी."
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Sundartam ma . Aur Aaapko Janamdin Ki Hardik Shubhkamnayein.
जवाब देंहटाएंmaa anmol hai.
जवाब देंहटाएंPlease see
http://pyarimaan.blogspot.com/
माँ तो बस माँ है ..
जवाब देंहटाएंआपकी सभी पोस्टें अच्छी होती ही हैं, लेकिन माँ की उपस्थिति महसूस कराती यह पोस्ट दिल को छू गयी। सच ही है, जननी और जन्मभूमि हमसे अलग नहीं होते बल्कि सदा हमारे मन में, अंग-अंग में उनका वास रहता है। जन्मदिन पर हार्दिक मंगलकामनायें!
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