मंगलवार, 31 जुलाई 2012

मेरे ब्लॉगिंग का एक वर्ष

स्वलिखित रचनाओं को नियमितरूप से अपने हिन्दी ब्लॉग, ‘जाले’ में डालते हुए एक वर्ष पूरा हो गया है. इसके पीछे प्रेरणा मेरी बेटी गिरिबाला जोशी रही है, जो अपने पति श्री भुवनचंद्र जोशी व बिटिया हिना जोशी के साथ अटलांटा, (अमेरिका के जार्जिया राज्य) में रहती है. मेरा लेखकीय गुण बेटी में भी स्वाभाविक रूप से विकसित हुआ है. बनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान, से उसने इनॉर्गनिक कैमिस्ट्री में एम.एससी. किया है, और हिन्दी तथा अंग्रेजी दोनों साहित्य मे उसकी अच्छी पकड़ है. वह बचपन से ही नियमित पढ़ाकू रही है और पिछले कई वर्षों से अपने अंग्रेजी ब्लॉग, ‘The Grist Mill: Bring Your Own Grain’ व हिंदी ब्लॉग, 'द ग्रिस्ट मिल: आटा चक्की' में बहुत अच्छे अच्छे लेख, व्यंग, तथा विविध रचनाएँ प्रकाशित करती रही है. आज उसके ब्लॉग बहुत लोकप्रिय हो गए हैं. उसने अंग्रेजी में भारत के समसामयिक राजनैतिक+सामाजिक हालात पर एक सम्पूर्ण उपन्यास भी लिखा है, जिसके लिए वह प्रकाशक ढूंढ रही है.

मैं कोई बड़ा साहित्यकार तो नहीं हूँ, पर लिखना बचपन से ही मेरा शुगल रहा है. अनेक अंड-बंड कहानियां मैंने लिखी हैं, जो अभी तक पुरानी फाइलों में पडी हैं, कुछ समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपती भी रही हैं. उनमें मुझे अब बहुत कमियां नजर आती हैं. इसलिए जब समय मिलेगा तो परिष्कृत करके प्रकाशित करता रहूँगा.

मैंने हिन्दी साहित्य में पंजाब विश्वविद्यालय से संन १९५९ में ‘प्रभाकर’ (हिन्दी आनर्स) की परीक्षा पास की थी. इस परीक्षा की तैयारी से ही मुझे हिन्दी का व्याकरण व समालोचक विषयबोध हुआ जो आगे जाकर मुझे लेखन में बहुत सहायक हुआ है.

मैं अपनी नौकरी के दौरान लगभग २७ वर्षों तक एक ट्रेड यूनियन लीडर की भूमिका भी निभाता रहा. सन १९७० से ७४ तक जब मैं उत्तरी कर्नाटक में स्थानान्ततरित रहा तो वहाँ मैं वामपंथी नेता स्वर्गीय श्रीनिवास गुडी के संपर्क में आया, उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला. वे एक ईमानदार गांधीवादी कम्यूनिस्ट थे, सरल सुजान और कर्तव्यनिष्ट थे. किसानों के लिए काम भी करते थे. लोग कहेंगे कम्युनिस्ट और गांधीवादी दोनों एक साथ कैसे हो सकता है? पर वे थे. उन्होंने मुझे अपना जनरल सेक्रेटरी बनाया और मुझे दीवार पर बने बड़े ब्लैक बोर्ड पर ‘जन सन्देश’ लिखने का तौर तरीका भी सिखाया. बाद में जब मैं पुन: लाखेरी, राजस्थान, आ गया तो १९७५ से १९९८ तक कर्मचारी युनियन का पदाधिकारी रहा और फैक्ट्री गेट पर उसी तरह का बड़ा ब्लैक बोर्ड बनवाकर नियमित रूप से हर सुबह मैं एक ब्लॉग की ही तरह चाक से सन्देश लिखा करता था. मेरा यह ब्लैक बोर्ड बहुत लोकप्रिय हुआ क्योंकि संदेशों में अनेक तरह की जानकारी होती थी तथा उसकी प्रामाणिकता भी होती थी.

कवितायें /अकविताएँ मैंने तब लिख मारी थी जब पसीना गुलाब हुआ करता था. अब पिछले कई वर्षों से कोई कविता उपजती ही नहीं है. ब्लॉग में जो कवितायें डालता रहा हूँ, सभी मेरी पुरानी डायरियों में संग्रहित हैं.

पिछले वर्ष जुलाई में जब मैं सपत्नी बेटी-दामाद के आमंत्रण पर अमेरिका प्रवास पर निकला तो गिरिबाला के अनुरोध पर अपनी कविताओं वाली डायरी भी साथ ले गया. गिरिबाला का विचार था कि उसमें से चुनिन्दा कविताओं को इंटरनेट के जरिये सुरक्षित कर लिया जाये. तब मुझे ब्लागिंग की ए बी सी भी मालूम नहीं थी. कंप्यूटर का ज्ञान भी काम चलाऊ ई-मेल तक ही सीमित था. गिरिबाला ने ही मेरा ब्लॉग बनाया, ब्लॉग का नाम ‘जाले’ उसने मेरे १९६७ में छपे कविता संग्रह ‘जाले’ से लिया उसने मुझे ब्लॉग में लिखना बताया और वह स्वयं मेरे लेखन की प्रूफरीडर भी रही, आज भी है. शुरू में तो कुछ छोटी छोटी कवितायें ही इसमें डाली गयी पर बाद में अमेरिका में रहते ही मेरी सरस्वती उजागर रही और मैंने अपने आसपास के चरित्रों-घटनाओं को कहानियों का रूप दे कर हिन्दी सॉफ्टवेयर की सहायता से इसमें डालना शुरू किया. मेरे दामाद जो एक इलेक्ट्रोनिक इंजीनियर हैं, उन्होंने मेरी इस विधा में मार्गदर्शन किया. कभी कभी अब मुझे लगता है कि लिखने के मसलों का गोदाम खाली हो गया है, पर अभी तक गाड़ी चल ही रही है.

ब्लॉग में एकरसता के रहते पढ़ने वालों को अरुचि ना हो इसलिए ६ खंड बनाये हैं (१) कवितायें, (२) कहानियां, (३) संस्मरण, (४) चुटकुले, (५) किशोर कोना, (६) सामयिकी. चुटकुलों को चुहुल नाम दिया है. ये चुटकुले मेरे द्वारा कई वर्षों से संकलित किये गए हैं. सचाई ये है कि क्लब या किसी मनोरंजन कार्यक्रमों के आयोजनों में अकसर मुझसे लतीफे सुनाने की फरमाईश होती रहती थी मुझे पहले से इसकी तैयारी करनी पड़ती थी. वही सब मैंने पुस्तकाकार में ‘लतीफे जो मुझे याद हैं’ शीर्षक से बटोर रखे हैं. किशोर कोना बच्चों के पठन व ज्ञानवर्धन के लिए लिखना उचित समझा मेरे पोते पोतियां भी बड़े चाव से इसको पढ़ा करते हैं, मुझे खुशी होती है.

हिन्दी ब्लॉग लिखने वाले लेखकों ने अनेक प्रकार से आपस में चैनल बनाए हुए हैं, जिनमें हमारी वाणी, ब्लॉगर्स ऐसोसिएशन, चर्चामंच, ब्लॉगअड्डा, और साइंस ब्लागर्स आदि हैं. कुछ लेखक मित्र मेरी रचनाओं को उक्त माध्यमों से पढ़ते हैं और अपने लिखे को पढने के लिए मुझे उत्साहित करते रहते हैं. बहुत अच्छा लगता है कि हमारे हिन्दी लेखक परिवार में हजार से भी ज्यादा लोग हैं. लेकिन मुझे एक बात खलती है कि लोग लोग सिर्फ अपनी तारीफ़ चाहते हैं, होना ये चाहिए कि टिप्पणियों में लेखन की कमियों को भी उजागर किया जा सके ताकि सुधारा भी जा सके.

मैं इस लेख द्वारा अपने सभी पाठकों का दिल से अभिनन्दन करता हूँ और चाहता हूँ कि अपनी बेबाक टिप्पणियों से मुझे अनुग्रहीत करते रहें. 

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रविवार, 29 जुलाई 2012

चुहुल - २८

(१)
पत्नी की मृत्यु के उपरान्त एक व्यक्ति विलाप कर रहा था, “जब मेरा बाप मरा तो सारे गाँव के बुजुर्गों ने हमदर्दी जताई, कहते थे, "अब तू हमें अपना बाप समझना." जब मेरी माँ मरी तो गाँव की बड़ी बूढी महिलाओं ने कहा कि “तू हमें अपनी माँ समझना.” अब मेरी बीबी गुजर गयी तो एक भी महिला ने आकर ये नहीं कहा कि "तू मुझे अपनी बीवी समझना"


(२)
एक नेपाली डोटियाल (बोझा ढोने वाला मजदूर) ने एक बड़े ऑफिसर को रास्ते चलते “शलाम शाब” बोला तो उन्होंने उसकी डोटीयाली पोशाक देख कर कहा, “कैसा है बहादुर?” और आगे बढ़ गए. वे शायद ही उसे जानते होंगे, इस पर  डोटियाल के दूसरे साथियों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि 'इतने बड़े साहब से इसकी जान पहचान है’ एक ने उससे पूछा “दाई, यो शाब तेरी को केशे पहचानता है?”
डोटीयाल बहादुर गर्व से बोला, “अरे, मैं रेल पटरी पर लोटा लेकर बैठा था, शाब ने मेरे को देखा तो जोर से बोला, “डैम फूल,” मैं खड़ा हो गिया और शाब को शलाम कर दिया तब से पहचान हो गयी.”


(३)
एक शहरी लड़के का दोस्त गाँव से आया और उसे वह एक दिन सिनेमा दिखाने थियेटर ले गया. दो किमाम वाले पान भी चबाने के लिए रख लिए. जब पिक्चर शुरू हुई तो उसने पान निकाले, एक खुद के मुँह में डाला और एक दोस्त को दे दिया.
हाल मे बढ़िया कालीन बिछी थी इसलिए नीचे थूकने की समस्या हो गयी. दोस्त ने पूछा “कहाँ थूकूं?” उसने तरकीब बताई कि "बगल वाले की कोट की जेब में थूक दे."
“उसको मालूम पड़ेगा तो मारेगा,” दोस्त ने धीरे से कहा.
वह बोला, “अबे, मालूम नहीं पड़ेगा. जब मैंने तेरी जेब में थूका था तो तुझे मालूम पड़ा क्या?”


(४)
एक बाप ने अपने स्कूल जाने वाले बेटे से कहा “तू ज्यादा बुद्धिमान है या मैं?”
बेटा बड़ी शालीनता से बोला, “ पापा ये तो पहले से ही सिद्ध है कि बाप से बेटा ज्यादा बुद्धिमान होता है.”
“वह कैसे?” बाप ने पूछा.
बेटे ने उत्तर दिया, “देखिए, इतिहास बताता है कि जेम्स वाट, आइन्स्टाइन, महात्मा गाँधी, ओबामा या अब्दुल सलाम जैसे व्यक्तियों ने वह कर दिखाया जो उनके बाप नहीं कर सके.”
                                                
(५)
एक गाँव में एक झगड़ालू आदमी ने जिंदगी भर किसी ना किसी बात पर मुकदमे करके पूरे गाँव वालों को परेशान करके रखा. और जब मरने का समय नजदीक आया तो सब को बुला कर अपनी करनी के लिए माफी मांगने लगा, बोला, "मेरे मरने के बाद आप लोग मेरे गुनाहों की सजा मुझे जरूर देना.” एक लकड़ी का खूंटा देकर फिर बोला, “इसे मेरे शरीर में ठोक देना और सारे गाँव मे मेरी लाश घुमा कर फिर शमशान ले जाना.”
गाँव वालों ने उसकी अन्तिम इच्छा पूरी करने के लिए उसकी खूँटा गड़ी हुई लाश गाँव में घुमाई तो पुलिस को खबर हो गयी. पुलिस ने उसको मार देने के जुर्म में सारे गाँव वालों पर मुकदमा दायर कर दिया.


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शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

देवो न जानति

अविभाजित संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के अविभाजित अल्मोड़ा जिले में एक सुन्दर पठारीय जगह है, सानीउडियार, उसके चारों ओर खुला विहंगम परिदृश्य कुमायूं के अंग्रेज कमिश्नर को बहुत भाया. उसका मन था कि वहीं अपना एक घर बनाया जाय, पर जल्दी ही उसका स्थानांतरण गढ़वाल को हो गया. उसने अपने मित्र पादरी डैनियल हार्बर को अपने मन की बात बताई. पादरी साहब का उन दिनों पूरे पहाड़ी क्षेत्र में सर्वे चल रहा था कि ‘कहाँ कहाँ धर्म प्रचार सफल हो सकता है? कमिश्नर साहब की बात को गंभीरता से लेते हुए उन्होंने सानीउडियार के पठार के मध्य में एक छोटा सा कैथोलिक चर्च बनवाया, साथ में कुछ रिहायसी कमरे, दवाखाना व स्कूल के दो कमरे भी बनवाए. वे खुद भी आसपास गाँवों के गरीब बच्चों को बुला बुला कर पढ़ाने की जहमत उठाने लगे, पर उनका मूल उद्देश्य तो ईसाई धर्म का प्रचार करना था. कांडा से लेकर बेरीनाग, सेराघाट तक उन्होंने अपना स्थानीय कार्यक्षेत्र बनाया.

कुछ गरीब पिछड़ी जातियों के लोग जो सांस्कृतिक दृष्टि से समाज की मुख्य धारा से विरत थे, जैसे लोहार, ओड़, ढोली आदि को उन्होंने आर्थिक मदद व नौकरियों का भरोसा देकर गुप चुप अपना कारोबार शुरू कर दिया. तब देश मे अंग्रेजों का दबदबा भी था. बीसवी सदी के प्रारंभिक दशकों में इस दूर दराज तक आजादी के आन्दोलन अथवा स्वराज्य की मांग की बातों का कोई जिक्र इस श्रेणी के लोगों को मालूम भी नहीं था. इस इलाके में अधिकतर लोग गरीब काश्तकार थे, हिन्दू धर्म में आस्था रखते थे.

हरिया उर्फ हरिराम एक आठ साल का लड़का अपनी गरीब विधवा माँ चनुली के साथ चर्च परिसर में आता रहता था, उसकी माँ को मात्र पाँच रूपये माहवार पर साफ़ सफाई के काम के लिए पादरी साहब ने नियुक्त कर रखा था. पादरी साहब ने हरिया को देखा तो उन्होंने उसकी माँ से बात की कि ‘उसे पढ़ने के लिए अन्य लडकों के साथ उनके पास भेजा करे’. चनुली अनपढ़ शिल्पकार जाति की औरत थी. पढ़ाई का मतलब भी नहीं जानती थी, पर जब पादरी साहब का हुकुम हो गया तो मना करने का कोई कारण नहीं था.

पादरी साहब को हरिया में भविष्य की अपार संभावनाएं नजर आ रही थीं. उसने पाँच साल तक पादरी साहब के पास रह कर अंग्रेजी लिखना, पढ़ना व बोलना सीख लिया. पादरी साहब ने उसका नाम हरिया/हरीराम से बदल कर हैरिस लिख दिया. बाद में मिशन के खर्चे पर उसे सेंट थोमस बोर्डिंग स्कूल में बरेली भेज दिया गया. पादरी साहब की उस पर पूरी निगरानी थी, वे उसे डॉक्टर बनाना चाहते थे. उन दिनों नजदीक में कोई मेडिकल स्कूल/कॉलेज भी नहीं हुआ करता था. मध्य भारत के इंदौर शहर में डॉक्टर समीरण मुखर्जी नाम के एक बंगाली डॉक्टर एक मेडीकल स्कूल चलाते थे, जिसे सरकार द्वारा मान्यता भी मिली हुई थी. हैरिस को वहाँ एल.एम.पी.(लाईसेंसिएट फॉर मेडिकल प्रेक्टिस ) के तीन वर्षीय कोर्स के लिए भर्ती करा दिया गया.

प्रिंसिपल डॉ. समीरण मुखर्जी पक्के कर्मकांडी ब्राह्मण थे. वे तमाम हिन्दू धर्म की आस्थाओं से बंधे हुए रहते थे. जब उन्होंने हैरिस के बारे में व्यक्तिगत जानकारी ली तो उनको पादरी साहब द्वारा हरिराम का नाम बदल कर हैरिस कर देना बिलकुल गँवारा नहीं हुआ. उनकी सलाह पर हैरिस का नाम रिकार्ड मे सुधार करके हरिप्रसाद आर्य कर दिया गया और जब उसे लाइसेंस का डिप्लोमा दिया गया तो उसमें पूरा नाम डॉ. हरिप्रसाद आर्य लिखा गया. चूँकि इस बीच पादरी साहब स्वर्ग सिधार गए थे, नाम बदलाव पर कोई बवाला भी नहीं हुआ.

डॉ. हरिप्रसाद को इंटर्नशिप पूरी करते ही रेलवे में मेडीकल ऑफिसर के रूप में नियुक्ति मिल गयी उनकी पहली पोस्टिंग डिब्रूगढ़, आसाम मे हुई. बिना देर किये उन्होंने नौकरी शुरू कर दी. डॉ. हरिप्रसाद आर्य को डिब्रूगढ़ में सब तरफ से आदर–सम्मान मिला, और वे अपने पेशे में माहिर होते चले, लेकिन वहाँ उन्होंने अपने परिवार एवँ सामाजिक इतिहास पर किसी को कुछ नहीं बताया. बताना जरूरी भी नहीं था. कहीं ज्यादा पूछताछ हुई भी तो उन्होंने खुद को ब्राह्मण बताने में गुरेज नहीं किया. डॉक्टर साहब सामान्यतया देखने में सुन्दर थे, मितभाषी थे. वे नीलकंठ चक्रबोर्ती के मकान में किराए से रहते थे. चक्रबोर्ती साहब की तीन कन्याओं में से एक अम्बालिका से उनकी आशनाई हो गयी. बात खुलने पर घरवालों ने उनके साथ रिश्ता करने की बात सहज में प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार कर ली. शादी हो गयी हालाँकि वर पक्ष का कोई व्यक्ति वहाँ नहीं आया.

चार वर्षों के अंतराल में  अम्बालिका  ने दो पुत्रों को जन्म दिया. अम्बालिका नित्य घर में पूजा-पाठ करवाती रहती थी, उनकी सुखी गृहस्थी थी किसी प्रकार का तनाव नहीं था. समय हमेशा एक सा नहीं रहता है. एक दिन डॉक्टर हरिप्रसाद का स्थानांतरण बरेली हो गया. इसके लिए उन्होंने स्वयं आवेदन भेजा था. अपने विभागीय साथियों-कर्मचारियों तथा ससुरालियों से विदाई लेकर वे सपरिवार बरेली आ गए. बरेली में रेलवे कॉलोनी में उनको अच्छा बड़ा घर मिल गया. अम्बालिका बच्चों की देख रेख के साथ ही अपनी धार्मिक आस्थाओं के प्रति समर्पित रहती थी. सब ठीक चल रहा था. एक दिन डॉक्टर हरिप्रसाद की बूढ़ी माँ अपने भाई चनरराम को साथ लेकर ढूंढते हुए बरेली में अपने बेटे के पास पहुँच गयी. पिछले वर्षों में हरिप्रसाद ने अपनी माँ से बहुत कम संपर्क रखा था पर बरेली आने के बाद वे उससे मिलने सानीउडियार जरूर गए. अपनी शादी-वैवाहिक जीवन के बारे में उन्होंने माँ को कुछ नहीं बताया था.

इधर देश आजाद हो चुका था. पिछड़े/दलितों को भी अब ‘सेवा’ की जगह ‘जयहिंद’ वाला अभिवादन समझ में आ गया था. जातीय जागृति व समानांतर हवा ने सबकी सोच में परिवर्तन ला दिया था. चनुली अब काफी वृद्ध हो चुकी थी, पर बेटे को डॉक्टर के रूप में देखना उसके लिए युगान्तकारी परिवर्तन से कम नहीं था. उसने सुशिक्षित बहू और पोतों को देखा तो वह पहले तो कुछ समझ नहीं पाई, लेकिन जल्दी ही उसकी समझ मे आ गया कि बेटा अब पंडितों की पंगत मे आ गया है.

अम्बालिका  की समझ में भी आ गया कि डॉक्टर ने खुद को ब्राह्मण बता कर उसके साथ धोखा किया है, वह शिल्पकार का बेटा है. उसे मानसिक रूप से बहुत बड़ा झटका लगा. वह पगला सी गयी. डॉक्टर, उनकी माँ तथा मामा को जातिसूचक अपशब्दोयुक्त गालियां देने लगी. जब स्थिति खतरनाक लगने लगी तो चनुली और उसका भाई जल्दी ही सानीउडियार लौट गए.

हँसते खेलते घर मे जहर घुल गया, अम्बालिका काबू से बाहर हो गयी. पति से तिरस्कार पूर्वक जोर जोर से बातें करती तो कॉलोनी के बासिंदों ने भी सुनी, कानाफूसी हुई. एक ब्राह्मण की लड़की  का धर्म भ्रष्ट करने की तोहमत लगाते हुए बहुत बदनामी हो गयी.अम्बालिका  ने पत्र लिखकर अपने भाइयों को बुला लिया और पति व बच्चों को उनके हाल पर छोड़कर आसाम लौट गयी. वाणी से निकले अपशब्दों के घाव इतने गहरे लगे कि डॉ. हरिप्रसाद ने अम्बालिका से कभी नहीं मिलने का प्रण कर लिया.

अब डॉ. हरिप्रसाद के पास धैर्य रखने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था. उन्हें मालूम था कि चक्रबोर्ती परिवार अपनी धर्मान्धता के कारण उनको कभी क्षमा नहीं करेगा. इसलिए दोनों बेटों की पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करते हुए अकेले ही अपनी जीवन की गाड़ी खींचने का निर्णय ले लिया. हाँ अपनी माँ चनुली को उसके आख़िरी दिनों में अपने साथ ले आये. उसकी भरपूर सेवा सुश्रुषा की गयी.

दोनों बेटों को पढ़ने के लिए नैनीताल के बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया गया. वे पढ़ते गए और बढ़ते गए. वर्षों के अंतराल में डॉ. हरिप्रसाद आर्य सी.एम.ओ. के पद से रिटायर हुए तो उन्होंने इज्जतनगर में एक शानदार दुमंजिला मकान बनवाया, जिसकी निचली मंजिल पर अपनी क्लीनिक खोल ली. क्लीनिक का नाम रखा ‘अम्बालिका धर्मार्थ औषधालय.’ जहाँ वे गरीब लोगों को मुफ्त सलाह व दवाएँ दिया करते हैं. दोनों बेटे लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज से डिग्री हासिल कर अलग अलग अस्पतालों मे कार्यरत हो गए. कालान्तर मे दोनों ने ही अपनी सहकर्मी महिला डाक्टरों से प्रेम विवाह किया.

डॉक्टरों का यह परिवार सब तरफ से संपन्न व वैभवपूर्ण जीवन जी रहा है. अब कोई वर्ण या जाति का दंश भी नहीं है, पर डॉ. हरिप्रसाद को उनका गुजरा हुआ कल बहुत कचोटता आ रहा था. ८२  वर्ष की उम्र में एक बार अस्वस्थ होने पर उन्होंने अपने बेटों को अपने अंत:करण की पीड़ा बताई और कहा कि वे डिब्रूगढ़ जाकर अपनी माँ की कुशल लेकर आयें.

जिन परिस्थितियों में छोटे बच्चों को छोड़ कर माँ चली गयी थी, बच्चों के मन मस्तिष्क पर उसके प्रति कोई आदरभाव नहीं था. वे तो केवल ‘पापा के बेटे’ थे. फिर भी पिता के निर्देशानुसार वे डिब्रूगढ़ मामा के पते पर पहुँचे जहाँ उनको बताया गया कि अम्बालिका ने तो बरसों पहले बरेली से लौटने के कुछ दिन बाद ही आत्महत्या कर ली थी.

वे डिब्रूगढ़ से लौट आये हैं, पर उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि पापा को यह सूचना किन शब्दों में दी जाये.

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बुधवार, 25 जुलाई 2012

काल चिन्तन- २

जाति-प्रथा और छुआछूत के विकृत स्वरुप का अनुभव करने के लिए हमें डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की आत्मकथा पढ़नी होगी. वे सही मायने में शूद्रों/दलितों के प्रतिनिधि व मसीहा थे. इसलिए वर्तमान भारतीय संविधान की संरचना में उनका योगदान कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है. उस समय की सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी कि सवर्ण कहे जाने वाले लोगों ने उन तिरस्कारों व दुत्कारों को नहीं झेला जो अम्बेडकर जी व उनके पूर्ववर्ती दलित लोगों ने झेला था. उन परिस्थितियों में उनका हिन्दू धर्म से घृणा करते हुए बौद्ध धर्म स्वीकार करना बहुत स्वाभाविक कहा जा सकता है.

जाति प्रथा की विद्रूपता के फलस्वरूप देश के तमाम गरीब शिल्पकारों (जिनको गाँधी जी ने ‘हरिजन’ नाम दिया) को सवर्णों की गुलामी में जीना पड़ता था. उनके हल जोतने, कृषि कार्यों को संपन्न करने के अलावा सेवा चाकरी मे जिंदगी बीत जाती थी क्योंकि उनको भी ये अहसास रहता था कि वे शूद्र हैं और सेवा करना ही उनका धर्म है. उच्च वर्ण के लोगों के मन मस्तिष्क मे भी ये बात घर की हुई थी कि दलितों का हर तरह से शोषण करना उनका विशेषाधिकार है.

आर्थिक विपन्नता के साथ साथ बौद्धिक विपन्नता सदियों से इन शूद्रों को दलित बनाए हुए थी. यद्यपि पिछली अठारहवीं व उन्नीसवीं शताब्दी में कई समाज सुधारकों ने इस मुद्दे पर गंभीर विवेचन किये लेकिन तब प्रचार-प्रसार के लिए कोई मीडिया नहीं था, और इस विशाल देश मे कई-कई ऐसे क्षेत्र थे जहाँ पुराणपंथी विचारों से ग्रस्त लोगों ने जाति प्रथा व छुआछूत को बरकरार रखा.

ईसाई मिशनरियों ने हिंदुओं की इस कमजोरी को पहचाना और दुखती रग पर अंगुली रख कर आर्थिक प्रलोभन व समाज मे जातिविहीन बराबरी का दर्जा बता कर धर्म परिवर्तन कराने के अपने मिशन को जगह जगह आगे बढ़ाया. पर उनकी तारीफ़ इस बात से की जाती है कि उन्होंने सेवा और शिक्षा के माध्यम से लोगों को अपना बनाया. हिंदूवादी संगठनों ने समय समय पर मिशनों के कार्य कलापों व कार्य कर्ताओं पर जोरदार हमले भी किये.

देश की स्वतन्त्रता की प्राप्ति से पहले ही अछूतोद्धार की ज्योति प्रज्वलित हो चुकी थी और स्वतंत्रता के बाद तो इस सम्बन्ध मे क़ानून बना दिये गए. पुराने जातिसूचक शब्दों का प्रयोग अपराध करार कर दिया गया. गत साठ-पैंसठ वर्षों मे बहुत हद तक पिछड़े लोगों को बराबरी पर लाने के भगीरथ प्रयास किये गए हैं. कई क्षेत्रों में तो अब दलित वर्ग से आने वाले लोग शिक्षित व आर्थिक दृष्टि से संपन्न होकर समाज की अगली पंक्ति में आ गये हैं या उससे भी आगे निकल रहे हैं.

सवर्णों की तरफ से आवाजें उठने लगी हैं कि अब आरक्षण खतम हो जाने चाहिए. उच्च तबके तक पहुंचे हुए लोगों को आरक्षण से तुरन्त बाहर रखा जाना चाहिए. अभी हाल मे अदालती फैसला भी आया है कि अब पदोन्नतियों में आरक्षण बन्द किया जाना चाहिए. विडम्बना यह है कि आरक्षण का रसगुल्ला, जाट, गूजर, ठाकुर आदि भी प्राप्त करने के लिए लालायित हैं. इनके कर्णधार वोट बैंक की राजनीति पर उतर आये हैं. प्रारम्भ में दलितों को भी केवल दस साल तक आरक्षण की व्यवस्था थी, पर संविधान में बार बार संशोधन करके इसे बढ़ाया जाता रहा है. यह लोकतंत्र के दोषों में से एक है कि बहुमत कई बार न्याय के साथ खिलवाड़ भी कर जाता है.

सबसे प्रसन्नता की बात यह है कि अब आम लोगों में जाति आधारित छुआछूत खतम हो गयी है. कुछ राजनैतिक नेताओं द्वारा अपना जातिगत वोट बैंक बनाए रखने के लिए वर्ग संघर्ष की जैसी संभावनाओं और नारों को जन्म दिया था जिसको लोगों ने नकार दिया है.

अभी हम लोग सामाजिक व राजनैतिक चेतना के संक्रमण काल से गुजर रहे हैं, ऐसे समय में आवश्यकता है कि समाज को परिपक्व नेतृत्व मिले. जाति-धर्म के नाम पर बांटने के प्रयास बन्द हों.

हम एक महान संस्कृति की विरासत के वारिस हैं. सभी विसंगतियों व भेदभावों को समाप्त करने के प्रयास करते हुए आने वाली पीढ़ियों के लिए विष के बीज बो कर ना जाएँ अन्यथा इतिहास हमें कभी भी माफ नहीं करेगा.

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सोमवार, 23 जुलाई 2012

क्रोध

काम, क्रोध, मद, और लोभ, ये चार विकार शास्त्रों में तथा आप्त बचनों मे बताए गए हैं. इनमें से क्रोध एक ऐसा तत्व है, जिसके बस में होकर हम अपना आपा खो बैठते हैं. भगवदगीता के अध्याय २ के ६३वें श्लोक में तो यहाँ तक कहा है :
क्रोधाद्ध्भावति सम्मोह:सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः.
स्मृतिभ्रंशाद  बुद्धिनाशो,  बुद्धिनाशात्प्रणश्यति.
अर्थात क्रोध करने से मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, और मति भ्रमित हो जाती है, फलस्वरूप ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है तथा इस कारण से व्यक्ति अपनी स्थिति से गिर जाता है.

श्रृष्टिकर्ता ने वैसे तो सभी प्राणियों को क्रोध से नवाजा है. छोटी चींटी व सरीसृपों से लेकर पालतू/जंगली जानवर अपने अपने स्वार्थों के लिए क्रोधपूर्ण व्यवहार करते हैं, पर यहाँ बात मनुष्यों की हो रही है, जो क्रोध के प्रभाव में कई बार दुस्साहसिक वर्ताव कर बैठता है. सामाजिक व नैतिक क़ानून-नियमों के तहत भर्तस्ना व सजा भी पाता है क्योंकि क्रोध होने पर अंजाम का ध्यान नहीं रहता है. अदालतों मे पड़े हुए तमाम फौजदारी मामले किसी न किसी रूप मे क्रोध के ही सम्बंधित होते हैं.

यों साधारणतया रूठना या गुस्सा करना मानव स्वभाव होता है, इसमें जो तत्व क्रोध का है यदि वह अपनी सीमाएं तोड़ने लगे तभी दुष्परिणाम होते है.

वैसे तो मनुष्यप्रबल सभी कमजोरियां मुझमें भी हैं, पर मैं कोशिश करता रहा हूँ कि मेरा ये दुर्गुण दबा रहे और जग जाहिर होने की कगार तक न उभरे. जीवन के दूसरे पहर मे मेरा स्वभाव उग्र ही रहा. एक बार एक बहुत छोटी बात पर मैं अपना आपा खो बैठा था. आज बहुत वर्षों के बाद भी उस घटना को याद करता हूँ तो प्रायश्चित करने का मन होता है. घटना इस प्रकार थी:-

लाखेरी (राजस्थान) की जिस कॉलोनी में मैं रहता था वहाँ कंम्पनी के क्वार्टर्स में सही ढंग की चहारदिवारी बनी हुयी नहीं थी. बड़ी चोरियां तो कभी कभी हुआ करती थी, लेकिन उन दिनों छोटी उठाईगिरी अचानक शुरू हो गयी थी. घर के बाहर कोई भी धातु के बर्तन या सामान रह जाये तो वह गायब हो जाता था. सेक्युरिटी वाले भी बहुत परेशान थे क्योंकि बड़ी निगरानी के बावजूद रोजाना किसी ना किसी का सामान गायब होने लगा था. जब तक दूसरों का सामान जा रहा था मुझे ज्यादा पीड़ा नहीं हो रही थी, पर एक दिन जब मेरे प्रांगण से टैंक का लोहे का ढक्कन और एक जी.आई. शीट का टुकड़ा कोई ले गया तो अंदाज लगाया गया कि ये काम किसी कबाड़ बीनने वाले का हो सकता था.

सेक्यूरिटी स्टाफ के साथ गांधीपुरा के बड़े कबाड़ व्यापारियों से पूछताछ की गयी तो राज खुल गया कि १२-१३ साल का एक लड़का, जिसका नाम धर्मवीर था वह मेरे पहचान वाले सामान बेच कर गया था. धर्मवीर की तलाश की गयी, मिल गया, बुला लिया गया. वह एक कैजुअल मजदूर का बेटा निकला. वह बड़ा ढीठ था, शातिराना बातें करने लगा, किसने देखा? कौन गवाह है? जैसे प्रश्न हमसे करने लगा.

मैं अपना आपा खो बैठा. भीड़ के सामने ही चार-पाँच थप्पड़ जोर से मार दिये. उसका होंठ कट गया खून निकल आया. सेक्युरिटी वालों ने उसको मुझ से बचाया. बाद में जब मैं शांत हुआ तो मुझे बहुत दु:ख व अफ़सोस हुआ क्योंकि मूल्यहीन बस्तुओं के पीछे मैंने उस बच्चे को बेरहमी से पीट डाला था. क़ानून अपने हाथ मे ले लिया था. मैंने क्षमा मांगने हेतु धरमवीर के बाप को बुलाया तो पाया कि वह तो खुद लड़के के कारनामों पर बहुत शर्मिन्दा था. बोला, साहब, आपने उसकी पिटाई करके अच्छा सबक दिया है. हम तो उसे समझाते समझाते थक गए हैं.... ये इतना बिगड़ गया है कि रात को घर नहीं आता है, नशेड़ियों की सोहबत मे रहने लगा है.

इस पिटाई का परिणाम ये हुआ कि कॉलोनी में चोरियां बन्द हो गयी, लेकिन मुझे धर्मवीर का मासूम सा चेहरा, उसपर खून की लकीर बहुत दिनों तक सालता रहा. अगर आज (जबकि वह भरपूर जवान हो गया होगा) वह मुझे मिलता तो मैं उससे 'सौरी' कहना चाहूँगा, पर मुझे सन्तोष हुआ कि इस घटना के बाद धर्मवीर ने अपनी अपराध की राह पूरी तरह छोड़ दी थी.

बैंजामिन फ्रैंकलिन ने लिखा है कि क्रोध कभी भी बेवजह नहीं होता है, यह किसी सार्थक वजह से होता है.
                                                 ***

शनिवार, 21 जुलाई 2012

गंगा मईया तेरा पानी था अमृत

मोक्षदायिनी, कलिमलहारिणी गंगा नदी अनादिकाल से उत्तर भारत की जीवन रेखा रही है. अनेकों छोटी बड़ी नदियाँ व नाले इसकी सहायक (ट्रिब्यूटरी) रही हैं. पौराणिक गल्पों में इसे स्वर्ग से शंकर की जटाओं के माध्यम से धरती पर लाया गया था. भगीरथ नामक रघुवंशी राजा के साठ हजार पुरखों को तारने के लिए कठोर तपस्या से ये संभव हुआ, ऐसा बताया जाता है.

प्राकृतिक तथा वैज्ञानिक सत्य यह है कि हिमालय पर्वत की बर्फीली चोटियों से निकल कर, ऋषिकेश से मैदानी भाग पर बहने लगती है. यह विशाल नदी अविरल बहते हुए बंगाल में गंगासागर जाकर समुद्र में विसर्जित हो जाती है.

सनातन धर्म की आस्थाओं में इसे ‘गंगा मईया’ कहा गया है. इसका जल पवित्र और अक्षुण्य माना गया है, जिसमें कीटानुरोधक तत्व विद्यमान रहते हैं. सावन के महीने में शैव व वैष्णव मतावलंबी, कल्याणकारी देवता महादेव शंकर की मूर्तियों व स्थापित लिंगों को गंगा जल से अभिषेक करते हैं अर्थात स्नान कराते हैं. गंगा जल के वाहक ‘कावड़’ में जल ढो कर ले जाते हैं इसलिए ‘कावडिये’ कहलाते हैं. यद्यपि यह विश्वास व परमपरा बहुत पुरानी हो सकती है, पर हाल के वर्षों में हरिद्वार में ‘कावड़ मेला’ नया रूप ले चुका है. यह शिव भक्तों का जूनून बन गया है, जिसे पूरी तरह सामाजिक मान्यता भी मिल रही है. कावड़ियों की बड़ी संख्या में आवागमन करने से राजमार्गों पर आम लोगों व अन्य वाहनों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ रहा है.

अखबारों में खबर छपी है कि गंगा का उदगम अब गोमुख से कुछ अलग हट कर हो रहा है. प्रकृति अपने नियम व रास्ते खुद बनाते आई है, इसमें मानवीय छेड़छाड़ या दखलंदाजी जब भी होती है तो परिणाम ठीक नहीं होते हैं.

देश में औद्योगीकरण होने से, जनसंख्या का दबाव बढ़ते रहने से, आस्थाओं के वशीभूत जैविक सामग्री विसर्जित किये जाने से तथा पॉलीथीन जैसे खतरनाक पदार्थ के आविष्कार से सभी नदियों-नालों का बुरा हाल हो गया है, विशेषकर जब नदियाँ बड़े शहरों के पास से बहती हैं तो कूड़ा-कचरा, सीवर की गन्दगी, तथा उद्योगों से निष्काषित रसायन उसमें समा जाते है. इस प्रकार उसका शुद्ध व पवित्र स्वरुप पूर्णतया समाप्त हो जाता है.

गंगा की पवित्रता के विषय में तो सदियों से लोग दैवीय आस्थाएं जमाये हुए हैं. उसमें स्नान करना तो दूर, केवल दर्शन मात्र से ही पाप नाश व मोक्ष की परिकल्पना की जाती है. इसी सन्दर्भ में एक छोटा सा दृष्टांत है कि एक साधु अपने चेले के साथ दूर पश्चिमी भारत से गंगा दर्शन के लिए पैदल चला. उन दिनों आज की तरह सड़कें व परिवहन के साधन नहीं होते थे. चलते चलते पैर सूज गए. शाम होने को आई पर गंगा तक नहीं पहुँच पाए. एक मुकाम पर गुरू ने चेले से कहा, “तुम सामने के ऊंचे पेड़ पर चढ कर देखो कि गंगा अभी कितनी दूर है?” चेला पेड़ पर चढ़ गया और उसे कुछ दूरी पर बहती हुई गंगा दिख गयी. उसने गुरु को बताया, “मुझे गंगा के दर्शन हो गए हैं.” गुरु प्रसन्न हुए और बोले, “गंगा देख कर तुम शुद्ध, तुमको देख कर मैं भी शुद्ध हो गया, अब आगे जाना जरूरी नहीं है.”

ये तो गुजरे जमाने की बात है, अब तो स्थिति यह है कि गंगा बहुत मैली हो चुकी है. वह जितना मैदानी हिस्से में आगे बढ़ती जाती है उतनी ही गन्दगी व कूड़ा-कचरा उसमें बढ़ता जाता है. इलाहाबाद के पवित्र संगम पर तो इसका पानी पीने लायक नहीं रहा है.

नदियाँ तो दक्षिण भारत में भी बड़ी बड़ी हैं, पर इस तरह प्रदूषित होने की उनके बारे में कोई चर्चा सुनने में नहीं आती है. गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की बातें बहुत पहले से होती रही हैं. पर्यावरणविदों ने समय समय पर इस पर चिंताए जताई हैं. पूर्व प्रधान मन्त्री स्वर्गीय राजीव गाँधी ने अपने कार्यकाल मे इस मुहिम को गति दी थी. बहुत धन व संगठनात्मक व्यवस्था भी की. इस प्रदूषण मुक्त गंगा मिशन को कई गैर सरकारी संस्थाओं (N.G.O.) ने भी चलाया. साधु-संतों ने भी आवाजें उठाई, खूब हल्ला होता रहा तथा इस अहम मुद्दे पर राजनीति भी जोर शोर से होने लगी है, पर खेद इस बात का है कि हम जहाँ से चले थे आज भी वहीं हैं. कारण यह है कि सब नागरिक गैर जिम्मेदार हैं, दूसरों को उपदेश करना जानते हैं, पर स्वयं अनुशासित नहीं रहते हैं. बड़ी बात यह भी है कि सरकारी मह्कमें हद दर्जे तक भ्रष्ट हैं.

अभी कुछ दिन पहले मेरे कुछ रिश्तेदार बद्रीनाथ धाम की यात्रा पर गए थे.  वापसी मे वहाँ के प्रसाद के साथ एक छोटी बोतल मे शुद्ध गंगा जल भी लेकर आये हैं. इसकी कुछ बूँदें हम शुद्धिकरण मन्त्र,

ओम अपवित्र:पवित्रोवा सर्वावस्था गतोऽपि वा !
यह स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स् वाह्यांतर सूचि !!

के साथ अपने आसपास छिड़क कर ढोंग कर सकते हैं, पर जरुरत तो इस बात की है कि गंगा नदी की अविरल धारा ठेठ गंगासागर तक प्रदूषण मुक्त हो. नालों-सीवरों तथा कारखानों से निकलने वाले रसायनों से मुक्त हो. इसमें किसी प्रकार की राजनीति ना हो, आवंटित धन की पूरी निगरानी हो.

***

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

तुम्हारे बाद

So it was you had a house a home. So I was you, I go right now, "I" is you lost.

So it was you, the Garden was buzzing, cassia, Gulmohar and Marguerite lived bloom together, such as the evergreen frost is burned down.

If you have had a bit of your Dehgand Ksturimrig made me and now I just do not have any odor.

If you Teej festival was used to be plastered pleasing aroma of dishes Kshudhakark

If you Sawan-Bhado was, for all winter-spring was felt Cuvn.

You have had in life was tied to a discipline, eat this, do not eat it, wear it, not wear it. As a primary school student every homework given to you at the time that I lived, now a copy of the homework has been lost.

So you did was make sense ideas, juice, and now ooze juice and juice-poetry takes from both inadmissible.

You were the song was in the house, music, and the invisible strings of affinity were ringing.

Was wondering if you had a rainbow on each occasion were Mnglkamnaan.

If you Mmtamay Matrichhaya shelter was, I was unperturbed at the fountain after you went to sleep angry goddess is too much.

So the joke was you had to laugh at the irony and reproach so lovingly now is destined to laugh like mad.

If you have small children and relatives around you were absorbed in large circles, as the queen bee now lost all Bicudte are gone.

You have had many female friends of yours devotedly serve as passion, they all now have become strangers.

If you had had the blessing of Annapurna was never empty treasury.

If you had had the inspiration muse, now everything has become dormant and waste, has Bhonti pen.

Does not share everything with you, did you then, now there is nothing, everything is deserted, is zero.

It is said that the creation of the universe is zero and Brhmttw that never dies. I also know that no irreversible cycle can roll, so you have to be away from me is an eternal truth. So this is just my fascination and interest.

After you your memories of the world among the crowd I'm wandering round and round like a whirlpool in the vacant feeling that right now I'm doomed to live.

(Readers are requested in writing not to disclose the pain sensation of any sort, as these are mere fiction-craft.)

***.

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

वार्षिक श्राद्ध

आज मोहिनी आमा का वार्षिक श्राद्ध है. उसके बेटे गौरीदत्त ने तीन दिन पहले ही अखबार मे आमंत्रण छपवा दिया था. यहाँ कुमाऊँ मे पीपल पानी यानी बारहवीं/तेरहवीं हो या वार्षिक श्राद्ध हो, शमशान तक साथ देने वाले लोगों तथा नजदीकी लोगों को प्रसाद ग्रहण करने के नाम पर मृत्युभोज पर बुलाना एक पारंपरिक दस्तूर है. लोग इस दावत को खाने में कोई गुरेज भी नहीं करते हैं, बल्कि कई लोग तो इसे पुण्यकार्य समझते हैं. मरने वाले का परिवार अमीर हो अथवा गरीब हो, परोसे जाने वाले व्यंजनों में हैसियत के अनुसार फर्क तो रहता ही है, पर गरीब लोग भी मृतक/मृतिका की प्रेतात्मा की सन्तुष्टि एवँ तृप्ति के लिए यथाशक्ति बढ़िया पकवान बनवाते हैं, चाहे पूरा आयोजन ऋण करके ही क्यों ना किया जा रहा हो.

मोहिनी देवी स्वर्गीय रामदत्त पाठक की विधवा थी. मूल रूप से अल्मोड़ा के दसौली गाँव की रहने वाली थी. रामदत्त पाठक कर्मकाण्डी वृति वाले ब्राह्मण थे, और आसपास कई गाँवों में उनकी जजमानी थी. एक दिन वे अकाल मृत्यु वरण करके इस सँसार को छोड़ गए. पीछे रह गए बेचारी मोहिनी देवी और दो किशोर बच्चे. पंडित जी की मृत्यु के बाद मोहिनी देवी के सामने परिवार पालने की समस्या खड़ी हो गयी. थोड़ी से असिंचित जमीन थी, जो जीविकोपार्जन के लिए अपर्याप्त थी. कुलीनता की छाप लगी थी इसलिए कहीं कुली-मजदूरी भी नहीं कर सकती थी. घर के पिछवाड़े दो बड़े बड़े नाशपाती के पेड़ थे जो पेट भराई के काम आ रहे थे. यों जौला या मोटे अनाज का इन्तजाम करके तिल तिल जी रही थी.

बड़े बेटे गौरीदत्त को उसने बागेश्वर उसके मामा के पास पढ़ाई के लिए भेज दिया था, जहाँ से उसने दसवीं पास कर ली. गाँव के एक हितैषी व्यक्ति के साथ उसे रोजगार की तलाश में हल्द्वानी भेज दिया. छोटा बेटा निगरानी के अभाव में आवारा हो गया, ड्राईवर-कंडक्टरों की सोहबत में कहीं लंबा निकल गया जिसका कोई अता पता नहीं है.

गौरीदत्त को एक स्टोन क्रशर में मुंशी का काम मिल गया और कुछ महीनों बाद वह अपनी माँ को भी साथ ले आया. गाँव की जमीन मात्र पन्द्रह हजार रुपयों में गिरवी रख कर बाहरी हल्द्वानी में एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा खरीद कर, पहले कच्ची झोपड़ी बाद मे वहाँ एक कमरा रसोई बाथरूम वाला पक्का घर बना कर रहने लगा. ये सब उत्तराखंड के अलग राज्य बनने से पहले ही हो गया था, अन्यथा हल्द्वानी मे जमीन के भाव इतने बढ़ गए हैं  कि गरीब आदमी का घर बनाने का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता. मोहिनी देवी ने अपने जैसे ही एक परिवार की कन्या को बहू बना कर गौरीदत्त की गृहस्थी जमा दी. शादी में बड़ा ताम झाम न करके खर्चों से बचने के उद्देश्य से घोड़ाखाल गोल्ज्यू के मंदिर में सात फेरे डलवाए. इधर उनके घर के आजू-बाजू जमीन की प्लाटिंग होती रही, देखते देखते संभ्रांत लोगों के बड़े बड़े आलीशान मकान बन गए. गौरीदत्त का वेतन बहुत थोड़ा था, लेकिन मोहिनी देवी को सरकार की तरफ से विधवा पेन्शन का सहारा मिल गया. उन्होंने उसी में गुजारा करना सीख लिया. मजबूरी भी थी. मोहिनी देवी ने कभी किसी से भीख नहीं माँगी. दुकानों का उधार भी समय पर चुकाती रहती थी. उसके श्वेत केश, ढलती उम्र, और सादगी को देख कर गली और मोहल्ले के लोग उसे मोहनी आमा संबोधित करने लगे. लेकिन उसकी दीनता पर किसी ने ध्यान नहीं दिया.

इस बीच पाँच वर्षों के अंतराल मे गौरीदत्त दो बच्चों का पिता भी बन गया. मोहिनी आमा को जीने की नई उमंग हो गयी थी, पर कुदरत को ये ज्यादा समय के लिए मंजूर नहीं रहा, वह बीमार रहने लगी. दुबली-पतली होने के बावजूद उसे ‘उच्च रक्तचाप’ सताने लगा. कुपोषण भी था. अज्ञानता व अशिक्षा के कारण सही दवाएं नहीं मिली. सरकारी अस्पताल से जो दवाएं मिली उनका नियमित सेवन भी नहीं हुआ. उसकी अस्वस्थता की खबर लगभग सभी को हो गयी थी, लेकिन खोखली सहानुभूति के सिवाय किसी ने उसकी आर्थिक मदद करने की बात नहीं की. ये सँसार ऐसा ही है. किसको फुर्सत है? कौन आफत मोल ले? आम लोग तो स्वार्थी और पाखंडी होते हैं. मोहिनी आमा 
इस मुकाम पर चाहती जरूर थी कि कोई उसकी मदद करने आगे आये. पर वह निराश और असहाय थी  और अपने भाग्य को कोसती थी.

घर में कमरा एक ही था इसलिय ठण्ड की ठिठुरती रातों में भी वह बरामदे मे लिहाफ ओढ़ कर सोती थी. एक सुबह वह चिरनिद्रा में सोती हुई पाई गयी. मुहल्ले-गाँव के मर्द लोग उसकी शव यात्रा में शरीक हुए. चित्रशिला घाट पर उसके पार्थिव शरीर को पंचतत्व मे विलीन कर आये. गौरीदत्त ने उनका विधिवत क्रिया-कर्म किया. पीपलपानी में मुर्दियों को भोजन कराया. समय किस तरह भागता है. देखिये मोहिनी आमा को गुजरे हुए एक वर्ष हो गया है. गौरीदत्त ने पूरे एक वर्ष तक पुत्रधर्म का निर्वाह करते हुए साधानापूर्ण नियमों का पालन किया. अब उसने अखबारी विज्ञप्ति द्वारा स्वजनों को प्रसाद ग्रहण का आमंत्रण छपवाया. आफिस से तथा कुछ मित्रों से रूपये उधार लेकर करीब एक सौ लोगों के लिए पाँच पकवानों की व्यवस्था की.

उसका नालायक भाई माँ की मौत पर भी घर नहीं आया था और आज भी अनुपस्थित था. रिश्तेदार तथा गाँव मोहल्ले के कई लोग भोजनार्थ निमंत्रण स्वीकार करते हुए आ धमके. हंसी ठठ्ठों के बीच देश में हो रही राजनैतिक उठापटक पर चर्चाएं करते हुए स्वादिष्ट भोजन पर टूट पड़े. विडम्बना ये रही कि खाने वालों की संख्या अनुमान से ज्यादा बढ़ गयी. तैयार सामान कम पड़ गया. बाद में आने वाले कुछ लोग निराहार ही लौट गए. घरवाले व रसोईये भूखे रह गए, उनके लिए दुबारा दाल-चावल पकाने की तैयारी हुई. अगर सचमुच प्रेतात्मा इस दिन तक इन्तजार करती होगी तो निश्चित ही मोहिनी आमा की आत्मा यहीं कहीं मुडेर पर बैठ कर ये सारा नजारा देख रही होगी.

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सोमवार, 16 जुलाई 2012

गीत -४

बागों में बहार या हो यौवन निखार में
खिलते हैं गुल हजार उसके इक दीदार में.

खुशियों मे वो हंसी है, वो है दवा दरद में
मतलब शबाब का अब आ गया समझ में.

हजारों चाँद जड़ दिये ज्यों इक चाँद में
चार चाँद लग गए, किसी के भाग में

किसी और को जो ना मिला, रूप वो मिला है
है खुशनसीब वो, जिसे तुझसे दिल मिला है.

                          ***

शनिवार, 14 जुलाई 2012

चुहुल -२७

(१) 
बस चलाने से पहले कंडक्टर बस के अन्दर यात्रियों के टिकट काट रहा था. जब अपने एक परिचित को उपकृत करने के लिए उसने आधा टिकट काटा तो एक अन्य यात्री ने इसका कारण पूछ डाला. कंडक्टर ने मसखरी करते हुए कहा, “देखते नहीं, उसने हाफ पैन्ट पहन रखी है. हाफ पैन्ट पर हाफ टिकट होता है. आपने फुल पैन्ट पहन रखी है, फुल टिकट लगेगा.”
यात्री ने इस बात पर कहा, “अगर मैं पैन्ट ना पहनूं तो आप मुझे फ्री ले जायेंगे क्या?”

(२) 
एक महिला, सामान के कई अददों के साथ रेलवे प्लेटफार्म पर बैठी थी. कुली आया, पूछने लगा, “कुली चाहिए?”
महिला बोली, “नहीं चाहिए. मेरे पति मेरे साथ में हैं”

(३) 
एक देहाती मुसाफिर डबलडेकर बस मे ड्राईवर की सीट के पास आकर बैठ गया और बतियाने लगा. ड्राईवर का ध्यान बंट रहा था अत: उसने मुसाफिर से कहा कि “ऊपर वाले मंजिल में चले जाओ, हवा भी खूब मिलेगी और बाहर के नज़ारे भी देखते जाना.”
मुसाफिर ऊपर की मंजिल पर चढ गया, लेकिन थोड़ी देर बाद लौट आया. ड्राईवर ने पूछा, “क्यों क्या हुआ?” मुसाफिर बोला, ”वहाँ तो डर लगता है, कोई ड्राईवर ही नहीं है”

(४) 
एक महिला ने अपनी शादी वाली अंगूठी गलत अंगुली में पहन रखी थी. उसकी सहेली ने देखा तो पूछ ही डाला, “बहन जी ये शादी वाली अंगूठी आपने गलत अंगुली मे क्यों पहन रखी है?”
वह महिला बड़े असंतुष्ट भाव से मुँह बिगाडते हुए बोली, “क्योंकि मेरी शादी गलत आदमी से हुई है.” 

 (५) 
पाकिस्तान के स्कूल/मदरसों में बच्चों के मन मस्तिष्क पर भारत और भारत वासियों के बारे में इतना सांप्रदायिक जहर भर दिया जाता है कि अधिकाँश लोगों की मानसिकता भारत विरोधी हो जाती है. इसका एक उदाहरण तब सामने आया जब पाकिस्तान के लिए लोकतांत्रिक संविधान बनाने की बात उनके संसद मे आई.
एक गणमान्य सदस्य ने संविधान सभा का गठन करने का विरोध इन शब्दों मे किया, “इसके लिए इतना रुपया और समय बर्बाद करने की क्या जरूरत है, हिन्दुस्तान का संविधान मंगवा लो, जहाँ ‘हाँ’ लिखा है वहाँ ‘ना’ लिख दो और जहाँ ‘ना’ लिखा है वहाँ ‘हाँ’ लिख दो.”

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गुरुवार, 12 जुलाई 2012

झूठ की कीमत

अब्दुल गनी टोंकवी अपने बचपन से ही बहुत मजाकिया और चुहुलबाज रहे हैं. राह चलते को छेड़ना व मसखरी करना उनकी फितरत रही है. वैसे ये सब खुदा की नेमत होती है, हर कोई आदमी खुशदिल नहीं होता है.

टोंक-सवाईमाधोपुर के बहुत से मुसलमान कारीगर होश सँभालते ही अहमदाबाद का रुख करते थे क्योंकि वहाँ कपड़ा मिलों मे खूब रोजगार मिलता था और पगार भी अच्छी मिलती थी. अब्दुल गनी टोंकवी के बड़े भाई नजीर अहमद बरसों से सपरिवार अहमदाबाद में रह रहे थे. रहने के लिए उन्होंने भी एक मुस्लिम बहुल इलाका ढूंढा था, जहाँ सामाजिक रूप से वे अपने को सुरक्षित महसूस करते हैं, हालांकि उस इलाके में अपराध, गन्दगी तथा बीमारियाँ खूब फल फूल रही हैं. इन्ही बीमारियों के चलते वहाँ झोला-छाप डॉक्टर, वैद्य, या हकीम हर नुक्कड़ पर अपनी अपनी जाजम बिछा कर धन्धा करते हैं.

नजीर अहमद ने जब छोटे भाई को अहमदाबाद आने का बुलावा भेजा तो उसकी बाछें खिल गयी. तीसरे ही दिन वहाँ पहुँच गए. भाई ने कहा, “कुछ दिन घूमो फिरो, कुछ गुजराती बोलना सीखो, मिल मे भर्ती खुलते ही लगवा दूंगा.

अब्दुल गनी के लिए सारा वातावरण नया था. हिन्दी-उर्दू बोलने वालों को ढूंढना पड़ रहा था क्योंकि वहाँ गोल टोपी वाले और दाड़ी वाले मुसलमान भी फर्राटेदार गुजराती में संवाद कर रहे थे. भाई के घर से कुछ दूरी पर एक हकीम साहब का दवाखाना था. अब्दुल गनी डरते डरते उनके पास गए, अपना परिचय दिया, हकीम साहब बड़े अखलाख और महोब्बत वाले निकले. अब्दुल गनी को अपने पास आकर गप-शप करते रहने को कहने लगे. दरअसल बात यह भी थी कि उनके पेशे में नए नए मुहल्लों में ग्राहकी-सेंध लगानी होती है.

इस प्रकार गनी को हकीम साहब की दोस्ती रास आ गयी. उसके बोलचाल मे लतीफेबाजी व दिल्लगी हकीम साहब को भी भा गयी. यों अब्दुल गनी दिन भर हकीम साहब की बगल में बैठकर बतियाते रहता था. एक दिन एक मरीज आकर हकीम साहब से एक पुड़िया कब्ज दूर करने की दवा ले गया. बातों बातों मे अब्दुल गनी ने हकीम साहब से फरमाया कि “कब्ज तो मुझे भी रहती है, एक खुराक मुझे भी दे डालिए.” हकीम साहब ने एक पुड़िया दे दी. रात को सोते समय गरम पानी से लेने को कहा. हकीम साहब ने गनी से पैसा भी नहीं लिया, कहा, “अमा, तुम हमारे दोस्त हो गए हो और अभी तुम बेरोजगार भी हो.” अब्दुल गनी ने लंबा हाथ करके सलाम अर्ज करते हुए हकीम साहब को शुक्रिया कहा लेकिन रात को दवा लेना बिलकुल भूल गया. अगले दिन मिलते ही हकीम साहब ने पूछ लिया, ”मियाँ, कुछ कब्ज में फ़ायदा हुआ?”

गनी ने झूठ बोलते हुए कहा, “नहीं हकीम साहब, आपकी दवा से तो चिड़ियों को भी दस्त नहीं आएगा, ये बड़ी हल्की दवा आपने दी थी.” ये सुन कर हकीम साहब थोड़ा पशोपेश मे पड़ गए फिर बोले, “आज मैं दवा बदल कर देता हूँ.” इस प्रकार एक और असरदार दवा की पुड़िया उन्होंने अब्दुल गनी को दे दी. हुआ यों कि घर जाकर गनी ने अपने कपड़े घोने के लिए बदले तो पुड़िया जेब में ही रह गयी और धुल गयी.

फिर अगले दिन हकीम साहब से कैसे कहते कि ‘फायदा नहीं हुआ,’ लेकिन हकीम साहब ने पूछने पर कहना पड़ा, “अजी हकीम साहब, हम गुजराती नहीं हैं, जो पतली दाल गुड़ डाल कर खाते है. हम राजस्थानी हैं, अपना कोठा बहुत सख्त है. ऐसी वैसी दवा कोई असर नहीं करती है."

हकीम साहब को अपने इल्म और हुनर पर चोट लगती महसूस हुई. उन्होंने एक डबल डोज अपने सामने ही अब्दुल गनी को निगलवा दिया और दो गिलास पानी पिला दिया. थोड़ी देर बाद टोंकवी साहब घर चले गए. दवा वाली बात तो भूल ही गए. एक घन्टे बाद पेट मे कुछ हलचल हुई तो गुसलखाने मे घुसे और बहुत देर हो गयी बाहर नहीं निकले.

भाई व भाई का परिवार दस्तरखान पर खाना परोस कर इन्तजार करते रहे. जब काफी देर तक गुसलखाना नहीं खुला तो फ़िक्र हो गयी. ताक झाँक की गयी, आवाजें लगाई गईं पर कोई जवाब नहीं मिल रहा था. अनहोनी की आशंका होने पर दरवाजा तोड़ा गया तो पाया कि जनाब लैट्रिन में औंधेमुंह बेहोश पड़े हुए हैं. तुरन्त रिक्शा बुलाकर निकट के प्राइवेट अस्पताल पहुंचाया गया. जहाँ २४ घन्टे आई.सी.यू. में रखा गया, ग्लूकोज चढ़ाया गया. डाक्टरों ने फ़ूड पोईजनिंग का केस बताया. पुलिस थाने मे भी सूचना भेज दी गयी. पुलिस आई, पर बयानों से कुछ भी साबित नहीं कर पायी. अब्दुल गनी दो दिन और अस्पताल मे रहने के बाद घर आ गया. अस्पताल का बिल हजारों में बैठा, जो बड़े भाई ने इधर उधर से लेकर जमा कराया.

करीब एक हफ्ते बाद जब टोंकवी साहब घूमने फिरने लगे तो घूमते हुए हकीम साहब की तरफ चले गए. हकीम साहब ने जब उनकी पतली हालत देखी तो पूछा, “कहाँ रहे मियाँ, इतने दिन?”

अब्दुल गनी बोले, “क्या बताऊँ हकीम साहब, फ़ूड पोईजनिंग हो गयी थी. ऐसा दस्त हुआ कि २४ घन्टे में होश आया.” हकीम साहब सारा माजरा समझ गए. बोले, “मियाँ, ये फ़ूड पोईजनिंग नहीं थी, तुम्हारे झूठ बोलने की पोईजनिंग था. मेरी दवा से तुम्हारा सख्त कोठा ढीला हुआ है. आइन्दा दवा के मामले में झूठ मत बोलना. झूठ की भारी कीमत चुकानी पड़ जाती है.”
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मंगलवार, 10 जुलाई 2012

गपोड़ा

हमारे पूर्वजों ने अनेक प्रकार की धार्मिक आस्थाओं की स्थापना कर रखी है ताकि लोग बुरे कर्म करने से डरते रहें और सद्कर्मों की तरफ प्रेरित रहें. इन आस्थाओं के लिए अनेक गप्प वाली कहानियां गढ़ रखी हैं. पर गपोड़ा तो गपोड़ा ही होता है. कुछ लोग तो इन्हें नैतिक उपदेश के रूप में जानते हैं, लेकिन ऐसे भी लोग कम नहीं हैं जो इसे सच्चाई की तरह देखते हैं.

स्वर्ग और नरक की कल्पना भी इन गल्पों मे खूब होती है. जिनके बारे में कहा जाता है कि दोनों के बकायदा इलाके/डिपार्टमेंट अलग अलग बंटे हुए हैं. वहाँ के वासियों को मिलने वाली सुविधाएं/ऐश्वर्य भी उनके द्वारा किये गए पूर्व कर्मों के अनुसार मिला करते हैं. नरक में अभाव हैं, गन्दगी है, दुःख-बीमारी और तड़प होती है. जबकि स्वर्ग मे फूल हैं, खुशबू है, परियां हैं, मिष्ठान्न हैं और मौज है.

एक प्रवचनकर्ता स्वामी जी विस्तार से बता रहे थे कि स्वर्ग मे रहना सद्कर्म आधारित लाइसेंस जैसा है. लोग जो पुण्य कमाते है, संगृहीत करते हैं, वहाँ जाकर खर्च करते हैं. पुण्य क्षीण अथवा खर्च हो जाने पर पुन: इसी मृत्युलोक में ठेल दिये जाते हैं. स्वर्ग मे स्थाई रूप से देवता भी नहीं रह पाते हैं.

यह सच है कि सभी आत्माएं स्वर्ग का आनन्द लेना चाहती हैं, पर यमराज जी के दरबार मे चित्रगुप्त जी सब का लेखा जोखा रखते हैं, तदनुसार ही वे प्रवेश के लिए स्वर्ग या नरक का द्वार खुलवाते हैं. यद्यपि यह आज तक कोई नहीं बता पाया है कि ये काल्पनिक दुनिया कहाँ पर स्थित है.

एक कंजूस वनिक की आत्मा जब यमदूतों ने चित्रगुप्त के सम्मुख पेश की तो उन्होंने अपना स्थाई रजिस्टर खोला और पाया कि वनिक ने जिंदगी में कभी कोई सद्कर्म किये ही नहीं थे. उसका बेईमानी भरा जीवन नरक में भेजने के लिए उपयुक्त था. उन्होंने यमराज जी को रिपोर्ट दी और उसे नरक मे डालने का आदेश दे दिया. वनिक की आत्मा ने जब उनकी वार्तालाप सुनी तो वह बोली महाराज, मैंने एक बार आधी रोटी एक गाय को जरूर खिलाई थी. यमराज जी ने दुबारा जांच करवाई तो वनिक आत्मा के बयान को सही पाया. अत: मामले पर पुनर्विचार किया गया और कहा कि इतने से पुण्य से हम इसे स्वर्ग मे दाखिला नहीं दे सकते, लेकिन स्वर्ग की एक गाय को यहीं लाकर आधे घन्टे तक इसकी सेवा मे रख दिया जाये.

तुरन्त एक बड़े सींगों वाली गाय उपस्थित हो गयी, उसको चित्रगुप्त जी ने कहा कि "तुम आधे घन्टे तक इस वनिक आत्मा की सेवा में तत्पर रहो. गाय ने विनम्रता से वनिक आत्मा से पूछा, मेरे लिए क्या आदेश है?

वनिक आत्मा ने आव देखा ना ताव, बोली, तुम आधे घन्टे तक यमराज जी को सींग मारती रहो.

गाय यमराज जी के पीछे पड़ गयी, वे परेशान हो गए और जान बचाने के लिए भागने लगे. चित्रगुप्त से बोले, इस गाय को रोको और वनिक आत्मा को स्वर्ग में जाने दो.

इस प्रकार गाय से पीछा छूटा. यमराज जी ने वनिक आत्मा से कहा, तुम स्वर्ग मे चले जाओ. इस पर वह बोली, नहीं महराज मैं ना तो स्वार्ग मे जाना चाहती हूँ और ना नरक में, आप तो मुझे स्वर्ग और नरक के द्वार के बीच मे एक १०x१० फीट की दूकान लगाने दो ताकि दोनों तरफ के ग्राहक आते रहें. अपनी दूकान यहाँ भी खूब चलेगी.
यमराज जी ने कहा, "यहाँ कोई व्यापार नहीं होता है और न यहाँ रुपया, यूरो, डॉलर अथवा यें जैसी कोई मुद्रा होती है. यहाँ कर्म के अनुसार मुआवजा मिलता हैं, यह कहते हुए बनिक आत्मा को नरक के गोबर खंड मे डाल दिया गया. 
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रविवार, 8 जुलाई 2012

नेकी अभी ज़िंदा है

बन्धु कानपुर के देहात में कहीं पैदा हुए थे. बचपन में ही अनाथ हो गए थे. किसी भले आदमी ने उनको शहर के अनाथालय मे भर्ती करा दिया था. वहीं पले-बढे. उन्होंने गरीबी भुगती थी, करीब से देखी भी थी. अनाथाश्रम के संचालक ने ही उनको दीनबंधु नाम दिया था. उन्होंने इस नाम को सार्थक करते हुए अपना आधे से ज्यादा जीवन कानपुर के चमड़ा उद्योगों मे कार्यरत मजदूरों की सेवा शर्तों को सुधारने व उनके हकों की लड़ाई मे बिता दिया. वे आजीवन कुवांरे रहे. वे स्वयं भी एक चमड़े के कारखाने में कभी कर्मचारी रहे थे. लाल झंडे के बैनर तले मजदूरों को संगठित करते रहे. उनका एक जुनून सा बन गया था कि जहाँ भी अन्याय अत्याचार की बू आये वहाँ आगे होकर मदद देने पहुँच जाते थे. उन्होंने प्रांतीय नेताओं व वामपंथी संसद सदस्यों की मदद से एक सार्वजनिक मजदूर कार्यालय की स्थापना की, जहाँ कोई भी मेहनतकश अपनी तकलीफों के लिए सलाह मशविरा तथा हर तरह की मदद के लिए पहुँच सकता था. उनकी इस परदु:ख निवारण भावना को देखते हुए सभी लोग उनको गांधीवादी कामरेड बन्धु कहने लगे थे.

सं १९६२ मे भारत की सीमाओं पर चीनी आक्रमण के बाद सभी वामपंथी बहुत बदनाम किये गए. उनको रूस व चीन के एजेंट के रूप मे देखा जाने लगा. उनका आपस में भी वैचारिक तथा संगठनात्मक ढाँचे में विभाजन हो गया. वह एक तरह से थूकमपच्ची का दौर था. सेठों/कारखानेदारों की लॉबी के लोगों ने वामपंथी विचारों को देश द्रोह तक की संज्ञा दे डाली थी. उनकी जड़ उखाड़ने के सभी प्रयास किये गए. उस दौर मे ट्रेड आन्दोलन भी झगडों की भेंट चढ़ गया था.

जब खराब समय आता है तो अपने भी पराये हो जाते हैं. ईमानदारीपूर्वक रहते हुए भी बन्धु के कुछ भृष्ट साथी उनको संगठन से हटाने का षडयंत्र रचते रहे. परिणाम यह हुआ कि खुद के द्वारा स्थापित सार्वजनिक मजदूर कार्यालय के सभी जिम्मेदार पदों से उनको हटा दिया गया. बन्धु का मन बहुत खिन्न हो गया, उनको इस प्रकार की राजनैतिक उठापटक का कोई अंदेशा नहीं था. ये बात जरूर थी कि उनके अनेक मुरीद थे क्योंकि उन्होंने लोगों की निस्वार्थ सेवा/मदद की थी. बन्धु को इस बीच नया अनुभव यह हुआ कि जिन लोगों की उन्होंने भरपूर मदद की थी, वे भी किनारा करके चलने लगे थे.

बहुत मानसिक उथल-पुथल के बाद वे कानपुर को छोड़ कर किसी को बताए बगैर चले गए. राजस्थान के भिवाड़ी, अलवर में एक पूर्व परिचित के पास पहुँच गए. कहते हैं कि चोर चोरी करना छोड़ सकता है पर हेराफेरी करना नहीं भूलता है. ये कहावत बन्धु पर भी फिट बैठती थी. उन्होंने वहाँ देखा कि औद्योगिक क्षेत्र के कामगारों की वहाँ भी लगभग वही स्थिति यही जो कि उन्होंने कानपुर में देखी थी. मालिक लोग अपने कारखानों मे कर्मचारी युनियन नहीं बनने देते थे, अगर कहीं कोई चूं-चपड़ करे तो जायज-नाजायज तरीके से उसकी छुट्टी कर दी जाती थी. सरकारी निगरानी मशीनरी में बैठे लोग मालिकों ने पाल रखे थे. मालिक खूब मुनाफ़ा कमा रहे थे, पर मजदूरों का हिस्सा उनको नहीं दिया जा रहा था. बन्धु ने जन जागरण के लिए नित्यप्रति मजदूरों को उनके अधिकारों के बारे मे बताना शुरू किया. एक सस्ते से मकान के दुमंजिले में किराए पर रह कर अपना डेरा बनाया. उधर कारखानेदारों की लॉबी को ये खबर मिल चुकी थी कि एक कामरेड कानपुर से आकर लोगों को उनके विरुद्ध भड़का रहा है. उनकी यूनियनें बनवा रहा है कुछ अतिवादी रूढीवादी किस्म के मालिक और उनके नुमाइंदों ने प्लान बनाया कि बन्धु को ठिकाने लगाने का इन्तजाम किया जाये. ताकि वह दृश्य से गायब हो जाये. एक नामी अपराधी को सुपारी दी गयी, जो कि कई बार जेलों की हवा खा चुका था. वह अपराध की दुनिया में अपना दबदबा बनाये हुए था, नाम था दमालू खान.

दमालू खान का इतिहास यह था कि वह भी किसी समय कानपुर के एक चमड़ा उद्योग मे बतौर मैकेनिक काम कर चुका था, उसे चोरी के आरोप में नौकरी से निकाला गया था. तब कुछ समय तक वह मजदूर कार्यालय से मदद की भी अपेक्षा करता रहा था, पर मुकदमा लंबा चला तो उसने बन्दूक उठा ली और नामी बदमाशों की गैंग में शामिल हो गया.

उसको सुपारी के आधे रुपयों के साथ बन्धु का एक बर्तमान फोटो और डेरे की तफसील दे दी गयी. दमालू खान बड़ी होशियारी से बन्धु के ठिकाने पहुँच गया और दुमंजिले की छत पर दुबक कर रात में बन्धु के घर लौटने का इन्तजार करने लगा. उसका इरादा था कि बन्द कमरे में ही गोली मार कर उनको शांत कर देगा.

रात ९ बजे करीब बन्धु के कमरे की बत्ती जली, दमालू खान ने रौशनदान से अन्दर झाँका, निशाना लगाने से पहले उसको ऐसा लगा कि इस व्यक्ति को पहले कहीं देखा है. उसकी स्मृति ताजा हो गई कि ये तो अपने बन्धु हैं, जो कानपुर मे हरदिल अजीज थे खुद दमालू खान को बेरोजगारी के दिनों मे उन्होंने कई बार अपने साथ खाना तक खिलाया था. उसके केस में मदद करने का भी भरोसा उन्होंने दिया था. ये तो दमालू खान की अपनी जल्दबाजी थी कि वह कानपुर से अपनी लड़ाई का मैदान खुद छोड़कर बरास्ता आगरा-दिल्ली अपराध की दुनिया में कूद गया था.

दमालू खान को बड़ा झटका लगा वह संभला और सोचने लगा कि गजब हो जाता, मैं एक गरीबनवाज को मारने जा रहा था. उसने अपने आप को धिक्कारा और सीढियां उतर कर उनका दरवाजा खटखटाया.  सामने बन्धु खड़े थे. वह उनके चरणों में गिर गया. अपनी रिवाल्वर एक तरफ फेंक कर तर-तर आँसूं टपकाने लगा.

बन्धु की समझ मे कुछ नहीं आ रहा था. उन्होंने उसे पुचकारा और परेशानी का कारण पूछा. दमालू खान बोल नहीं पा रहा था. थोड़ा संयत होने पर उसने सारी दास्तान कह सुनाई. अपने पर लानत-मलानत कहते हुये माफी मांगता रहा. बन्धु ने उसे गले लगा लिया, उसे देर तक अपने पास बिठाए रखा. रोटी-सब्जी बनाई, उसे भी प्यार से खिलाया.

दमालू खान दूसरे दिन कारखानेदारों के उन नुमाइंदों के पास गया और बोला, आप लोग बड़े गुनाहगार हैं. उस नेक इंसान को मरवाना चाहते हैं, जो इस बेईमानी भरी दुनिया में अपनी तरह का अकेला आदमी बचा हुआ है. दमालू खान उनके द्वारा दी गयी पेशगी की रकम, दो लाख रुपयों, को उनके सामने फेंक कर बाहर आ गया.
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शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

रात गयी, बात गयी

ए.सी.सी. कॉलोनी, लाखेरी (राजस्थान) की जी-टाइप क्वार्टर नम्बर ४ में श्री वेद प्रकाश शर्मा, हेड ड्राफ्ट्समैन सपरिवार रहते थे. पिता स्वर्गीय श्री बिहारीलाल जी (चीफ स्टोरकीपर) के जमाने से ही वे आर्थिक रूप से संम्पन्न थे. परम्परागत पारिवारिक व्यवस्थाओं के तहत घर में खूब सारे सोने और चांदी के जेवरात थे. उन दिनों लाखेरी मे कोई बैंक या लॉकर नाम की चीज नहीं होती थी. उनके पास एक लाइसेंसी बन्दूक भी थी.

ढाई कमरों वाले उस घर में छ: छोटे-बड़े सदस्य सोये हुए थे. रात में रौशनदान से रस्सी के सहारे चोर घुसे, दरवाजा खोला और सारे बक्से उठाकर पीछे खेत में ले गए. उनको खंगाल कर जेवर तथा बन्दूक लेकर चलते बने.

सब लोग सकते आ गये क्योंकि बड़ी तरकीब से सेंधमारी हुई थी. स्थानीय पुलिस तफतीश में जुट गयी. बूंदी के तत्कालीन एस.पी. मिस्टर सिंघल (नाम मुझे ठीक से याद नहीं रहा), जो कि हाल में लन्दन के स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज से क्राइम सम्बन्धी विशेष ट्रेनिंग लेकर लौटे थे, इस केस मे बहुत रूचि ले रहे थे.

सेंधमारों ने खेत मे कुछ टोटका किया हुआ था, वहाँ उनके बालों का एक गुच्छा मिला. सिंघल साहब ने मेरी लैब मे बालों का माइक्रोस्कोपिक विश्लेषण किया ताकि सेंधमारों की उम्र का अंदाजा मिल सके. इस प्रकार एस.पी. सिंघल साहब से मेरा परिचय हुआ. जाते समय उन्होंने मुझसे कहा, कभी बूंदी आओ तो जरूर मिलना.

सेंधमारी करने वाली ये गैंग कोटा-बाराँ रोड की बावरिया बस्ती की थी, पकड़े गए. जेवरात कुछ उन्होंने बेच डाले थे, कुछ बरामद किये गए. निशानदेही पर बन्दूक भी एक जगह नहर मे डली हुई मिल गयी. बहरहाल ये केस आगे लंबा चला.

मेरी उम्र तब लगभग २६ वर्ष थी. मैं सीमेंट कर्मचारियों की बहुधंधी सहकारी समिति की प्रबंधकारिणी का आनरेरी जनरल सेक्रेटरी चुना गया था. यद्यपि मैं आज भी, उम्र की इस दहलीज पर अपने आप को वैचारिक दृष्टि से परिपक्व नहीं मानता हूँ, तब तो मैं ज्यादा ही खुराफाती था. मैंने सन १९६२ में अपने कुछ साथियों को लेकर होलिकोत्सव के अवसर पर स्थानीय स्तर पर एक मूर्ख समेलन का आयोजन शुरू किया, जो बहुत जल्दी ही लोकप्रिय हो गया. ३ घंटों के स्टेज प्रोग्राम मे तमाम स्थानीय हास्य, खबरें, नाटक, कवितायें, चुटकुले, रिकार्ड डांस, तथा अंत में कस्वे के गणमान्य लोगों को उनके चाल-चरित्र से मेल खाती हुई उपाधियां वितरित की जाती थी. लोग पूरे साल भर इस कार्यक्रम का इन्तजार किया करते थे. ये हास्य सम्मलेन पूरे २५ साल, यानि सन १९८६ तक प्रतिवर्ष आयोजित होता रहा. चूँकि इसमें मैं मुख्य सूत्रधार होता था इसलिए मुझे आज भी इसकी खट्टी-मीठी अनेक यादें ताजा हैं. कुछ लोग, उनके बारे मे कही गयी बातों का बुरा भी मानते थे, जिनसे बाद मे कई बार मुझे माफी मांगनी पड़ती थी.

सन १९६६ या ६७ में श्री बृजमोहन पारीख लाखेरी मे थानेदार हुआ करते थे. वे सिपाही से प्रोन्नत थे. सरल सज्जन थे. लोग कहते थे कि काम मे बहुत ढीले थे. उपाधियों की लिस्ट मे हमारी कमेटी ने उनको लीपने का न पोतने का उपाधि प्रदान की थी. वे स्वयं श्रोताओं मे उपस्थित थे. ये कहावत राजस्थान मे प्रत्यक्ष रूप से बिल्ली का गू से जुड़ी है. पारीख साहब को उनका इस तरह मजाक बनाया जाना बहुत अखरा. वे गुस्से में थे. मुझे बाद मे बुलाकर उन्होंने धमकाया भी कि ईलाका हाकिम की बेइज्जती करने के जुर्म मे वे मुझे अन्दर कर सकते हैं. जिस अंदाज मे उन्होंने व्यवहार किया मुझे भी तब माफी माँगना गवारा नहीं हुआ. अत: उनसे दुआ-सलाम बन्द हो गयी.

कुछ महीनों बाद कोऑपरेटिव सोसाइटी के कार्य हेतु मैं जिला मुख्यालय बूंदी गया तो एस.पी. सिंघल साहब से भी मिलने उनके कार्यालय चला गया. जब मैं उनके कार्यालय मे दाखिल हुआ तो मुझे पहचानते हुए उन्होंने बैठने को कहा. वहाँ उनके सामने वाले एक कुर्सी पर थानेदार बृजमोहन पारीख पहले से विराजमान थे. इधर-उधर की बातें करते हुए एस.पी. साहब ताड़ गए कि हम दोनों लाखेरी से आये थे पर आपस मे संवाद नहीं कर रहे थे. अत: उन्होंने मुझ से इसका कारण पूछा. मैंने उनको सही सही बताया कि होलिकोत्सव पर मूर्ख सम्मलेन में इनको हमारी कमेटी ने एक गलत उपाधि से नवाजा था, उपाधियां पढ़ी मैंने थी, तब से हमारी दुआ सलाम बन्द है.

उन्होंने पूछा, क्या उपाधि दी गयी थी? मैंने कहा मैं दुबारा नहीं बोल सकता हूँ. इन्ही से पूछ लीजिए.

सिंघल साहब ने पारीख साहब से पूछा, तुम्ही बताओ ऐसी क्या उपाधि थी जो झगड़े का कारण बनी? पारीख साहब ने झिझकते हुए बताया कि लीपने का न पोतने का जिसका अर्थ होता है, बिल्ली का गू.

सिंघल साहब हँसते हुए लोटपोट हो गए, बोले, वाह भाई, क्या खूब सोच समझ कर उपाधि दी है. मैं भी होता तो यही उपाधि देता. इसके आगे वे बोले, मिलाओ हाथ. ये कोई बात है? वो होली की बात थी रात गयी बात गयी उसे अब भूल जाओ.” ये कहते हुए वे अपनी सीट से उठ खड़े हो गए.

इस घटना को अब ४५ साल से ज्यादा हो गए हैं, स्मृतिशेष पारीख साहब से मैं उनके रिटायरमेंट के बाद भी कई बार कोटा में मिला, और उनके आशीर्वाद लेता रहा.
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बुधवार, 4 जुलाई 2012

काली जीभ

यह विश्वास है कि कुछ लोगों की जीभ काली होती है. वे अनायास जो कह डालते हैं, वह बाद में सच साबित हो जाता है. खरही गाँव की रूपा ताई की जीभ भी इसी तरह बदनाम थी.

लोकमणि जब छोटा था तो उसको इस तरह की बातों का कोई सरोकार नहीं था. स्कूल मे गर्मियों की छुट्टियां हो जाने पर गाँव के बच्चे अपने जानवरों को चराने के लिए पातळ के जंगल की तरफ ले जाने मे बहुत खुश रहते थे. लोकमणि भी अन्य ग्वालों के साथ अपनी दो गायों, दो बैलों, व चार बकरियों को मजे से हांकते हुए यहाँ आ जाता था. बच्चे खूब मस्ती करते हुए जंगल में दिन बिता आते थे. जिन परिवारों मे किशोर लड़के–लड़कियां नहीं होते थे, उनके बड़े-बूढ़े ग्वाले बने रहते थे. ग्वालों को जानवरों की रखवाली भी करनी होती थी. शाम होते होते जानवर खुद गाँव का रुख करने लगते थे.

लोकमणि को जानवरों को चराने के साथ साथ चिड़ियों के घोंसलों को ढूँढने और उनको छेड़ने में ज्यादा मजा आता था. उसने न जाने कितने घोंसले तोड़ डाले तथा गुलेल से चिड़ियों को निशाना बनाया होगा, इसका कोई हिसाब नहीं है. रूपा ताई उसकी इन हरकतों पर टोकती रहती थी, पर वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आता था. ताई कहती थी, इन बेजुबानों को मत मारा कर इसका बड़ा पाप लगता है. लोकमणि के लिए तब पाप-पुण्य जैसे शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता था. ताई ने एक बार कर्कश स्वर मे डांटा भी, अरे, मत छेड़ इन अण्डों को, तू निपूता रह जाएगा. पर वह कहाँ समझता, लोकमणि तो चिड़ियों का दुश्मन बन जाता था.

एक बार जब लोकमणि ने एक घुरड (हिरन) के छोने पर पत्थर दे मरा तो उसकी कमर ही टूट गयी थी. घुरड का बच्चा बहुत मिमियाता, कराहता रहा. ताई ने जब देखा तो गुस्से मे बोली, एक दिन तेरी भी कमर ऐसे ही टूटेगी.

ये सब बचपन की बातें थी. बचपन बीत गया, लोकमणि गाँव से शहर मे आ गया. स्कूल के बाद कॉलेज से बी.एससी. करके ग्राम सेवक की नौकरी पर लग गया. व्याह हो गया. सुख भरे दिन कब बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता है.

एक कसक रह गयी कि व्याह के कई वर्षों के बाद भी कोई औलाद नहीं हुई. घर आँगन मे बच्चे की किलकारी किसे नहीं सुहाती है? देशी टोटके, पूजा-पाठ के अतिरिक्त डाक्टरी ईलाज भी खूब कराया, पर परिणाम नहीं बदला. रह रह कर लोकमणि को रूपा ताई की काली जीभ की बातें याद आती थी, ताई का वचन इस तरह फलित होगा यह सोचा भी नहीं था.

प्रकृति से हँसमुख, परिचितों/अपरिचितों का सहायक, हर हाल में खुश रहने वाला लोकमणि अपने अकेलेपन में रूपा ताई की दुत्कारती आवाज को याद करके कई बार सिहर जाता था. उसे याद था कि घुरड के बच्चे की कमर टूटने के बाद ताई ने एक और बात कही थी कि, तेरी भी कमर टूटेगी. काली जीभ की इस बात से आतंकित रहते हुए लोकमणि कभी भी साइकिल या मोटर-साइकिल की सवारी मे नहीं बैठा. और हमेशा ही अपनी हिफाजत के प्रति सजग रहता था.

दो साल पूर्व नौकरी से रिटायर होने के बाद वह छोटी हल्द्वानी के पास एक सुविधापूर्ण घर बना कर रहने लगा. पहाड़ से उसके अनेक रिश्तेदार एवँ परिचित परिवार वहीं आकर बस गए थे. घर से करीब आधा किलोमीटर दूरी पर एक पुराना दोस्त दीवानसिंह रहता है. उसके लड़के के विवाहोत्सव मे दावत खाकर रात ११ बजे अकेले पैदल घर लौट रहा था कि नहर के किनारे पर पैर फिसला और वह नहर मे जा गिरा. ये अच्छा हुआ कि उस दिन नहर मे पानी की बारी नहीं थी,अन्यथा बह जाते. गिरने के बाद उन्होंने उठने की कोशिश की, पर वे उठ नहीं सके, कमर से नीचे का शरीर पूरी तरह सुन्न पड़ गया. आधी रात को सुनसान पगडंडी पर कोई आवाजाही नहीं थी, कौन सहायता करता? यों सुबह होने तक वहीं पड़े रहे.

चिंतातुर पत्नी सुबह उजाला होते ही उनकी तलाश मे निकली तो उनको सूखी नहर मे कराहते हुए पाया. बदन इतना भारी लगा कि वह उसे उठा नहीं पाई, अत: गाँव मे जाकर पड़ोस में खबर की तब तीन चार लोगों ने मिलकर उनको मुश्किल से निकाला. हल्द्वानी लाकर ऑर्थोपेडिक सर्जन को दिखाया. १५ दिन भर्ती रहे, जब कोई फ़ायदा नहीं मिला तो नई दिल्ली AIMS में ले गए. वहाँ सारी जांच पड़ताल हुई, ईलाज चला, पर लकवाग्रस्त हिस्सा वैसा ही रहा.

वापस घर लाये गए, दो वर्षों से खाट पर पड़े हैं, शरीर बहुत भारी थुलथुल हो गया है, पीठ पर बेडसोर हो गए हैं. पड़े पड़े रूपा ताई की आत्मा को कोसते रहते हैं. रूपा ताई तो खुद कब की दूसरा जन्म लेकर कहीं और बेजुबान प्राणियों की हिमायत की मुहिम चला रही होगी.
                                              ***

सोमवार, 2 जुलाई 2012

शनि

विशाल मेगामार्ट के मॉल में एक नौजवान सेल्समैन टाई के साथ अपनी अनुशासित ड्रेस में था. एक महिला ग्राहक से बोला, दीदी प्रणाम. दीदी ने प्रत्युत्तर दिया खुश रहो, मैंने तुम्हें पहचाना नहीं. तो वह बोला मैं शनि, आपके मोहल्ले में शानिदान लेने मैं ही तो आता हूँ. उस महिला को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि काले कपडे, काले टीके और हाथ में तेल की बाल्टी लेकर चलने वाला आदमी यहाँ बन ठन कर सेल्समैन का काम कर रहा है. वह फिर बोला, यहाँ मैं नौकरी करता हूँ. शनिवार को छुट्टी रहती है इसलिए शानिदान लेने के लिए अपने इलाके में घूमता हूँ.

इस पूरे प्रकरण पर खोजबीन करने पर मालूम हुआ कि काशीपुर के पास एक पूरा बड़ा गाँव तेलियों का है, जिनका पुस्तैनी धन्धा शानिदान लेने का रहा है. आपस में इलाके पहले से बंटे हुए हैं. हर शनिवार को ये लोग दूर दूर तक ट्रेन या बस से जाकर अपने-अपने इलाकों में तेल और पैसे उगाही करने जाते हैं और रात तक लौट भी आते हैं.

बड़े शहरों में भी देखा जाता है कि कुछ भिखारी या उनके बच्चे शनिवार के दिन शनिदेव की फोटो और तेल का डिब्बा लेकर घूमते रहते हैं, खासकर लालबत्ती पर गाड़ी रुकते ही वे हाजिर हो जाते है. शनि के नाम से भीख माँगने का ये सरल तरीका अपनाया जाता है.

आम लोग अन्धविश्वासी व धर्मभीरू होते ही हैं, अपनी परम्परागत रूढियों को छोड़ भी नहीं सकते हैं. उत्तर भारत में जगह जगह शनि देवता के मंदिर भी स्थापित हैं, जहाँ काले रंग के मूछ वाले शनिदेव की मूर्तिया हैं. पौराणिक गल्पों के अनुसार शनि सूर्यपुत्र हैं और न्याय के देवता माने जाते हैं. प्राचीन रोमन मिथकों में सैटर्न यानि शनिदेव को कृषि का देवता माना गया है. ज्योतिष की गणना के अनुसार शनि सभी बारह राशियों में घुमते रहते हैं. किसी राशि में साढ़े सात वर्षों तक विचरण करते हैं तो कहा जाता है कि उसे शनि की साढ़ेसाती की दशा आई है. शनि अच्छे फल भी देता बताये जाते हैं, पर ज्यादातर अमंगल व अशुभकारी फल दिया करते हैं. फलित ज्योतिषियों के पास इसके अनेक विश्लेषण होते हैं. साथ ही समाधान भी. जिसमें धन दान और तेल दान श्रेष्ठ बताए जाते हैं. शनि चूंकि भयभीत करने वाला ग्रह माना जाता है, लोग हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हैं कि देव, आप दूर से ही कृपा बनाए रखना.... आपकी दृष्टि मुझ पर बक्री ना हो. आम लोगों में शनि देव का भय इस कदर व्याप्त रहता है कि उनकी राशि मे शनि के आगमन पर अनेकों तरह के अनुष्ठान व दान किये जाते हैं. कर्मकांडी लोगों ने इस भय को पीढ़ियों से अपनी कमाई का जरिया भी बना रखा है.

सौर मण्डल (सूर्य का परिवार) के नौ ग्रहों में शनि ग्रह भी है, जो सबसे दूरी पर है तथा आकार में भी बड़ा है. इसके गोलाई के बाहर गैस की मोटी मोटी वलियाँ (रिंग्स) हैं. शनि ग्रह के अपने कई चंद्रमा भी हैं जो उसके चक्कर काटा करते हैं. खगोल शास्त्री शनि के बारे में बहुत से तथ्य व जानकारियां हासिल कर चुके हैं और अभी इस दिशा में अन्वेषण जारी हैं. ये वृहद विषय है. इस सम्बन्ध में इंटरनेट पर विद्वान लोगों के बड़े बड़े लेख व चित्र भी उपलब्ध हैं.

मुंशी प्रेमचंद की कथाओं में एक पात्र का नाम शनीचरी भी है. नाम थोड़ा अटपटा सा जरूर लगता है पर तत्कालीन ग्रामीण परिवेश में कथाकार ने बेहद भावनापूर्ण तरीके से कथानक में उपयुक्त चित्रण करने के लिए विशिष्ट नाम दिया हैं. नाम में क्या रखा है वाली बात नहीं है. नाम में बहुत कुछ राज छिपे होते हैं. पिछले समय में बड़ी सरलता से नामकरण कर लिया जाता था. ऐसे कई उदाहरण है कि मंगलवार को कोई पैदा हुआ तो उसका नाम मंगल, मंगल सिंह, या मंगलराम रख लिया, बुधवार का पैदा हुआ बुधिया, बुधराम, या बुधसिंह हो सकता था. मुसलमानों में भी जुम्मे के दिन पैदा होने वाले को जुम्मन या जुम्मा खान नाम दिया जाता है. अंग्रेजी उपन्यास 'रौबिनसन क्रूसो में एक चरित्र का नाम फ्राईडे इसलिए रखा जाता है क्योंकि वह शुक्रवार को मिला था. पर जिस तरह कोई भी अपने बेटे का नाम रावण नहीं रखते हैं, उसी तरह बेटे का नाम शनिश्चर भी नहीं मिलता है.

राजस्थानमध्य प्रदेश में अगर किसी को कोई तेली सुबह सुबह मिल जाता है या किसी शुभ काम के लिए चलते ही तेली मिल जाये तो कहा जाता है शनीचर सामने आ गया है, पता नहीं काम बनता है या नहीं?. ये पूर्णरूप से अंधविश्वास है.

शनि के विषय में अनेक भ्रांतियां हैं. यहाँ कूर्मांचल में लोग शनिवार को रिश्तेदारी में, खासकर बीमारों को देखने के लिए जाने में परहेज करते है. ये अशुभ माना जाता है. कहीं शोक प्रकट करने जाना हो तब मंगल व शनि का दिन चुना जाता है. पर राजस्थान में इसकी ठीक बिपरीत सोचा जाता है. हाँ, गृहप्रवेश के लिए शनिवार का दिन उत्तम माना जाता है. ये तमाम मिथक/व्यवस्थाएं कहीं भी धर्मशास्त्रों में नहीं हैं. लोगों ने खुद बनाए हैं. हमारा देश इतना विशाल है कि अलग अलग जगह, अलग अलग तरह से अर्थ निकाले जाते हैं.

मेरे एक मित्र ने कन्या राशि में शनि के प्रवेश होने पर प्रकोप से बचने के लिए मुझे सलाह दी थी कि निम्न मन्त्र का जाप किया करूँ:
कृष्णअन्गाय विदमेह सूर्यपुत्राय धीमही, तन्नो शोरी प्रचोदयात.
मन बहलाने के लिए बैठे ठाले इस प्रकार की चर्चा करना एक अच्छा शुगल है, पर मैं इन सब बातों को गप मानता हूँ.
                                     ***

रविवार, 1 जुलाई 2012

इश्क


कर बैठे कोई किशोर इश्क
        उसे बस, नादानी कह लीजे,
भरी जवानी इश्क न होवे
        ऐसी जवानी पर लानत दीजे.
करे लगन के बाद इश्क इतर
        उसे बदमाशी का नाम दीजे.
यदि होए इश्क साठ के पार
       तो पकड़, माथे पर जूते दीजे.
पर लगे रोग अस्सी के बाद
       तो दादू पर खास तवज्जो दीजे.
उत्तम कवि की बात लाख की
        ये तो इश्क है, हल्के मत लीजे.
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