शनिवार, 17 अगस्त 2013

बात पते की

कभी बहू रानी बीमारी का बहाना बनाए, कभी सचमुच बीमार हो जाये, कभी वह बुढ़िया सास के सामने महंगाई और घर के खर्चों का रोना रोये, कभी बेटा ड्यूटी से घर आये और गंभीर मुद्रा में रहे, माँ बाप से बात ना करे, मुँह चुराए, लेकिन आपस में खुसरपुसर बातें करें, तो दिनेशचन्द्र उप्रेती को बड़ी कसक होने लगती. उनको ऐसा लगने लगा कि रिटायरमेंट के बाद बेटे के साथ रहने का उनका इरादा एक गलत निर्णय तो नहीं था. दिल की इस उलझन को किससे कहते? ले देकर साथ के लिए, उनकी इकलौती कमजोर पत्नी है, जो पूरी तरह उन्हीं पर आश्रित रहती है.

दिनेशचन्द्र उप्रेती तीन साल पहले बैंक की अपनी नौकरी से रिटायर हो गए थे. उनका बड़ा बेटा प्रवीण उत्तराखंड सरकार के विद्युत निगम में जूनियर इंजीनियर लग गया था और देहरादून में कार्यरत था. उसे अच्छा वेतन मिल रहा था. छोटा बेटा नवीन रिलायंस कम्पनी में बतौर सेल्स ऑफिसर महाराष्ट्र के पूना शहर में नौकरी कर रहा था. वे खुश थे कि दोनों बेटे उनके रिटायर होने से पहले ही व्यवस्थित हो गए हैं.

दिनेशचंद्र उप्रेती मूल रूप से बागेश्वर जिले के कपकोट के पास एक गाँव के रहने वाले हैं. अब से ४० साल पहले हाईस्कूल पास करने के बाद उनके पास अपने कैरियर के सम्बन्ध में दो तीन विकल्प थे-- फ़ौज में भर्ती हो लिया जाये, या बीटीसी/ एचटीसी ट्रेनिंग करके टीचर बना जाये, अथवा प्लेन्स की तरफ निकल कर कोई नौकरी खोजी जाये. उन दिनों नौकरियों की भरमार थी सो एक रिश्तेदार के सहारे दिल्ली होते हुए जयपुर पहुँच गए, जहाँ एक प्राइवेट बैंक में क्लर्क की नौकरी पा गए. कुछ बर्षों के बाद इस बैंक का राष्ट्रीयकरण हो गया था. जीवन की गाड़ी एक सुनिश्चित पटरी पर चल पड़ी थी. पहाड़ से शादी कर लाये. समयांतर पर दो बेटे भी हो गए. दो-तीन साल में शहर-शहर, गाँव-गाँव स्थान्तरण होता रहा, लेकिन अपने लिए घर बनाने खरीदने का कोई ख़याल नहीं आया क्योंकि वे समझते थे कि आखिर में अपने गाँव को ही लौटना है. जब तक माँ-बाप मौजूद थे, आना जाना भी होता था, लेकिन वर्ष बीतने के साथ साथ भविष्य के बारे में समीकरण बदलते रहे. बेटों को अपनी औकात से अधिक उच्च शिक्षा दिलाई. वे नौकरी पर लग गए. कुल मिलाकर पूर्ण संतुष्टि थी.

एक वैवाहिक विज्ञापन के माध्यम से प्रवीण की शादी हल्द्वानी में बसे हुए एक तिवारी परिवार में हो गयी. तिवारी जी आर्मी के रिटायर्ड कैप्टन हैं. रहने वाले तो वे भी रानीखेत इलाके के हैं, पर समय रहते उन्होंने हल्द्वानी के आउटस्कर्ट में एक बीघा जमीन खरीद ली थी, और यहीं बस गए हैं. उन्होंने अपनी इस इकलौती बेटी को खूब स्त्री-धन, दान-दहेज के साथ घर बनाने के लिए अपनी जमीन में ही एक प्लॉट दे दिया. उप्रेती जी को जैसे बिना मांगे मोती मिल गये. उस प्लाट पर उन्होंने एक साल के अन्दर मकान बनवाकर अपने बुढ़ापे की रिहायश का इन्तजाम कर लिया. मकान बनाने में अपनी सारी जमापूंजी लगा दी. फ़िक्र यों नहीं थी कि वे खुद पेंशनर थे ही, वे दोनों बेटों को अपने दो बटुवे कहा करते थे. प्रवीण ने जुगाड़ करके अपना हेडक्वार्टर हल्द्वानी ही करा लिया तो जिंदगी और भी आसान हो गयी.

दिनेशचंद्र उप्रेती का पहाड़ लौटने का अब कोई इरादा नहीं रहा क्योंकि हल्द्वानी ऐसा शहर है, जहाँ जीवनोपयोगी सभी सुविधाएँ तत्काल उपलब्ध रहती हैं. जबकि पहाड़ के गाँवों में अभाव-अभियोग बहुत हैं. अब समय भी बहुत बदल गया है. जीवन में हाईटेक आदतें हो गयी हैं. कहते हैं कि अब वहां शुद्ध हवा और पानी के अलावा कुछ भी आसानी से उपलब्ध नहीं रहा है. बंदरों और जंगली सूअरों से तंग आकर लोगों ने खेती करना भी छोड़ दिया है. अधिकाँश मेहनतकश लोग तराई-भाबर की तरफ पलायन कर गए हैं. लोगों ने दूध के लिए जानवर पालने बन्द कर दिये हैं. पाउडर का दूध मिलने लगा है. शाक-सब्जी, राशन सब हल्द्वानी से ही सप्लाई होता है. यह सब सुनने में अजीब सा लगता है, लेकिन कड़ुआ सच है कि वहाँ लोगों की जीवनशैली बदल गयी है.

उप्रेती जी को छोटे बेटे की शादी करनी है, लेकिन यहाँ घर में अन्दर ही अन्दर जो खिचड़ी पक रही है, उससे वे बहुत तनावग्रस्त रहने लगे हैं. एक दिन सहज में ही उन्होंने प्रवीण से कह डाला, “मुझे तो यहाँ टेंशन होने लगा है.”

प्रवीण ने कोई लाग-लपेट या लिहाज किये बगैर बेरुखी से जवाब दिया, “अगर यहाँ टेंशन होता है तो आपके पास और भी ठिकाने हैं. जहाँ टेंशन ना हो, वहाँ रहिये.” ये सुनकर उप्रेती जी सन्न रह गए. उनको लाड़ले बेटे से ये उम्मीद कतई नहीं थी. प्रवीण सचमुच उनका नहीं रहा. प्रमाणित घरजंवाई नहीं होते हुए भी वह ससुरालियों का हो गया था. जब तक बात ढकी हुई थी, सब चल रहा था, पर अब एकाएक बेटे के व्यवहार ने उनको अन्दर तक घायल कर दिया.

उप्रेती जी ने यथास्थिति फोन करके छोटे बेटे नवीन को बता दी. नवीन ने तुरन्त सलाह दी कि “हल्द्वानी में या रुद्रपुर में आसानी से मकान किराए पर मिल जाते हैं. आप तनावमुक्त होकर अपना अलग बसेरा कर लें. मैं जल्दी छुट्टी लेकर आता हूँ और एक फ़्लैट खरीद दूंगा.”

नवीन की बातों से उनको बहुत बल और सान्त्वना जरूर मिली, पर वे सोचने को मजबूर हो गए कि जिंदगी में गलती कहाँ हो गयी कि आज ये दिन देखना पड़ रहा है? उनको याद आ रहा है कि रिटायरमेंट पर विदाई के दिन उनके अनुभवी बॉस ने उनसे एक पते की बात कही थी, “रिश्ते कई बार बदल जाते हैं... पर रुपया बड़े काम की चीज है. सारा खर्च मत कर देना... कुछ अपनी मुट्ठी में जरूर रखना.”
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4 टिप्‍पणियां:

  1. सलाह उचित है, सारा मन नहीं उलीचना चाहिये।

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  2. सुंदर सीख. 'बटुआ' पूरा नहीं उड़ेलना चाहिये.

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  3. ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई .... बुढ़ापे में पैसा ही काम आता है ।

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक कल रविवार (18-08-2013) को "नाग ने आदमी को डसा" (रविवासरीय चर्चा-अंकः1341) पर भी होगा!
    स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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