गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

पत्र


नटवर की श्रृष्टि में
 ऊष्मा पर वृष्टि की
  पड़ती है दृष्टि भी.
   यों ही पलटते हैं-
    पल-क्षण घटी- घटा,
     दिन माह और वर्ष भी.

सकुशल क्षेम देती है
 प्रतीक्षा तेरे पत्र की
  इसी धुन में विस्मृत होता हूँ
   पत्र लिखना मैं भी.

यथायोग्य शब्द की
 यथायोग्य व्याख्या हो,
  इस मन के भावों की
   मन ही मन व्याख्या हो.
             ***

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर रचना , बधाई.

    मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारें.

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  2. यथायोग्य शब्द की
    यथायोग्य व्याख्या हो,
    इस मन के भावों की
    मन ही मन व्याख्या हो.

    गहरे भाव.

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