चिंतामणि दानी केवल नाम के दानी हैं. वे किसी को भी मुफ्त में कुछ भी दान देना पाप समझते हैं. ऐसा नहीं है कि उनके पास धन संपदा की कमी रही हो, उनकी अपनी मान्यता रही है कि ‘देने वाले परमेश्वर ने सबको उनके पिछले जन्मों के कर्मों के अनुसार दिया है. किसी को कम दिया है अथवा किसी को कुछ भी नहीं दिया है. यह तो विधि विधान है, इसमें दखल नहीं देना चाहिए.’ अगर कोई भिखारी उनके घर-आँगन में टपक पड़े तो वे प्यार से खुले शब्दों में उससे कह देते हैं कि “नहीं भाई मैं तुम को कुछ भी नहीं दे सकता हूँ. वो ऊपरवाला सब देख रहा है. उसने तुमको कुछ नहीं दिया है, अगर मैं उसके दिये अपने धन में से तुमको कुछ दूंगा तो वह मुझ से भी नाराज हो जाएगा, इसलिए तुम यहाँ से चले जाओ.”
भिखारियों को ये तर्क अथवा दर्शन कहाँ समझ में आता? वे या तो पेशेवर होते हैं, या मजबूर. खैर ‘तू एक पैसा देगा, वह दस लाख देगा’ वाला फार्मूला दानी जी को कभी भी रास नहीं आया. ये बात भी नहीं कि दानी जी आस्थावान नहीं हैं, वे नित्य पूजा-पाठ करते हैं, हरिनाम जपते हैं, घंटों ध्यान-जप करते रहते हैं, और अपने नित्य नियमों में ईमानदार रहते हैं. घर में सौम्य सती-सावित्री सी सुन्दर गृहिणी अम्बा देवी है जो व्यवहारिक तथा भावनात्मक रूप से उनकी सच्ची अर्धांगिनी है. बस कमी है तो केवल यही कि भगवान ने उनके खाते में कोई औलाद नहीं लिखी है. अब दोनों की उम्र सत्तर साल के पार हो चुकी है. यह ईश्वर की मर्जी रही होगी ऐसा वे सोचते हैं. आसपास गाँव बिरादरी में अनेक लोग औलाद होने के कारण दुखी भी रहते हैं इसलिए भी वे सोचते हैं कि ‘भगवान जो करता है, भले के लिए करता है.’
भिखारियों को ये तर्क अथवा दर्शन कहाँ समझ में आता? वे या तो पेशेवर होते हैं, या मजबूर. खैर ‘तू एक पैसा देगा, वह दस लाख देगा’ वाला फार्मूला दानी जी को कभी भी रास नहीं आया. ये बात भी नहीं कि दानी जी आस्थावान नहीं हैं, वे नित्य पूजा-पाठ करते हैं, हरिनाम जपते हैं, घंटों ध्यान-जप करते रहते हैं, और अपने नित्य नियमों में ईमानदार रहते हैं. घर में सौम्य सती-सावित्री सी सुन्दर गृहिणी अम्बा देवी है जो व्यवहारिक तथा भावनात्मक रूप से उनकी सच्ची अर्धांगिनी है. बस कमी है तो केवल यही कि भगवान ने उनके खाते में कोई औलाद नहीं लिखी है. अब दोनों की उम्र सत्तर साल के पार हो चुकी है. यह ईश्वर की मर्जी रही होगी ऐसा वे सोचते हैं. आसपास गाँव बिरादरी में अनेक लोग औलाद होने के कारण दुखी भी रहते हैं इसलिए भी वे सोचते हैं कि ‘भगवान जो करता है, भले के लिए करता है.’
नाप व बेनाप सब मिलाकर करीब डेढ़ सौ नाली जमीन उनके नाम राजस्व रजिस्टरों में दर्ज है. पिछले बंदोबस्त के समय उन्होंने पटवारी-अमीन से कहकर अपनी जमीन से लगती हुयी जंगलात की खाली पड़ी टीलों पर की जमीन भी अपने नाम करा ली थी. तब उत्तराखंड बना नहीं था और जमीन का कीमतन महत्व नहीं भी नहीं हुआ करता था. उस भू-भाग में बरसात के दिनों मे घास-सुतर उग आता है जिसे जानवर पालने वाले काटकर ले जाते हैं. पर जब से उत्तराखंड अलग राज्य बना जमीन के भाव सोने के भाव की तरह उछलने लगे हैं, विशेष कर उन जगहों की जहाँ से हिमालय के दर्शन होते हैं.
ये किस्सा तब का है जब उत्तराखंड बनने वाला था स्थानीय लोगों तब ऊसर जमीन का कोई मूल्य नहीं समझते थे. पहाड़ के बाहर के लोगों ने पूरी शिवालिक रेंज पर जमीन की खरीद का कारोबार शुरू कर दिया था तभी राज्य सरकार ने क़ानून बनाया कि ‘राज्य के बाहर का भारतीय नागरिक केवल मकान की हद तक की जमीन ही खरीद सकता है.’ इधर स्थानीय भूमाफियों ने भी अपनी दस्तक दी है.
चिंतामणि दानी के पास एक दिन एक अजनबी व्यक्ति आया. उसने बताया कि वह लखनऊ से आया है. उसने अपना नाम भी बताया था. पर दानी जी को वह याद नहीं रहा. उसने दानी जी से उनकी उत्तर मुखी पहाड़ी पर की ऊसर जमीन खरीदने की इच्छा जाहिर की. उस जमीन का क्षेत्रफल पूरी बीस नाली है. वह तप्पड अब तक ‘गाज्यो का मांग’ (बरसाती घास उगने वाली जगह) कही जाती थी. यद्यपि उस जगह की दानी जी ने घेराबंदी कर रखी थी पर वर्तमान में उनके कोई उपयोग में नहीं आ रही थी. घास काटने वाली औरतें घास काट कर ले जाती थी, या जानवर पालने वाले लोग इसे चारागाह की तरह इस्तेमाल कर रहे थे.
आगंतुक का प्रस्ताव सुन कर दानी जी के मुँह में पानी आ गया और मुँह फाड़ते हुए बोले, “एक लाख रूपये प्रति नाली लूंगा.” इस पर आगंतुक ने बड़ी शालीनता से बिना भाव-ताव किये ही अपनी अटैची में से एक एक लाख रुपयों की बीस गड्डिया निकाली और दानी जी की चारपाई पर रख दी. सब अप्रत्याशित हो गया. आगंतुक वहाँ ज्यादा देर नहीं रुका. बिना कोई लिखा-पढ़ी किये ही जाने लगा बोला, “मैं जल्दी वापस आकर इसका बेनामा करवा लूंगा.” उसको वापस हल्द्वानी की राह पकड़नी थी इसलिए वह नमस्कार करके चला गया.
चिंतामणि दानी ने इतनी बड़ी रकम पहली बार देखी थी. वे नोटों की गड्डियों को बार बार गिन रहे थे. उन्होंने पत्नी अम्बा को सब कह सुनाया तो वह भी खुश हो गयी. बेकार पड़ी हुई पुरानी बेनाप की जमीन इतने रूपये दे जायेगी उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था. अगले दिन दानी जी अल्मोड़ा जाकर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के अपने बचत खाते में जमा कर आये. तत्पश्चात उस खरीददार के आने का इन्तजार करते रहे. पर वह तो लौट कर दुबारा आया ही नहीं. एक महीने बाद ग्रामसेवक की सलाह पर उन्होंने पूरा बीस लाख रुपया फिक्स-डिपाजिट खाते में डाल दिया. पन्द्रह साल बीत गए हैं अब तक चार बार उसे रिन्यू करा चुके हैं. ब्याज सहित रकम काफी बड़ी हो चुकी है पर ना जाने क्यों रकम देने वाले की कोई खोज खबर नहीं मिली.
उम्र के इस आख़िरी पड़ाव पर चिंतामणि दानी पशोपेश में हैं कि उस अनजान आदमी के अमानत का क्या किया जाय? कभी कभी उनके मन में आता है कि इस पूरी राशि को किसी अच्छी शिक्षण संस्थान अथवा आरोग्य संस्थान को दे दी जाये, लेकिन बात यहाँ आकर रुक जाती है कि उन्होंने खुद अपने धन का कभी दान नहीं किया है और अब पराये धन को कैसे दान कर सकते हैं?
इस बारे में अम्बा देवी से सलाह ली तो उसने कहा, “इस जमीन को ग्राम सभा को इस शर्त पर लिखित करने के बाद सोंप दिया जाय कि "कभी जमीन का वह हकदार लौट आये तो उसको हस्तांतरित कर दी जाय अन्यथा ग्राम सभा इस भू-भाग पर वानकी कार्य कराती रहे.” दानी जी को यह सुझाव बहुत पसंद आया, तदनुसार कार्यवाही चल रही है. पति पत्नी के जीवन के बाद पैतृक जायदाद भाई भतीजों की हो जायेगी पर बैंक में रखे रूपये परमार्थ /लोककल्याण की योजनाओं में लगाने हेतु प्रशासन से संपर्क में हैं. वे अब सचमुच दिल से दान करने की इच्छा रखते हैं.
ये किस्सा तब का है जब उत्तराखंड बनने वाला था स्थानीय लोगों तब ऊसर जमीन का कोई मूल्य नहीं समझते थे. पहाड़ के बाहर के लोगों ने पूरी शिवालिक रेंज पर जमीन की खरीद का कारोबार शुरू कर दिया था तभी राज्य सरकार ने क़ानून बनाया कि ‘राज्य के बाहर का भारतीय नागरिक केवल मकान की हद तक की जमीन ही खरीद सकता है.’ इधर स्थानीय भूमाफियों ने भी अपनी दस्तक दी है.
चिंतामणि दानी के पास एक दिन एक अजनबी व्यक्ति आया. उसने बताया कि वह लखनऊ से आया है. उसने अपना नाम भी बताया था. पर दानी जी को वह याद नहीं रहा. उसने दानी जी से उनकी उत्तर मुखी पहाड़ी पर की ऊसर जमीन खरीदने की इच्छा जाहिर की. उस जमीन का क्षेत्रफल पूरी बीस नाली है. वह तप्पड अब तक ‘गाज्यो का मांग’ (बरसाती घास उगने वाली जगह) कही जाती थी. यद्यपि उस जगह की दानी जी ने घेराबंदी कर रखी थी पर वर्तमान में उनके कोई उपयोग में नहीं आ रही थी. घास काटने वाली औरतें घास काट कर ले जाती थी, या जानवर पालने वाले लोग इसे चारागाह की तरह इस्तेमाल कर रहे थे.
आगंतुक का प्रस्ताव सुन कर दानी जी के मुँह में पानी आ गया और मुँह फाड़ते हुए बोले, “एक लाख रूपये प्रति नाली लूंगा.” इस पर आगंतुक ने बड़ी शालीनता से बिना भाव-ताव किये ही अपनी अटैची में से एक एक लाख रुपयों की बीस गड्डिया निकाली और दानी जी की चारपाई पर रख दी. सब अप्रत्याशित हो गया. आगंतुक वहाँ ज्यादा देर नहीं रुका. बिना कोई लिखा-पढ़ी किये ही जाने लगा बोला, “मैं जल्दी वापस आकर इसका बेनामा करवा लूंगा.” उसको वापस हल्द्वानी की राह पकड़नी थी इसलिए वह नमस्कार करके चला गया.
चिंतामणि दानी ने इतनी बड़ी रकम पहली बार देखी थी. वे नोटों की गड्डियों को बार बार गिन रहे थे. उन्होंने पत्नी अम्बा को सब कह सुनाया तो वह भी खुश हो गयी. बेकार पड़ी हुई पुरानी बेनाप की जमीन इतने रूपये दे जायेगी उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था. अगले दिन दानी जी अल्मोड़ा जाकर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के अपने बचत खाते में जमा कर आये. तत्पश्चात उस खरीददार के आने का इन्तजार करते रहे. पर वह तो लौट कर दुबारा आया ही नहीं. एक महीने बाद ग्रामसेवक की सलाह पर उन्होंने पूरा बीस लाख रुपया फिक्स-डिपाजिट खाते में डाल दिया. पन्द्रह साल बीत गए हैं अब तक चार बार उसे रिन्यू करा चुके हैं. ब्याज सहित रकम काफी बड़ी हो चुकी है पर ना जाने क्यों रकम देने वाले की कोई खोज खबर नहीं मिली.
उम्र के इस आख़िरी पड़ाव पर चिंतामणि दानी पशोपेश में हैं कि उस अनजान आदमी के अमानत का क्या किया जाय? कभी कभी उनके मन में आता है कि इस पूरी राशि को किसी अच्छी शिक्षण संस्थान अथवा आरोग्य संस्थान को दे दी जाये, लेकिन बात यहाँ आकर रुक जाती है कि उन्होंने खुद अपने धन का कभी दान नहीं किया है और अब पराये धन को कैसे दान कर सकते हैं?
इस बारे में अम्बा देवी से सलाह ली तो उसने कहा, “इस जमीन को ग्राम सभा को इस शर्त पर लिखित करने के बाद सोंप दिया जाय कि "कभी जमीन का वह हकदार लौट आये तो उसको हस्तांतरित कर दी जाय अन्यथा ग्राम सभा इस भू-भाग पर वानकी कार्य कराती रहे.” दानी जी को यह सुझाव बहुत पसंद आया, तदनुसार कार्यवाही चल रही है. पति पत्नी के जीवन के बाद पैतृक जायदाद भाई भतीजों की हो जायेगी पर बैंक में रखे रूपये परमार्थ /लोककल्याण की योजनाओं में लगाने हेतु प्रशासन से संपर्क में हैं. वे अब सचमुच दिल से दान करने की इच्छा रखते हैं.
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सही निर्णय लिया..
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