रविवार, 4 अगस्त 2013

बैठे ठाले - ६

मैं राजनीतिज्ञ नहीं हूँ और न वर्तमान में किसी राजनैतिक दल से किसी प्रकार सम्बंधित हूँ, पर जब हमारे टी.वी. चैनल्स और कुछ फेसबुक के मित्र नित्यप्रति अपनी राजनैतिक सोच को ठूँस ठूँस कर पिला रहे हैं तो मेरा मन भी वमन  करने को हो रहा है.

लोकसभा के चुनावों को अभी एक वर्ष शेष है, पर ‘कुर्सी पकड़’ की योजना में जो समीकरण बन रहे हैं, वे अभूतपूर्व हैं. कुछ मीडिया वालों ने अपने झूठे-सच्चे प्री-पोल रिजल्ट भी बता दिये हैं, जो सिर्फ एक व्यापारिक चातुर्य के अलावा कुछ नहीं हैं. ऐसे रिजल्ट तो उनसे ज्यादा अच्छी तरह हमारे भविष्यवक्ता ज्योतिषी लोग अंदाजा लगा कर पेलते रहते हैं.

मैंने भी अपने बचे-कुचे बाल यों ही धूप में सफेद नहीं किये हैं. कोई माने या ना माने,  देश की आजादी के समय से ही जो राजनैतिक खिचड़ियाँ समय समय पर पकती रही हैं मैं उनका चश्मदीद गवाह रहा हूँ इसलिए अपनी प्रतिक्रिया देकर मन हल्का कर लेना चाहता हूँ.

देश में व्यवस्था या सत्ता परिवर्तन एक शुभ लक्षण होता है. नए लोग कुछ नए ढंग से सोचते हैं, परन्तु हमारे यहाँ जो भीड़तन्त्र काम करता है उसके नतीजों का आँकलन इतना आसान नहीं होता है. सन १९७७ में मोरारजी भाई की जनता सरकार का जो हश्र हुआ था, वह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है. उस समय भी कांग्रेस हटाओ का नारा था. उद्देश्य सत्ता झपटने का और सुशासन लाने का था.

गुजरात के वर्तमान मुख्यमन्त्री नरेंद्र भाई मोदी एक धूमकेतु की तरह भारतीय राजनैतिक आकाश पर उभरे हैं. ये ध्यान में रखने वाली बात है कि धूमकेतु अल्पायु होता है. यद्यपि उनके शीर्ष पर चढ़ने के संयोग बने हैं, लेकिन भाजपा के अन्दर की लड़ाई के चक्रव्यूह से वे निकल पायेंगे, इस पर अनेक संशय हैं. यदि वे चक्रव्यूह से बाहर निकल भी गए, तो २७२ का जादुई आंकड़ा छू पायेंगे? अभी के समीकरणों से संभव नहीं लग रहा है.

आम लोगों की अपनी अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता हमेशा रही है. जहाँ तक उत्तर भारत के मतदाताओं के विषय में आंकलन किया जाता है, उत्तर प्रदेश में १५ से २० प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं, जिन पर मुलायम सिंह जी की अच्छी पकड़ है. उनके प्रभाव क्षेत्र के बाहर नरेंद्र मोदी जी का नाम आने के बाद जो ध्रुवीकरण हो रहा है, वहाँ मुस्लिम मतदाता मोदी नाम के भूत से इतना सहमा हुआ है कि निश्चित रूप से विकल्प के रूप में फिर से कॉग्रेस से जुड़ने जा रहा है. देश भर में ये जो वोटों का स्विंग होगा, उससे राजनाथसिंह जी का हिंदूवादी कार्ड क्या परिणाम लाएगा, अभी अनुमान नहीं लगाया जा सकता है. ये भी एक सच्चाई है कि हिन्दू वोटर कभी एकमुश्त भाजपा का समर्थन नहीं करते हैं. देश के अब २९ राज्यों में क्षेत्रीय दल अपने अपने हिस्से के वोट समेटेंगे तो कॉग्रेस को बीजेपी के मुकाबले ज्यादा फ़ायदा होगा. अत: तराजू का झुकाव किस ओर रहेगा अभी कहना ठीक नहीं होगा.

आगामी चुनावों में सत्तापक्ष द्वारा पिछले पाँच वर्षों में किया गया काम, बढ़ी हुई महंगाई का स्तर, पेट्रो-डीजल व रसोई गैस की बढ़ी कीमतों का दंश तथा बड़े बड़े घोटालों की कालिख सब सामने लाये जायेंगे, पर ऐन वक्त पर जो चुनावी टोटके किये जाते हैं, जिनसे ‘हवा’ बनती है वे सब आजमाए जायेंगे. इस काम में ये पुराने खिलाड़ी बड़े शातिर हैं. अपनी खास सीटें निकाल कर ले जायेंगे.

कॉग्रेस के बारे में ऐसा जरूर लगता है कि वह इस समय वह पिछड़ रही है क्योंकि उसके पास कोई चमकदार धाकड़ नेता नहीं है, लेकिन कॉग्रेस एक मधुमक्खियों के छत्ते की तरह है, जिसमें एक रानी मक्खी भी होती है. अभी कांग्रेस की उस शक्ति को नकारना या कम आंकना राजनैतिक बेवकूफी होगी.

जब डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री बनाया गया था, तो उस तीर के कई उद्देश्य थे. किसी सिख को प्रधानमन्त्री बनाकर पंजाब में ‘ब्लू स्टार’ की आग को ठंडा करना था. इसके अलावा सारी दुनिया आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रही थी, तो ऐसे समय में एक अर्थशास्त्री को कमान सौंपना दूरदर्शिता थी. डॉ. मनमोहन सिंह का दुर्भाग्य यह रहा कि उनके दूसरे कार्यकाल में बड़े आर्थिक घोटालों की बाढ़ सी आ गयी. ईमानदार व्यक्ति होते हुए भी सारी बदनामी उनको झेलनी पड़ी है/ पड़ रही है. एक महत्वपूर्ण बात ये भी है कि वे थोपे गए प्रधानमंत्री हैं, जिनकी डोर थोपने वालों के हाथों में रही है.

आज फेसबुक पर मेरे एक मित्र ने मुग़ल सल्तनत के आख़िरी बादशाह जफर और अंग्रेजी हुकूमत के आख़िरी वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन के साथ कॉग्रेस के आख़िरी प्रधानमन्त्री के रूप में डॉ.मनमोहन सिंह का चित्र लगाया है. मैं इस विषय में कहना चाहूंगा कि सन १९७७ में भी हम सब को ऐसा ही लग रहा था कि इंदिरा गाँधी कॉग्रेस की आख़िरी प्रधानमंत्री होंगी, लेकिन बाद में तीन चौथाई सीटें जीतकर कॉग्रेस ने लोकसभा में नया इतिहास बनाया था.

कुल मीजान तप्सरा ये है कि जनतंत्री व्यवस्था में राजनेता बदलते रहते हैं, या बदलते रहने चाहिये. मैं अपने उन सभी मित्रों को सादर सलाह देना चाहता हूँ जो कि अतिउत्साहित होकर फेसबुक पर अपने अग्राह्य नेताओं के प्रति आपत्तिजनक अपशब्द इस्तेमाल कर रहे हैं. ऐसा करने से खुद का ही मुँह गंदा होगा और कुछ हासिल नहीं होगा.

पुनश्च : कॉग्रेस और भाजपा दोनों ही बड़ी पार्टियां हैं. ये दोनों चुनावों के धर्मयुद्ध में एक दूसरे पर ‘साम्प्रदायिकता’ का लांछन लगाते रहे हैं, अन्यथा कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के परिपेक्ष्य में चाल चरित्र अलग अलग दिशाओं की तरफ दिखने के अलावा शासन-प्रशासन के तौर तरीकों में दोनों की रीति-नीति में कोई फर्क नहीं है. इस पर एक अमरीकी सांसद ने मजेदार सलाह दी कि दोनों पार्टियों का आपस में विलय हो जाना चाहिए और पार्टी का नाम रखना चाहिए, ‘भारतीय जनता कांग्रेस’.

आप सहमत हों या ना हों वर्तमान राजनैतिक आकाश में तीसरी शक्ति वाम दल कहीं नेपथ्य में खोये से लगते हैं. निश्चित रूप से ये इनके नेतृत्व की कमजोरी है. विश्लेषण बताते हैं कि कॉग्रेस और भाजपा दोनों ही पूँजीवाद के पोषक हैं और परोक्ष रूप से अमेरिका परस्त हैं. देश के असंख्य मेहनतकश, गरीब सर्वहारा लोगों के हितों की रक्षा के लिए देश की सर्वोच्च पंचायत में इनकी उपस्थिति अपरिहार्य है. लेकिन वाम शक्तियां बुरी तरह बंटी हुई हैं. कहीं नक्सलवाद व कहीं माओवाद जैसे बदनाम उग्रवादी कार्यकलापों तक सीमित मालूम पड़ते हैं. इसके अलावा जो राजनैतिक दल अपना समाजवादी नाम रख कर ‘सोशलिज्म’ को बदनाम कर रहे हैं, ‘किंग मेकर’ बन कर मूछों में ताव देने की फिराक में हैं.

अंत में मैं यही कहना कहूँगा कि ये सोचना कि   ‘कोऊ नृप होवे हमें का हानि, चेरी छोड़ होहिं न रानी.’ बहुत गैरजिम्मेदारा होगा.
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