मंगलवार, 6 अगस्त 2013

दूरी

मैं अपनी माँ से केवल ३ किलोमीटर की दूरी पर रहती हूँ, पर ये दूरी इतनी लम्बी हो गयी कि मैं पिछले २२ वर्षों से उससे नहीं मिल सकी हूँ.

मैं अपने ही द्वारा स्थापित एक शैक्षिक एकेडेमी की प्रिंसिपल हूँ. जब छात्र या छात्राओं के साथ उनकी मांएं आती हैं, और अपने बच्चों पर मेरे सामने प्यार और दुलार करती हैं तो मुझे भी अपना बचपन याद आ जाता है. मेरी माँ ने हम दोनों बहनों को बड़े नाज नखरों से रखा था. बहुत महंगे स्कूलों में पढ़ने को भेजा. उसके बड़े बड़े सपने थे, लेकिन जब मुझे के.के. (मेरे पति) से प्यार हुआ तथा मैं उनकी दीवानी हो गयी तो वह मेरी दुश्मन हो गयी. ये उसका अहँकार था या कोई कुंठा, मैं कह नहीं सकती, मगर मेरे प्यार को उसने अपनी स्वीकृति नहीं दी.

मेरे पापा स्वर्गीय गोपाल कृष्ण बेलवाल एक नामी एडवोकेट थे. क्रिमिनल केसेज में वे माहिर वकील थे. अपने मात्र १५ वर्षों की वकालत में उन्होंने इतना कमाया कि आने वाली सात पुश्तों के लिए कम नहीं पडता. उनकी अकाल मृत्यु संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी. माँ का विश्वास था कि किसी ने जहर खिलाकर उनकी ह्त्या की थी. तब दीदी और मैं बहुत नासमझ बच्चे थे. माँ के दुःख से दु:खी रहते थे. माँ एकांत में बैठकर बहुत रोया करती थी. पर वह जल्दी ही संभल भी गयी. पापा के जूनियर्स को ऑफिस संभलाकर खुद उनके साथ बैठने लगी और प्रलेख लेखक यानि अर्जीनवीश का काम करने लगी. कुछ ही समय में अदालत परिक्षेत्र में अपनी अलग पहचान बना ली. माँ बताती थी कि उस पुरुषप्रधान क्षेत्र में उसको बहुत बार अपमान और विषमताओं का सामना करना पड़ा था. विषम परिस्थितियों से जूझते हुए वह आगे जाकर कठोर व्यक्तित्व वाली महिला बन गयी. औरों के सामने वह कभी भी दया की पात्र बन कर नहीं रही. वह ग्रेज्युएट थी और अदालत की कानूनी प्रक्रियाओं से पूरे तरह भिज्ञ भी हो चली थी.

मेरी दीदी रिद्धि बहुत कमजोर मनोबल वाली थी. वह माँ से बहुत डरती थी. उसने माँ की खींची हुई लकीर से बाहर कभी भी पैर नहीं रखा. वह आज बहुत अपने परिवार के साथ जरूर खुशहाल होगी उसके पति भारत सरकार की विदेश सेवा में हैं. सुना है कि आजकल वे फिलीपीन्स की राजधानी मनीला में दक्षिण पूर्वी एशिया के दूतावास में कार्यरत हैं. माँ की मेरे प्रति नाराजी का असर वहाँ भी है. वे लोग मेरे संपर्क में नहीं रहते हैं.

मुझे के.के. से प्यार तब हुआ जब मैं नैनीताल में कुमाऊं यूनिवर्सिटी से बी.एससी. कर रही थी, और के.के. नैनीताल पॉलीटेक्निक में सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे. मेरी सास श्रीमती पद्मावती कांडपाल तब एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका थी. वह भी बहुत कम उम्र में विधवा हो गयी थी. वे बहुत सरल स्वभाव की धार्मिक प्रवृति की हैं. मैंने उनसे अपनी माँ से ज्यादा दुलार पाया है. वे पूरे परिवार के लिए एक समर्पित माँ हैं. उन्होंने अपने दोनों बेटों को रोजगारपरक शिक्षा दिलवाई. मेरे जेठ उत्तर रेलवे में सिग्नलिंग विभाग में इंजीनियर हैं. के.के. ने कहीं नौकरी नहीं की और अपना खुद का आर्किटेक्ट का काम शुरू किया और शहर मे बिल्डिंगें बनाने के ठेके लेते रहे हैं.

जब के.के. ने अपने व मेरे रिश्ते की बात अपनी माँ को बताई तो वह बहुत खुश हो गयी. कार्यक्रम बनाया कि हम दोनों की उपस्थिति में वह मेरी माँ से रिश्ते की बात करेंगी. जब निश्चित तिथि पर वह हमारे घर आई तो मेरी माँ उनका प्रस्ताव सुनकर अप्रत्याशित रूप से आगबबूला हो गयी. मैं छुपने को ही थी कि माँ ने मेरी सास को सबके सामने एक थप्पड़ जड़ दिया. वे लोग अपमानित होकर लौट गए. मेरी मनोदशा इतनी खराब थी कि मैं बयान नहीं कर सकती हूँ. माँ के व्यवहार से मैं शर्मिन्दा थी. गुस्से का उफान मेरे अन्दर भी उमड़ पड़ा. और यह कह कर बाहर आ गयी कि, “मैं आपका घर छोड़ कर जा रही हूँ.”

मैंने सुना माँ जोर जोर से कह रही थी, “जा जा, फिर लौट कर मत आना.”

मैं के.के. के घर आकर खूब रोई. उसकी माँ ने मुझे गले लगा कर कहा, “बेटी, ये सब जिंदगी में होता रहता है. अब ये बता कि आगे क्या इरादा है?”

मैंने दृढ़ता पूर्वक कहा, “अब मैं आपकी बहू बन कर रहना चाहती हूँ.”

घटनाक्रम को नया संचार मिला. जल्दी ही शुभ मुहूर्त निकाल कर हम दोनों का विवाह हो गया. शादी के बाद मैंने एम.एससी. पास की और बी.एड. की डिग्री हासिल की.

के.के. बहुत कर्मठ और उद्यमी हैं. मेरी शैक्षिक योग्यता को सार्थक बनाने के लिए उन्होंने एक नर्सरी स्कूल खोलने में भरपूर मदद की, और धीरे धीरे इस स्कूल को विस्तार देते रहे. इन पन्द्रह सालों में ये नन्हा सा पौधा अब बड़ा पेड़ बन गया है. मेरे नाम पर ही इसका नाम ‘सिद्धि एकेडेमी’ रखा गया. इसमें मेरी सासू माँ का मार्गदर्शन बहुत काम आया. वे सरकारी नौकरी में प्रधानाध्यापिका के पद से रिटायर हो चुकी हैं. के.के. एकेडेमी के सफल व्यवस्थापक हैं. दिन रात कुछ नया सोचते रहते हैं. इस वक्त कुल बच्चों की संख्या करीब आठ सौ तक पहुँच गयी है. पर्याप्त ट्रेंड स्टाफ कार्यरत है. बिल्डिंग हर साल बड़ी होती जा रही है. बच्चों के लिए प्लेग्राउंड, वाचनालय, जिम और प्रयोगशाला सब की यथोचित व्यवस्था है. मेरे अपने दोनों बच्चे (एक बेटा और एक बेटी) यहीं हाईस्कूल कक्षाओं में पढ़ रहे हैं.

मैं अपने ऑफिस के बाहर बाल्कनी में खड़ी होकर भविष्य की अनंत संभावनाओं को देख रही हूँ.

आज एक स्थानीय अखबार में खबर छपी है कि "अर्जीनवीस पार्वती बेलवाल गंभीर रूप से बीमार है." पढ़कर मेरे तनमन पर एक अजीब सी झुरझुरी दौड़ पड़ी है. सोच रही हूँ कि मेरी रगों में उसी का खून दौड़ रहा है. मैं उसी का अंश हूँ, पर मैं मजबूर हूँ ‘वचनों’ से बंधी हुई हूँ. वहाँ नहीं जा सकती हूँ.

मुझे उदास व बेचैन देखकर मेरी सासू माँ मेरी मनोदशा को भांप गयी. और बोली, “अरे, माँ तो माँ होती है, ज्यादा से ज्यादा अपमान ही तो कर पायेगी. जा उनसे मिल आ. बच्चों और करन को भी साथ ले जा. अन्यथा मन में मलाल रह जाएगा.”

के.के. सुन रहे थे, बोले, “मैं गाड़ी निकाल रहा हूँ”.
***

5 टिप्‍पणियां:

  1. मार्मिक कहानी, अपनों का प्यार जितना गाढ़ा होता है, उतना गाढ़ा क्रोध भी।

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  2. दोनों विधवाओं में कितना अंतर है एक प्रेम से भरी हुई है दूसरी जातीय अभिमान से इसी का विकृत रूप है -आनर किलिंग्स जो वास्तव में डिस -आनर किलिंग से आगे निकल जघन्य ह्त्या है। समान्तर सेकुलर प्रबंध है। बढ़िया मर्म स्पर्शी ताना बाना है कहने का पात्रों का सभी का चरित्र मुखर है।

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  3. मार्मिक,पूर्वाग्रहों से अभिशप्त समाज का चित्र उकेरती कहानी

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