सोमवार, 26 सितंबर 2011

सन्यासी


पुराणों के अनुसार पृथ्वी पर जो सात व्यक्ति सशरीर अमर हैं, उनमें से एक राजा भृतहरि भी हैं. वे अपनी न्यायप्रियता व कल्याणकारी प्रबृति तथा भगवत भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं. पर विधि-वस कभी-कभी दिव्य पुरुष भी सांसारिक व्यवस्थाओं में दु:खी हो जाते हैं.

एक दिन राजा भृतहरि के सदगुरू ने एक अमृत-फल राजा भृतहरि को दिया और कहा कि इसके खाने से उनका यौवन स्थिर रहेगा और शारीरिक सौष्ठव बना रहेगा.

राजा भृतहरि अपनी पिंगला नाम की रानी (तीसरे नंबर पर) से बहुत प्यार करते थे अत: उन्होंने सोचा कि रानी का यौवन और सुंदरता बनी रहेगी तो वे भी अच्छा अनुभव करते रहेंगे. इसलिए उन्होंने वह अमृत-फल रानी को ये कहते हुए दिया कि इसे खा लेना, इससे तुम्हारा यौवन और सुंदरता हमेशा बने रहेंगे."

रानी ने अमृत-फल खाया नहीं. रानी में चरित्र-दोष था. उसका मित्र कोतवाल आया तो उसने वह फल कोतवाल को खाने को दे दिया ताकि उसका यौवन व सौष्ठव बना रहे. कोतवाल ने भी यह फल खाया नहीं बल्कि अपनी दूसरी महिला मित्र तत्कालीन राज-वैश्या को खाने को दे दिया और बता भी दिया कि इसको खाने से उसकी जवानी और ख़ूबसूरती बनी रहेगी. वैश्या ने फल प्राप्त करने के बाद सोचा, "मैंने तो अपना यह जीवन दुराचरण में व्यतीत कर दिया है यदि ये आगे लम्बा हो गया तो अगले जन्म में अच्छे जीवन की कल्पना नहीं हो सकेगी. क्यों न इस फल को राजा भृतहरि को खिलाया जाये, जिन्होंने अपने सत्कर्मों से सब को अनुगृहीत किया है. वे खायेंगे तो जन कल्याण के लिए उनका लंबा जीवन सभी के लिए वरदान होगा." ये सोच कर वह फल लेकर राजा भृतहरि के पास गयी और अमृत फल राजा को देते हुए बोली, हे राजन! यह अमृत फल है इसके खाने से आपका यौवन तथा सौष्ठव बरकरार रहेगा.” 
राजा ने कहा, लगता है कि तेरा और मेरा सदगुरू एक ही है. तुझको ये फल किसने दिया?

वैश्या ने बताया कि उसको वह फल कोतवाल से मिला है.

कोतवाल से पूछा गया तो उसने सच-सच बता दिया कि उसे ये फल रानी ने उसको दिया था.

यह सुन कर राजा भृतहरि सन्न रह गए, आत्मग्लानि से भर गए और संसार से विरक्त हो गए. सन्यासी बन कर राज महल से निकल गए.
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