मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

डंकिनी

द्वाराहाट का गोविंद नेगी, मध्यवर्गीय माता-पिता की इकलौती संतान, बी.ए. पास करके कुछ दिन बेरोजगार रहा फिर रोजगार कार्यालय के माध्यम  से  पंजाब नेशनल बैंक में क्लर्क की नौकरी पा गया, तब बैंकों में भर्ती के लिए आज की तरह प्रतियोगी परिक्षा नहीं होती थी. वह स्वभाव से सरल और शरीर से कमजोर शुरू से है. माँ-बाप खुश थे कि बेटे को जल्दी ही नौकरी मिल गयी. अगले साल ही पड़ोस के गाँव से पहाड़ी रीति रिवाज से दुर्गा नाम की लड़की से उसका विवाह भी कर दिया गया.

संस्कृत व हिन्दी की श्रंगारिक पुस्तकों में शारीरिक बनावटों तथा गुणावगुण के आधार पर कई तरह से नायिका भेद किये गए हैं. एक प्राचीन विवेचन में स्त्री को चार प्रमुख स्वरूपों में बताया गया है: पद्मिनी, चित्रानी, शंखिनी और हस्तिनी. पर दुर्गा देवी के बारे में जानकर व देखकर यह कहा जा सकता है कि एक पांचवां स्वरुप भी होता है, जिसे ‘डंकिनी’ कहा जा सकता है. क्योंकि वह बिच्छू के स्वभाव की है. बात बात में किसी को भी डंक मारती रहती है.

दुर्गा की पीठ पर थोड़ा कुबड़ निकला हुआ है. चेहरा-मोहरा तो सुन्दर है, पर कूबड़ ने उसका सारा नक्शा बिगाड़ रखा है. शारिरिक बनावट तो सब ऊपर वाले के हाथ में माना जाता है, लेकिन स्वभाव से दुर्गा बहुत बदमिजाज, कर्कश और अकड़ू है. थोड़े दिन ही सास ससुर के पास रही फिर उसकी सास ने अपने बेटे से कहा, “तू इसे अपने साथ ले जा. या तो ये हमें मार डालेगी या हम इसे मार डालेंगे क्योंकि ये परिवार में खपने वाली बहू बिलकुल नहीं है.” इस प्रकार गोविन्द अपनी मरखनी पत्नी को साथ लेकर बरेली आ गया, जहाँ पर उसकी पोस्टिंग थी.

दुर्गा अपने मिजाज के अनुसार आलसी, अशिष्ट और कठोर वचन बोलने वाली पत्नी, पति के लिए भी हौवा बन कर रही. गोविन्द को धीरे धीरे सब सहने की आदत हो गयी. इस दुनिया में सभी लोग एक से स्वभाव के हो भी नहीं सकते हैं, पर अति होने पर दुखदायी अवश्य रहते हैं. बहुत से जानवर ऐसे होते हैं, जो स्वभाव से पैदाइशी आक्रामक और कटखने होते हैं, लेकिन बच्चे तो उनके भी होते रहते हैं. अन्यथा ये दुनिया आगे कैसे चलती? दुर्गा देवी को भी दो-दो साल के अंतराल में तीन बेटे पैदा हुए. हर प्राणी अपनी औलादों को जतन से पालता है. दुर्गा ने भी अपनी जानिब से बहुत प्यार-दुलार बच्चों को दिया, पर ज्यों ज्यों बच्चे बड़े होते गए माँ से वे भी खौफ खाते रहे.

इस बीच बैंक की अनेक शाखाओं में काम करते हुए गोविन्द नेगी कैशियर बन कर रुद्रपुर आ गया. यहाँ बैंक से सस्ते ब्याज दर की सुविधा का फ़ायदा लेकर लोन से अपने लिए एक घर बनवा लिया. बाहर तो वह एक सामान्य व्यक्ति था, पर घर में आकर भीगी बिल्ली बन कर रह जाता था. पत्नी की पूरी खुट्टेबर्दारी किया करता था. समय का पता ही नहीं चलता है, यों सरकता जाता है, कुछ ही वर्षों में बच्चे सयाने हो गए. बड़े बेटे जगदीश का विवाह करके अल्मोड़ा से जानकी नाम की सुन्दर पढ़ी-लिखी बहू ले आये. तब जगदीश एक स्टील के फर्नीचर बनाने वाली कम्पनी में काम करने लग गया था.

आखिर हुआ वही जिसका अंदेशा था. दुर्गा देवी ने नवेली बहू पर कठोर-कर्कश बाण अपने स्वभाव के अनुसार छोड़ने शुरू कर दिये. छोटी छोटी बातों में डांटना फटकारना और बेटे-बहू के बीच में दीवार बनने की उसकी अपनी प्रवृत्ति ने घर में नए सिरे से कलह पैदा कर दिया. दब्बू गोविन्द असहाय होकर रह जाता. गुब्बारे को ज्यादा दबाया जाय तो वह फूटेगा ही, एक दिन जगदीश अपनी पत्नी सहित घर छोड़ कर किराए से कमरा लेकर अन्यत्र रहने लगा. बडी बात यह भी है कि बहुओं को बेटी की तरह रखना चाहिए. ससुराल वाले पीहर वालों के लिए अपशब्द या तौहीन करने वाले शब्द प्रयोग करेंगे, तो वह ज़माना अब चला गया है कि बहुएं बर्दास्त कर लेंगी.

हमारे मध्यवर्गीय समाज में लड़की वालों की कई मजबूरियाँ होती हैं. देखा जाता है कि लड़का कमा-खा रहा हो तो उसके माता-पिता के स्वभाव की खोज खबर कम ही की जाती है, ऐसा ही हुआ दूसरे बेटे कैलाश के लिए रिश्ता तय करने में. वह बैंक ऑफिसर का बेटा था, एक कम्पनी के उत्पादों का मार्केटिंग का काम संभालता था. रामनगर से एक सजातीय लड़की कविता को उसके लिए ब्याह लाये. वह एम.ए. बी.एड. पास है. कैलाश ज्यादा होशियार निकला उसने ज्यादा तकरार होने तक का इंतज़ार नहीं किया. कविता ने जब सासू माँ के व्यवहार व हिटलरी हुक्मों को रोते हुए सुनाया तो कैलाश बिना घरवालों को बताए ही अपने दहेज के सामान सहित बाहर हो गया. माँ ने उसे बहुत लानत-मलानत दी, पर पत्नी की पीड़ा उससे सही नहीं गयी. वह भी लौटकर वापस घर नहीं आया.

दैवयोग से दुर्गा देवी की आँखों में ‘ग्लाईकोमा’ (काला मोतिया) का रोग हो गया. उसकी आँखों की रोशनी बहुत कम हो गयी है. गोविन्द ने पहले स्थानीय नेत्र विशेषज्ञों को दिखाया, रोग की गंभीरता को जानते हुए उसे तुरन्त सीतापुर के प्रसिद्द नेत्र चिकित्सालय में दिखाया. आँखों के अन्दर के तनाव को कम करने के लिए आपरेशन भी किया गया, लेकिन कोई विशेष लाभ नहीं हुआ. हाँ अब रोग आगे बढ़ना रुक सा गया. डॉक्टर इसे असाध्य बता रहे हैं.

सबसे छोटा बेटा शंकर पैथोलाजी में डिप्लोमा करके एक स्थानीय अस्पताल में काम पर लगा हुआ है. वह ज्यादा ही मातृभक्त है. रात दिन पिता के साथ मिलकर माँ की आवश्यकताओं का ध्यान रखता है. गोविन्द नेगी अपनी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं. अब पत्नी की अपाहिज हालत के कारण उनका ध्येय केवल पत्नी-सेवा रह गया है. कहते हैं, "हरदी जरदी ना तजे, खटरस तजे ना आम," इस हालत में भी दुर्गा देवी की वाणी में कोई बदलाव नहीं आया है. गोविन्द पत्नी की डाट-डपट सुनते रहता है और घर के सभी कार्य करना उनकी मजबूरी भी हो गयी है.

अब माँ-बाप दोनों चाहते हैं कि शंकर शादी कर ले ताकि घर में बहू आये और कारोबार संभाल ले. लेकिन शंकर ने ठान रखी है कि जो हाल भाईयों और भाभियों का हुआ वह अपने साथ नहीं होने देगा. सोचता है, ना होगा बाँस ना बजेगी बांसुरी. शादी करनी ही नहीं है. दुर्गा देवी आँखों से लाचार है, अब वह मिलने जुलने वालों से कहा करती है कि शंकर को समझा दो कि शादी के लिए राजी हो जाये, पर सब लोग जानते हैं कि बुढ़िया ‘डंकिनी’ है इसलिए दिखावटी बातें करके चल देते हैं.

दुर्गा देवी की बड़ी बड़ी सूनी अंधेरी आँखों में पश्चात्ताप के आंसू शायद अभी भी नहीं आते हैं, पर एक तरह से अभिशप्त जीवन जी रही है.
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5 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन अपना खेल निराला,
    सुख दुख की इतराती हाला।

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  2. डंकिनी एक सौदेश्य कथा है बूम्रांग करती है दुष्टता किसी न किसी बिध .मुहावरों वक्रोक्ति का बढ़िया प्रयोग किया है कथा को बांधे रखना साफ़ कह जाना दो टूक किस्सा गो हैं आप .आपकी टिप्पणियाँ

    सार्थक जानकारी लिए रहतीं हैं .

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  3. बहुत ही अच्छी और रोचक कहानी लगी

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