रविवार, 15 सितंबर 2013

परोपकार

परोपकार का संधिविग्रह, पर+उपकार, यानि दूसरों पर कृपा करना होता है.

कभी कभी हमको अखबारों या अन्य सचार माध्यमों से मालूम होता है कि आज भी बहुत से अच्छे लोग सँसार में इस महान संकल्प के साथ जी रहे हैं. दुःख में दुखी लोगों की निस्वार्थ भाव से मदद करना, विपन्नता में आर्थिक मदद करना और सामाजिक परिवेश में रक्तदान, नेत्रदान, या अंगदान जैसे परमार्थ के काम कर जाते हैं. जो लोग स्वार्थी होते हैं, वे कभी भी परमार्थ के काम नहीं कर सकते हैं.

हमारी नैतिक शिक्षा में परोपकार सम्बन्धी बहुत से दृष्टान्तों तथा सत्य घटनाओं का जिक्र होता है, जिनको पढ़ कर, समझ कर, जीवन में बहुत खुशियाँ पाई जा सकती हैं.

कहानीकार जोसेफ जैकब ने ‘शेर और ऐन्द्रक्ल्स’ की एक बहुत मार्मिक कहानी लिखी है, जिसमें प्राचीन समय में रोम में ऐन्द्रक्ल्स नाम का एक गुलाम अपने दुष्ट मालिक के चंगुल से भाग कर जंगल की तरफ चला जाता है, जहाँ उसे एक घायल शेर मिलता है. उसके अगले पंजे में काँटा गढ़ा हुआ था और वह बुरी तरह कराह रहा था. ऐन्द्रकल्स ने हिम्मत करके उसके पंजे से काँटा खींच कर निकाल दिया. शेर ने उसे खाया नहीं. इस प्रकार ऐन्द्रक्ल्स ने उस पर उपकार किया. बाद में एक दिन ऐन्द्रक्ल्स सिपाहियों द्वारा फिर पकड़ लिया गया. सम्राट ने उसे भागने के जुर्म में भूखे शेर के बाड़े में डलवा दिया. तमाशबीन लोग देख रहे थे, पर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उस भूखे शेर ने उसको खाने के बजाय दुम हिलाकर प्यार करना शुरू कर दिया. दरअसल ये वही शेर था, जिसके पंजे में से ऐन्द्रक्ल्स ने काँटा निकाला था. सम्राट ने वास्तविकता जानने के बाद दोनों को प्राणदान दिया. शेर को भी जंगल में छोड़ कर आजाद कर दिया. इस कहानी का आदर्श यही है कि परोपकार करना चाहिए और कोई आपके साथ परोपकार करता है तो उसे भूलना नहीं चाहिए.

संस्कृत साहित्य जो हमारी सभी भारतीय भाषाओं की जननी है, उसमें एक सुन्दर प्रेरणादायक श्लोक इस प्रकार लिखा है:

परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:
परोपकाराय दुहन्ति गाव:
परोपकाराय बहन्ति नद्य:
परोपकाराय इदं शरीरम.

इसे कोरी किताबी बात ना समझा जाये और जीवन के जिस मोड़ पर भी मौक़ा मिले परोपकार करके आनंदित होना चाहिए. आज के जमाने में यदि हम किसी पर कोई मेहरबानी नहीं सकते हैं, तो किसी का बुरा भी ना करें, पीड़ा ना पहुचाएँ, ये भी परमार्थ ही समझा जाएगा.
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