घनश्याम बैरवा पिछले दस वर्षों से विधान सभा सदस्य रहे हैं. सत्तासुख लूटने का नुस्खा कोई उनसे सीखे. वे अनुसूचित जाति से थे और उनका यह विधान सभा क्षेत्र अनुसूचित वर्ग के लिए आरक्षित भी चला आ रहा था. उनकी पार्टी के प्रति वफादारी व समर्पण की बातें हाईकमांड तक सबको ज्ञात थी, फलत: तीसरी बार भी उनको पार्टी का टिकट मिल गया.
इस बार का चुनाव कुछ दूसरी रंगत का हो रहा था क्योंकि प्रमुख विरोधी पार्टी वालों ने भी एक बैरवा जाति के अध्यापक को मैदान में जा खड़ा कर दिया, जिसकी व्यक्तिगत छवि बहुत अच्छी थी.
इन दस वर्षों में घनश्याम बैरवा पूरी तरह बदल गए थे. वे संभ्रांत हो गए थे और आम नेताओं की तरह ही विलासिताप्रिय हो चुके थे. बुरा हो चुनाव आयोग का कि ठीक मई-जून के महीने में राज्य के चुनावों की तिथियाँ घोषित कर दी. राजस्थान के रेतीले इलाकों में इन दिनों पारा ४५ डिग्री के पार हो जाता है. चुनाव आयोग ने तो अपनी सहूलियत देखी, पर चुनाव लड़ने वालों की मुसीबत हो गयी. गाँव-गाँव ढाणी-ढाणी जाकर वोट माँगना बड़ा कष्टकर काम हो गया.
हालत यह है कि नेता जी घर पर ही म्रत्युशय्या पर पड़े थे. पत्नी सिराहने बैठकर आंसू टपका रही थी, सभी के मुँह लटके हुए थे. डॉक्टर परेशान थे. एकाएक नेता जी ने आँख खोली और धीमे स्वर में बोले, “बड़ा बेटा कहाँ है?”
पत्नी ने उत्साहित होकर बताया, “यहीं आपके पताने खड़ा है.”
नेता जी ने फिर पूछा, “तीनों बेटियाँ और दामाद कहाँ हैं?”
“सब यहीं खड़ी हैं. दामाद जी भी यहीं है,” पत्नी ने कहा.
“छोटा बेटा कहाँ है?” एक बार फिर नेता जी ने व्यग्रता से पूछा.
“वह भी इधर ही है.” वह बोली.
“नेता जी ने थोड़ी आवाज बढ़ाते हुए कहा, “सब यहीं हैं तो रैली में कौन गया है? किसी को तो वहाँ रहना जरूरी था,” और वे फिर से कोमा में चले गए.
इस बार का चुनाव कुछ दूसरी रंगत का हो रहा था क्योंकि प्रमुख विरोधी पार्टी वालों ने भी एक बैरवा जाति के अध्यापक को मैदान में जा खड़ा कर दिया, जिसकी व्यक्तिगत छवि बहुत अच्छी थी.
इन दस वर्षों में घनश्याम बैरवा पूरी तरह बदल गए थे. वे संभ्रांत हो गए थे और आम नेताओं की तरह ही विलासिताप्रिय हो चुके थे. बुरा हो चुनाव आयोग का कि ठीक मई-जून के महीने में राज्य के चुनावों की तिथियाँ घोषित कर दी. राजस्थान के रेतीले इलाकों में इन दिनों पारा ४५ डिग्री के पार हो जाता है. चुनाव आयोग ने तो अपनी सहूलियत देखी, पर चुनाव लड़ने वालों की मुसीबत हो गयी. गाँव-गाँव ढाणी-ढाणी जाकर वोट माँगना बड़ा कष्टकर काम हो गया.
वोटर बहुत चतुर हो गये थे. वोटों के ठेकेदारों की भी ज्यादा नहीं चल रही थी क्योंकि हवा घनश्याम बैरवा के पक्ष में नहीं चल रही थी. यद्यपि अब वे इस फन में अनुभवी हो चुके थे और कोई कंजूसी भी नहीं बरती जा रही थी, पर जनता तो परिवर्तन चाहती है. कहने को, अपने पिछले कार्यकालों में उन्होंने बहुतों के निजी और सार्जनिक काम भी कराये थे, पर लोगों की धारणा थी कि उन्होंने उससे ज्यादा खुद खाया भी है. इस दौरान बने उनके बड़े बड़े घर-बंगलों को देखकर नजदीकी लोगों को भी ईर्ष्या होने लगी थी.
चुनावों में सिद्धांतों को कौन याद करता है? पार्टियों के घोषणापत्रों के बारे में लोग जानते हैं कि यह सब पोथी के बैगन होते हैं. जाति-बिरादरी का बड़ा हाथ होता है, पर इस बार तो दोनों प्रमुख उम्मीदवार बैरवा ही थे. सारे समीकरण गड़बड़ा गए. विपक्ष ने अपने सारे ब्रह्मास्त्र चला दिये तो घनश्याम बैरवा को चिंता होना स्वाभाविक था. उन्होंने अपनी तिजोरी खोल दी फिर भी आशंका बनी ही रही. इसलिए तय किया कि घर घर जाकर लोगों को पटाया जाये, व्यतिगत लालच दिये जाएँ, और चुनाव से ठीक चार दिन पहले बड़ी रैली शहर में निकाली जाये ताकि दुश्मन के हौसले पस्त हो जायें और हवा अपने पक्ष में बन जाये.
वे तपती धूप में गाँव-गाँव घर-घर घूमने लगे. परिणाम यह हुआ कि उनको लू लग गयी. पिछले दस वर्षों से वे गर्मियों में इस तरह कभी बाहर नहीं निकले थे. उनके निजी घर व जयपुर स्थित विधायक निवास में एयर-कन्डीशनर लगे थे. गाडियां भी ए.सी. थी, पर मजबूरी आदमी से क्या क्या नहीं कराती है. प्रचार के दौरान गधों को भी बाप कहना पड़ रहा था. सर्वसाधारण बन कर हाथ जोड़ते हुए वोटरों की लानत-मलानत सुनते हुए घूमते रहे और बीमार पड़ गए. डॉक्टरों ने बेड रेस्ट की सलाह दी और उपचार किया लेकिन ज्यों ज्यों ईलाज किया गया, मर्ज बढ़ता ही गया.
चुनावों में सिद्धांतों को कौन याद करता है? पार्टियों के घोषणापत्रों के बारे में लोग जानते हैं कि यह सब पोथी के बैगन होते हैं. जाति-बिरादरी का बड़ा हाथ होता है, पर इस बार तो दोनों प्रमुख उम्मीदवार बैरवा ही थे. सारे समीकरण गड़बड़ा गए. विपक्ष ने अपने सारे ब्रह्मास्त्र चला दिये तो घनश्याम बैरवा को चिंता होना स्वाभाविक था. उन्होंने अपनी तिजोरी खोल दी फिर भी आशंका बनी ही रही. इसलिए तय किया कि घर घर जाकर लोगों को पटाया जाये, व्यतिगत लालच दिये जाएँ, और चुनाव से ठीक चार दिन पहले बड़ी रैली शहर में निकाली जाये ताकि दुश्मन के हौसले पस्त हो जायें और हवा अपने पक्ष में बन जाये.
वे तपती धूप में गाँव-गाँव घर-घर घूमने लगे. परिणाम यह हुआ कि उनको लू लग गयी. पिछले दस वर्षों से वे गर्मियों में इस तरह कभी बाहर नहीं निकले थे. उनके निजी घर व जयपुर स्थित विधायक निवास में एयर-कन्डीशनर लगे थे. गाडियां भी ए.सी. थी, पर मजबूरी आदमी से क्या क्या नहीं कराती है. प्रचार के दौरान गधों को भी बाप कहना पड़ रहा था. सर्वसाधारण बन कर हाथ जोड़ते हुए वोटरों की लानत-मलानत सुनते हुए घूमते रहे और बीमार पड़ गए. डॉक्टरों ने बेड रेस्ट की सलाह दी और उपचार किया लेकिन ज्यों ज्यों ईलाज किया गया, मर्ज बढ़ता ही गया.
हालत इस कदर बिगड़ गयी कि नेता जी कोमा में आ गए. बुरी हालत देखकर सबके हाथ-पाँव फूल गए. डॉक्टरों ने अस्पताल में भर्ती करने की सलाह दी, पर चुनाव मुँह बाए खड़ा था. परिवार वाले किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए. अस्पताल ले जाने का मतलब दुश्मन को उत्साहपूर्ण सन्देश देना और जनता में भी बुरा सन्देश जाने का ख़तरा होता.
हालत यह है कि नेता जी घर पर ही म्रत्युशय्या पर पड़े थे. पत्नी सिराहने बैठकर आंसू टपका रही थी, सभी के मुँह लटके हुए थे. डॉक्टर परेशान थे. एकाएक नेता जी ने आँख खोली और धीमे स्वर में बोले, “बड़ा बेटा कहाँ है?”
पत्नी ने उत्साहित होकर बताया, “यहीं आपके पताने खड़ा है.”
नेता जी ने फिर पूछा, “तीनों बेटियाँ और दामाद कहाँ हैं?”
“सब यहीं खड़ी हैं. दामाद जी भी यहीं है,” पत्नी ने कहा.
“छोटा बेटा कहाँ है?” एक बार फिर नेता जी ने व्यग्रता से पूछा.
“वह भी इधर ही है.” वह बोली.
“नेता जी ने थोड़ी आवाज बढ़ाते हुए कहा, “सब यहीं हैं तो रैली में कौन गया है? किसी को तो वहाँ रहना जरूरी था,” और वे फिर से कोमा में चले गए.
***
चिन्ता तो रैली की ही रही।
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंआपकी यह सुन्दर प्रविष्टि कल दिनांक 27-08-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-984 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
बताओ- रैली का क्या होगा...
जवाब देंहटाएंहम तो सोच रहे थे
जवाब देंहटाएंशहीद हो जायेंगे
मर कर परिवार के
किसी सदस्य को जितायेंगे
आपने तो कहानी के अंत में
नींद से उठा दिया
नेता जी नहीं मरे हैं अभी
बता कर भटका दिया !
खानदानी धंधा है चिंता तो होगी ही भले ही कोमा में पड़े हो ..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति ..
रैली का क्या हुआ ,रैली में अटकी हुई है नेताजी की जान ,रैली ही अब .रह गई नेता की पहचान ....जबरजस्त व्यंग्य इस गोबर गणेश को परिवार क्या अपनी जान की भी चिंता नहीं है .....बिन रैली साब सून .,भैया बिन थैली सब सून . .कृपया यहाँ भी पधारें -
जवाब देंहटाएंसोमवार, 27 अगस्त 2012
अतिशय रीढ़ वक्रता (Scoliosis) का भी समाधान है काइरोप्रेक्टिक चिकित्सा प्रणाली में
http://veerubhai1947.blogspot.com/
nashaa netaa giri kaa.
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