मंगलवार, 27 अगस्त 2013

बैठे ठाले - ७

एक आदमी अपने दोस्तों की महफ़िल में बोला, “मेरे पास बीस साल पुराना अचार रखा हुआ है.” इस पर एक दोस्त बोला, “कभी हमको भी चखाओ,” तो उसने उत्तर दिया, “ऐसे चखाते रहते तो ये बीस साल तक कैसे बचा रहता.”

मैं भी अपनी बात आपको बताना चाहता हूँ कि मेरे पास भी बीसवीं सदी का एक बाटा कम्पनी का बढ़िया जूता है जो पेरिस से खरीदा गया था. बढ़िया इसलिए है कि मैंने इसे एक ट्रॉफी की तरह संभाल कर रखा है.

हमारे देश में एक कहावत है कि ‘टाटा और बाटा को कभी भी घाटा नहीं होता.’ क्योंकि ये आम आदमी की जरूरत की चीजें बनाते हैं. ये आम आदमी भाई केजरीवाल वाला भी हो सकता है. कभी कभी आम आदमी भी खास बन जाता है.

हाँ तो मैं जूतों की बात कर रहा था... बाटा कम्पनी दुनिया के सवा सौ देशों में अपना कारोबार करती है. उसके कारखाने भी हैं और अपनी दुकानें भी. अब तो हमारे आगरा और कानपुर में बने स्थानीय जूतों पर बाटा का ठप्पा लगा माल भी तौल से मिल जाया करता है. बाटा ही क्या? अन्य नामी जूता कंपनिया भी अपना प्रोडक्ट ईनामी कूपनों के साथ बाजार में सेल लगाकर रखती हैं, जिनमें ऐक्शन, लिबर्टी, रिलैक्सो, पैरागॉन, रीबौक, लखानी ग्लाइडर्स, ला-बेला, तथा रेड चीफ जैसे महंगे व क्वालिटी जूतों का जोड़ा हर गली/बाजार में बड़े बड़े शोरूम्स से लेकर फुटपाथ तक पर विराजमान मिलता हैं. लेकिन आम आदमी की नजर से देखा जाये तो हमारे जोधपुरी-सफारी जूतों और देशी जूतियों का कोई मुकाबला नहीं है.

अगर आपने दिल्ली में लालकिले के अन्दर स्थित म्यूजियम अपनी आँखों से देखा हो तो मुगलकालीन शालीन जूते जरूर देखे होंगे. हैदराबाद के सालारजंग म्यूजियम हो अथवा मुम्बई-जयपुर के म्यूजियम हों, आपने पुराने बादशाहों के अमर जूतों के दर्शन अवश्य किये होंगे. जूतों/जूतियों के अतिरिक्त लेडीज चप्पलों सेंडलों की चर्चा ना की जाये तो जयललिता जी, मायावती बहन, तथा फिलीपीन्स की पूर्व राष्ट्रपति की पत्नी इमेल्डा मार्कोस नाराज हो सकती हैं, जिनके बगलों में आधुनिक कलात्मक पादुकाओं का संकलन हुआ करता है. वैसे किसी को क्यों बदनाम किया जाये, दस-बीस जोड़े तो आजकल आम आदमी भी समेट कर रखता ही है.

अपना देश प्राचीन सभ्यता वाले देशों में एक प्रमुख देश है. यहाँ के धार्मिक लोगों ने अभी तक मथुरा में कृष्ण भगवान के तथा अयोध्या में रामचंद्र जी की  खड़ाऊ संभाल कर रखे हैं. उनकी देखा देखी महात्मा गाँधी जी की चप्पलें तथा नेहरू जी व शास्त्री जी के प्रेरणादायक जूते-चप्पल भी भावी पीढ़ियों के लिए हिफाजत से रखे गए हैं.

अब बात आ ही गयी है तो एक प्री-पौराणिक काल की बात भी बता देता हूँ. ये मुझे अपने बचपन में ही किसी बड़े आदमी ने सुनाई थी. (अफ़सोस कि अब मैं उनका नाम पता भूल गया हूँ.) एक राजा था. वह जरूर कहीं आर्यावर्त  में ही होगा. तब सीमेंट, डामर या रबर की बनी सडकों की कल्पना भी नहीं थी. यहाँ तक कि सूती व रेशमी कपड़ों का ईजाद भी नहीं हो पाया था. जानवरों की खाल के ही आवरण पहने जाते थे. सब नंगे पैर चलते थे. फिर भी राजा तो राजा ही होता है. एक दिन रास्ते में घूमते हुए उसके नरम पैरों में कंकड़ और कांटे चुभ गए. उसने अपने दरबारियों को आदेश दे दिये कि सड़कों में सब तरफ चमड़ा बिछा दिया जाये. राजा का हुक्म बड़ा कठोर था. समस्या ये थी कि इतना सारा चमड़ा लाया कहाँ से जाये. इस बारे में बहुत सोच विचार हुआ, तो एक व्यक्ति ने हिम्मत करके सुझाव दिया कि ‘सड़कों पर चमड़ा बिछाने के बजाय राजा जी के पैरों को चमड़ा लपेट दिया जाये.’ ये क्रांतिकारी विचार राजा जी को भी पसन्द आ गया.

इस प्रकार जूते का बुनियादी आविष्कार हो गया. और आज सारी दुनिया में किस्म किस्म के जूते घरों/ बाजारों में भरे पड़े हैं. शौकीन अथवा अमीर लोगों की बात की जाये तो उनके जूतों के शौक निराले होते हैं. आम लोग भी अब अलग अलग मौकों पर अलग अलग जूते पहनने लगे हैं. शादी वाले जूते, घूमने वाले जूते, खेलने के जूते, पीटी परेड के जूते. पानी में चलने वाले जूते, नहाने के जूते, नाचने के जूते, और अगर खाने के जूतों की बात ना की जाये तो ही अच्छा रहेगा.

अब कंकर और कांटे गुजरे जमाने की चीजें हो गयी है. आम आदमी फोम वाले जूतों की चाहत रखता है. पलना के बच्चे से लेकर स्कूल टाइम तक के जूतों के डिजायनों के क्या कहने हैं. लेकिन आजकल चायना के नक्कालों ने सस्ते व अल्पायु वाले गत्ते, प्लास्टिक, रैक्सीन अथवा नकली चमड़े के जूते बाजारों में ठेल कर जूता बाजार की ऐसी की तैसी कर दी है.
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