मंगलवार, 17 जुलाई 2012

वार्षिक श्राद्ध

आज मोहिनी आमा का वार्षिक श्राद्ध है. उसके बेटे गौरीदत्त ने तीन दिन पहले ही अखबार मे आमंत्रण छपवा दिया था. यहाँ कुमाऊँ मे पीपल पानी यानी बारहवीं/तेरहवीं हो या वार्षिक श्राद्ध हो, शमशान तक साथ देने वाले लोगों तथा नजदीकी लोगों को प्रसाद ग्रहण करने के नाम पर मृत्युभोज पर बुलाना एक पारंपरिक दस्तूर है. लोग इस दावत को खाने में कोई गुरेज भी नहीं करते हैं, बल्कि कई लोग तो इसे पुण्यकार्य समझते हैं. मरने वाले का परिवार अमीर हो अथवा गरीब हो, परोसे जाने वाले व्यंजनों में हैसियत के अनुसार फर्क तो रहता ही है, पर गरीब लोग भी मृतक/मृतिका की प्रेतात्मा की सन्तुष्टि एवँ तृप्ति के लिए यथाशक्ति बढ़िया पकवान बनवाते हैं, चाहे पूरा आयोजन ऋण करके ही क्यों ना किया जा रहा हो.

मोहिनी देवी स्वर्गीय रामदत्त पाठक की विधवा थी. मूल रूप से अल्मोड़ा के दसौली गाँव की रहने वाली थी. रामदत्त पाठक कर्मकाण्डी वृति वाले ब्राह्मण थे, और आसपास कई गाँवों में उनकी जजमानी थी. एक दिन वे अकाल मृत्यु वरण करके इस सँसार को छोड़ गए. पीछे रह गए बेचारी मोहिनी देवी और दो किशोर बच्चे. पंडित जी की मृत्यु के बाद मोहिनी देवी के सामने परिवार पालने की समस्या खड़ी हो गयी. थोड़ी से असिंचित जमीन थी, जो जीविकोपार्जन के लिए अपर्याप्त थी. कुलीनता की छाप लगी थी इसलिए कहीं कुली-मजदूरी भी नहीं कर सकती थी. घर के पिछवाड़े दो बड़े बड़े नाशपाती के पेड़ थे जो पेट भराई के काम आ रहे थे. यों जौला या मोटे अनाज का इन्तजाम करके तिल तिल जी रही थी.

बड़े बेटे गौरीदत्त को उसने बागेश्वर उसके मामा के पास पढ़ाई के लिए भेज दिया था, जहाँ से उसने दसवीं पास कर ली. गाँव के एक हितैषी व्यक्ति के साथ उसे रोजगार की तलाश में हल्द्वानी भेज दिया. छोटा बेटा निगरानी के अभाव में आवारा हो गया, ड्राईवर-कंडक्टरों की सोहबत में कहीं लंबा निकल गया जिसका कोई अता पता नहीं है.

गौरीदत्त को एक स्टोन क्रशर में मुंशी का काम मिल गया और कुछ महीनों बाद वह अपनी माँ को भी साथ ले आया. गाँव की जमीन मात्र पन्द्रह हजार रुपयों में गिरवी रख कर बाहरी हल्द्वानी में एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा खरीद कर, पहले कच्ची झोपड़ी बाद मे वहाँ एक कमरा रसोई बाथरूम वाला पक्का घर बना कर रहने लगा. ये सब उत्तराखंड के अलग राज्य बनने से पहले ही हो गया था, अन्यथा हल्द्वानी मे जमीन के भाव इतने बढ़ गए हैं  कि गरीब आदमी का घर बनाने का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता. मोहिनी देवी ने अपने जैसे ही एक परिवार की कन्या को बहू बना कर गौरीदत्त की गृहस्थी जमा दी. शादी में बड़ा ताम झाम न करके खर्चों से बचने के उद्देश्य से घोड़ाखाल गोल्ज्यू के मंदिर में सात फेरे डलवाए. इधर उनके घर के आजू-बाजू जमीन की प्लाटिंग होती रही, देखते देखते संभ्रांत लोगों के बड़े बड़े आलीशान मकान बन गए. गौरीदत्त का वेतन बहुत थोड़ा था, लेकिन मोहिनी देवी को सरकार की तरफ से विधवा पेन्शन का सहारा मिल गया. उन्होंने उसी में गुजारा करना सीख लिया. मजबूरी भी थी. मोहिनी देवी ने कभी किसी से भीख नहीं माँगी. दुकानों का उधार भी समय पर चुकाती रहती थी. उसके श्वेत केश, ढलती उम्र, और सादगी को देख कर गली और मोहल्ले के लोग उसे मोहनी आमा संबोधित करने लगे. लेकिन उसकी दीनता पर किसी ने ध्यान नहीं दिया.

इस बीच पाँच वर्षों के अंतराल मे गौरीदत्त दो बच्चों का पिता भी बन गया. मोहिनी आमा को जीने की नई उमंग हो गयी थी, पर कुदरत को ये ज्यादा समय के लिए मंजूर नहीं रहा, वह बीमार रहने लगी. दुबली-पतली होने के बावजूद उसे ‘उच्च रक्तचाप’ सताने लगा. कुपोषण भी था. अज्ञानता व अशिक्षा के कारण सही दवाएं नहीं मिली. सरकारी अस्पताल से जो दवाएं मिली उनका नियमित सेवन भी नहीं हुआ. उसकी अस्वस्थता की खबर लगभग सभी को हो गयी थी, लेकिन खोखली सहानुभूति के सिवाय किसी ने उसकी आर्थिक मदद करने की बात नहीं की. ये सँसार ऐसा ही है. किसको फुर्सत है? कौन आफत मोल ले? आम लोग तो स्वार्थी और पाखंडी होते हैं. मोहिनी आमा 
इस मुकाम पर चाहती जरूर थी कि कोई उसकी मदद करने आगे आये. पर वह निराश और असहाय थी  और अपने भाग्य को कोसती थी.

घर में कमरा एक ही था इसलिय ठण्ड की ठिठुरती रातों में भी वह बरामदे मे लिहाफ ओढ़ कर सोती थी. एक सुबह वह चिरनिद्रा में सोती हुई पाई गयी. मुहल्ले-गाँव के मर्द लोग उसकी शव यात्रा में शरीक हुए. चित्रशिला घाट पर उसके पार्थिव शरीर को पंचतत्व मे विलीन कर आये. गौरीदत्त ने उनका विधिवत क्रिया-कर्म किया. पीपलपानी में मुर्दियों को भोजन कराया. समय किस तरह भागता है. देखिये मोहिनी आमा को गुजरे हुए एक वर्ष हो गया है. गौरीदत्त ने पूरे एक वर्ष तक पुत्रधर्म का निर्वाह करते हुए साधानापूर्ण नियमों का पालन किया. अब उसने अखबारी विज्ञप्ति द्वारा स्वजनों को प्रसाद ग्रहण का आमंत्रण छपवाया. आफिस से तथा कुछ मित्रों से रूपये उधार लेकर करीब एक सौ लोगों के लिए पाँच पकवानों की व्यवस्था की.

उसका नालायक भाई माँ की मौत पर भी घर नहीं आया था और आज भी अनुपस्थित था. रिश्तेदार तथा गाँव मोहल्ले के कई लोग भोजनार्थ निमंत्रण स्वीकार करते हुए आ धमके. हंसी ठठ्ठों के बीच देश में हो रही राजनैतिक उठापटक पर चर्चाएं करते हुए स्वादिष्ट भोजन पर टूट पड़े. विडम्बना ये रही कि खाने वालों की संख्या अनुमान से ज्यादा बढ़ गयी. तैयार सामान कम पड़ गया. बाद में आने वाले कुछ लोग निराहार ही लौट गए. घरवाले व रसोईये भूखे रह गए, उनके लिए दुबारा दाल-चावल पकाने की तैयारी हुई. अगर सचमुच प्रेतात्मा इस दिन तक इन्तजार करती होगी तो निश्चित ही मोहिनी आमा की आत्मा यहीं कहीं मुडेर पर बैठ कर ये सारा नजारा देख रही होगी.

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