चम्पावत के पास सक्न्यानी गाँव का २२ वर्षीय प्रेमानंद बड़ा संजीदा-सुगढ़ नौजवान था. दूर मुनस्यारी के निकट एक गाँव में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड अल्मोड़ा (तब अल्मोड़ा विभाजित नहीं था) के प्राइमरी स्कूल में उसे अध्यापक के रूप में नियुक्ति मिली हुई थी. वह दो दिनों के लिए अपने घर आया हुआ था. ना जाने उसकी बुद्धि क्यों खराब हुई उसने अपनी सोडशी पत्नी मधुली को बड़ी बेरहमी से काट डाला. हत्याकांड जंगल में हुआ, जहाँ औरतें घास लेने गयी हुई थी. बहिनें, भाभियाँ-घस्यारियाँ देखती चिल्लाती रह गयी.
प्रेमानंद ये दुष्कृत्य करके सीधे राजस्व पुलिस पटवारी के पास खुद ही गिरफ्तारी देने चला गया. उसे गिरफ्तार करके सीधे जेल भेज दिया गया. बाद में उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी. ये सन १९४१ की बात है. पता नहीं मधुली से ऐसा क्या अपराध हुआ कि प्रेमानंद को इतना पागलपन सवार हुआ. किसी की समझ में नहीं आया. क्या उसमें कोई चरित्र-दोष उसने देखा या कुछ और बात थी? राज बाहर नहीं आया. इस तरह पत्नी की नृशंश ह्त्या, बर्बरता तो थी ही, परिवार के लिए दु:ख और शर्म भरा आघात भी था.
पूरे इलाके में इसकी चर्चा हुई, इस तरह का कत्ल यहाँ ‘मैंस-मार’ (मनुष्य को मार देना) पहली बार देखा-सुना गया. बहू बेटियाँ सब भयभीत हो गयी. कोई कहता कि इसमें जरूर इसके जालिम बाप बालादत्त की कारस्तानी होगी क्योंकि उस पर भी एक कलंक अपनी माँ को लात मारने का जग जाहिर था. उसे माँ ने श्राप दिया था कि “तेरा भला नहीं होगा.” माँ भी ऐसी थी कि उसकी जीभ पर काला तिल विराजमान था, जो कहती थी वह सच होकर रह जाता था. वैसे वह बड़ी धर्मात्मा प्राणी थी. बचपन में ही बड़े बूढों के साथ गया, काशी, मथुरा-बृंदावन और उत्तर में गंगोत्री, यमुनोत्री, व बदरीनाथ सब जगह पैदल तीर्थ यात्रा करके दैवी शक्तियां तथा आत्मविश्वास कमा चुकी थी.
इस दुर्घटना के बाद वास्तव में बालादत्त की पूरी पारिवारिक व्यवस्था तहस-नहस हो गयी. भाइयों में बिद्रोह-बिछोह हो गया, घर के पालतू जानवरों का नुकसान होने लगा, 'छरबट-बरबट’ हो गया. पुरोहित की सलाह पर इष्टदेवों का पूजन व बलि आदि देकर गृह शान्ति की कोशिश की गयी पर जो क्षति हो चुकी थी वह अपूरणीय थी.
बालादत्त ने माँ का पग पूजन किया. २१ बार क्षमा माँगी ताकि माँ का श्राप हल्का हो जाये. बुढ़िया ने कहा कि “मैं तुझे अपनी तरफ से माफ करती हूँ और अपना श्राप वापस लेती हूँ, पर मेरी मृत्यु के उपरान्त तू मेरी चिता को अग्नि नहीं देगा.” कालान्तर में ये भी सच हुआ.
इस बीच जब द्वितीय विश्व युद्ध हुआ तो अंग्रेजों ने कैदियों को सैनिक प्रशिक्षण देकर मोर्चे पर भेज दिया. प्रेमानंद भी इस योजना के अंतर्गत मिडिल-ईस्ट में भेज दिया गया और युद्ध समाप्ति पर एक सिपाही की ड्रेस में पीठ पर पिट्ठू लेकर साथ में नेपाली डोटियाल कुली पर बक्सा-बिस्तर का बोझ लाद कर सन १९४६ में घर आ गया. उसकी सजा माफ हो गयी थी.
पूरे गाँव-बिरादरी को बुलाकर प्रेमानंद की चंद्रायण की गयी और परिवार को मुख्य धारा में शामिल किया गया. एक साल बाद प्रेमानंद का लोहाघाट से एक गरीब की १६ वर्षीय कन्या से दूसरा विवाह किया गया. प्रेमानंद के कुछ बर्षों बाद दो पुत्र हुए और गृहथी की गाड़ी फिर से पटरी पर दौड पड़ी लेकिन ‘मैंस-मार’ का कलंक धुला नहीं. प्रेमानंद अब इस सँसार में नहीं है पर आज भी अगली पीढ़ी को पुराना दंश सहना पडता है.
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