नंदकिशोर दीक्षित एक परम्परावादी गरीब पण्डित अपनी पुश्तैनी कर्मकांडी वृति से घर-परिवार का भरण पोषण करते थे. मध्यभारत के पूर्वी छोर पर बसा हुआ उनका कस्बा एकाएक तब सुर्ख़ियों में आया जब उसके बगल वाले इलाके में लौह अयस्क के बड़े भंडारों की खोज हुई. इन खदानों के अयस्क के शोधन के लिए बड़ा कारखाना स्थापित हो गया तो देखते ही देखते यह असीमित औद्योगिक शहर बन गया. तमाम सामाजिक मूल्य बदल गए, पर पण्डित जी का धन्धा यथावत चलता रहा. पूजापाठ, नामकरण, शादी आदि सोलहों संस्कारों को कराने में उनको दक्षता हासिल थी. वे गणित एवँ फलित ज्योतिष का भी ज्ञान रखते थे.
दीक्षित जी को अधेड़ अवस्था में तीन पुत्रियों के बाद एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. नाम रखा गया मोहन. पण्डित जी ने स्वयं अपने बालक की कुंडली बनाई. वे बहुत प्रसन्न थे कि कि बेटे की कुंडली में राजयोग था पर मोहन तो परिवार के लाड़-प्यार में ऐसा बिगड़ता गया कि आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी. दीक्षित जी चाहते थे कि वह पूजा विधान व कर्मकांड के आवश्यक मन्त्र व श्लोक याद करे, पर नहीं, वह तो उनके नियंत्रण से बाहर हो गया, एकदम आवारा हो गया. उसके राजयोग वाली बात बचपन में ही हवा हो गयी.
शहर में कोई सामाजिक या राजनैतिक कार्यक्रम होता था तो मोहन, रिक्शे /तांगे से ऐलान करने वाले के बगल में बैठकर मुफ्त में घूमने का मजा लेता रहता था. जब कभी मौक़ा मिलता था तो उसी तर्ज पर माइक पर बोलता था. ऊपर वाले ने उसे ऐसी बुलंद व ओजश्वी वाणी दे रखी थी कि वह धीरे धीरे ऐलान करने वालों को मात देने लगा. और कुछ समय बाद तो कोई भी कार्यक्रम होने पर मोहन को प्राथमिकता से ऐलान करने के लिए बुलाया जाने लगा. उसे राजनैतिक बातों की ऐसी बढ़िया समझ थी कि अपनी तरफ से नमक-मिर्च लगा कर बोल देता था. इस प्रकार अठारह वर्ष का होते होते वह एक स्थापित उद्घोषक हो गया. यद्यपि उसकी अपनी कोई दलीय प्रतिबद्धता नहीं थी, फिर भी जो भी नेता आये, जिस पार्टी का भी आये, वह उसके लिए काम करता था बदले में उसे इस काम का अच्छा दाम भी मिलने लगा था.
एक बार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघ चालक का वहाँ आगमन हुआ, उन्होंने उसकी वाणी की ओज व सधी हुयी भाषा को सुना तो उस लड़के में उनको भविष्य की संभावनाएं नजर आई. उन्होंने उसे संघ का प्रचारक नियुक्त कर दिया और उसे संघ के तौर तरीकों एवँ सिद्धांतों को समझाने-सिखाने के लिए नागपुर बुला लिया. अब उसकी एक लाइन तय हो गयी तथा वह संजीदा भी हो गया.
सं १९७५ में जब देश में आपातकाल लगा तो जयप्रकाश नारायण जी के आह्वान पर जो आन्दोलन चला उसमें मोहन ने फिर जोर शोर से माइक पकड़ा और अग्रगण्य बन गया, साथ ही गिरफ्तार भी कर लिया गया. उन्नीस महीने जेल में रहा. बाहर आने पर ‘मोहन भैय्या’ एक हीरो बन गए.
सं १९७७ में जब लोकसभा के चुनावों की घोषणा हुई तो मोहन भैय्या ने खेल खेल में संयुक्त विपक्षी पार्टी से टिकट मांग लिया. बड़े बड़े दिग्गजों को पीछे छोड़कर मोहन भैय्या को लोकसभा का टिकट मिल गया और वे भारी मतों से जीत भी गए.
नई दिल्ली में गैर कांग्रेसी सरकार बनी. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. बिलकुल नया प्रयोग और अनुभव था. मोहन भैय्या को जैसे अप्रत्याशित छप्पर फाड़ कर यह सब मिल गया था. अनेक स्वागत समारोह हुए. वृद्ध पण्डित नन्दकिशोर दीक्षित को सपना सा लग रहा था. बेटे की इस सफलता पर वह बार बार ईश्वर को धन्यवाद दे रहे थे.
इस ऐतिहासिक कहानी का अंत बहुत दारुण रहा. लगभग ६ महीनों के बाद मोहन भैय्या अपने एक दोस्त की मोटरसाइकिल पर बैठ कर दिल्ली में कहीं जा रहे थे, तिलक ब्रिज के पास मोटरसाइकिल दुर्घटनाग्रस्त हो गयी मोहन भैय्या के सर में गंभीर चोट आई और वे बचाए नहीं जा सके. अगर उन्होंने हेलमेट पहनी होती तो शायद ये अकाल म्रत्यु नहीं होती.
दीक्षित जी को अधेड़ अवस्था में तीन पुत्रियों के बाद एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. नाम रखा गया मोहन. पण्डित जी ने स्वयं अपने बालक की कुंडली बनाई. वे बहुत प्रसन्न थे कि कि बेटे की कुंडली में राजयोग था पर मोहन तो परिवार के लाड़-प्यार में ऐसा बिगड़ता गया कि आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी. दीक्षित जी चाहते थे कि वह पूजा विधान व कर्मकांड के आवश्यक मन्त्र व श्लोक याद करे, पर नहीं, वह तो उनके नियंत्रण से बाहर हो गया, एकदम आवारा हो गया. उसके राजयोग वाली बात बचपन में ही हवा हो गयी.
शहर में कोई सामाजिक या राजनैतिक कार्यक्रम होता था तो मोहन, रिक्शे /तांगे से ऐलान करने वाले के बगल में बैठकर मुफ्त में घूमने का मजा लेता रहता था. जब कभी मौक़ा मिलता था तो उसी तर्ज पर माइक पर बोलता था. ऊपर वाले ने उसे ऐसी बुलंद व ओजश्वी वाणी दे रखी थी कि वह धीरे धीरे ऐलान करने वालों को मात देने लगा. और कुछ समय बाद तो कोई भी कार्यक्रम होने पर मोहन को प्राथमिकता से ऐलान करने के लिए बुलाया जाने लगा. उसे राजनैतिक बातों की ऐसी बढ़िया समझ थी कि अपनी तरफ से नमक-मिर्च लगा कर बोल देता था. इस प्रकार अठारह वर्ष का होते होते वह एक स्थापित उद्घोषक हो गया. यद्यपि उसकी अपनी कोई दलीय प्रतिबद्धता नहीं थी, फिर भी जो भी नेता आये, जिस पार्टी का भी आये, वह उसके लिए काम करता था बदले में उसे इस काम का अच्छा दाम भी मिलने लगा था.
एक बार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघ चालक का वहाँ आगमन हुआ, उन्होंने उसकी वाणी की ओज व सधी हुयी भाषा को सुना तो उस लड़के में उनको भविष्य की संभावनाएं नजर आई. उन्होंने उसे संघ का प्रचारक नियुक्त कर दिया और उसे संघ के तौर तरीकों एवँ सिद्धांतों को समझाने-सिखाने के लिए नागपुर बुला लिया. अब उसकी एक लाइन तय हो गयी तथा वह संजीदा भी हो गया.
सं १९७५ में जब देश में आपातकाल लगा तो जयप्रकाश नारायण जी के आह्वान पर जो आन्दोलन चला उसमें मोहन ने फिर जोर शोर से माइक पकड़ा और अग्रगण्य बन गया, साथ ही गिरफ्तार भी कर लिया गया. उन्नीस महीने जेल में रहा. बाहर आने पर ‘मोहन भैय्या’ एक हीरो बन गए.
सं १९७७ में जब लोकसभा के चुनावों की घोषणा हुई तो मोहन भैय्या ने खेल खेल में संयुक्त विपक्षी पार्टी से टिकट मांग लिया. बड़े बड़े दिग्गजों को पीछे छोड़कर मोहन भैय्या को लोकसभा का टिकट मिल गया और वे भारी मतों से जीत भी गए.
नई दिल्ली में गैर कांग्रेसी सरकार बनी. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. बिलकुल नया प्रयोग और अनुभव था. मोहन भैय्या को जैसे अप्रत्याशित छप्पर फाड़ कर यह सब मिल गया था. अनेक स्वागत समारोह हुए. वृद्ध पण्डित नन्दकिशोर दीक्षित को सपना सा लग रहा था. बेटे की इस सफलता पर वह बार बार ईश्वर को धन्यवाद दे रहे थे.
इस ऐतिहासिक कहानी का अंत बहुत दारुण रहा. लगभग ६ महीनों के बाद मोहन भैय्या अपने एक दोस्त की मोटरसाइकिल पर बैठ कर दिल्ली में कहीं जा रहे थे, तिलक ब्रिज के पास मोटरसाइकिल दुर्घटनाग्रस्त हो गयी मोहन भैय्या के सर में गंभीर चोट आई और वे बचाए नहीं जा सके. अगर उन्होंने हेलमेट पहनी होती तो शायद ये अकाल म्रत्यु नहीं होती.
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दुखद अन्त..
जवाब देंहटाएंsafety first.
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