बुधवार, 25 जुलाई 2012

काल चिन्तन- २

जाति-प्रथा और छुआछूत के विकृत स्वरुप का अनुभव करने के लिए हमें डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की आत्मकथा पढ़नी होगी. वे सही मायने में शूद्रों/दलितों के प्रतिनिधि व मसीहा थे. इसलिए वर्तमान भारतीय संविधान की संरचना में उनका योगदान कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है. उस समय की सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी कि सवर्ण कहे जाने वाले लोगों ने उन तिरस्कारों व दुत्कारों को नहीं झेला जो अम्बेडकर जी व उनके पूर्ववर्ती दलित लोगों ने झेला था. उन परिस्थितियों में उनका हिन्दू धर्म से घृणा करते हुए बौद्ध धर्म स्वीकार करना बहुत स्वाभाविक कहा जा सकता है.

जाति प्रथा की विद्रूपता के फलस्वरूप देश के तमाम गरीब शिल्पकारों (जिनको गाँधी जी ने ‘हरिजन’ नाम दिया) को सवर्णों की गुलामी में जीना पड़ता था. उनके हल जोतने, कृषि कार्यों को संपन्न करने के अलावा सेवा चाकरी मे जिंदगी बीत जाती थी क्योंकि उनको भी ये अहसास रहता था कि वे शूद्र हैं और सेवा करना ही उनका धर्म है. उच्च वर्ण के लोगों के मन मस्तिष्क मे भी ये बात घर की हुई थी कि दलितों का हर तरह से शोषण करना उनका विशेषाधिकार है.

आर्थिक विपन्नता के साथ साथ बौद्धिक विपन्नता सदियों से इन शूद्रों को दलित बनाए हुए थी. यद्यपि पिछली अठारहवीं व उन्नीसवीं शताब्दी में कई समाज सुधारकों ने इस मुद्दे पर गंभीर विवेचन किये लेकिन तब प्रचार-प्रसार के लिए कोई मीडिया नहीं था, और इस विशाल देश मे कई-कई ऐसे क्षेत्र थे जहाँ पुराणपंथी विचारों से ग्रस्त लोगों ने जाति प्रथा व छुआछूत को बरकरार रखा.

ईसाई मिशनरियों ने हिंदुओं की इस कमजोरी को पहचाना और दुखती रग पर अंगुली रख कर आर्थिक प्रलोभन व समाज मे जातिविहीन बराबरी का दर्जा बता कर धर्म परिवर्तन कराने के अपने मिशन को जगह जगह आगे बढ़ाया. पर उनकी तारीफ़ इस बात से की जाती है कि उन्होंने सेवा और शिक्षा के माध्यम से लोगों को अपना बनाया. हिंदूवादी संगठनों ने समय समय पर मिशनों के कार्य कलापों व कार्य कर्ताओं पर जोरदार हमले भी किये.

देश की स्वतन्त्रता की प्राप्ति से पहले ही अछूतोद्धार की ज्योति प्रज्वलित हो चुकी थी और स्वतंत्रता के बाद तो इस सम्बन्ध मे क़ानून बना दिये गए. पुराने जातिसूचक शब्दों का प्रयोग अपराध करार कर दिया गया. गत साठ-पैंसठ वर्षों मे बहुत हद तक पिछड़े लोगों को बराबरी पर लाने के भगीरथ प्रयास किये गए हैं. कई क्षेत्रों में तो अब दलित वर्ग से आने वाले लोग शिक्षित व आर्थिक दृष्टि से संपन्न होकर समाज की अगली पंक्ति में आ गये हैं या उससे भी आगे निकल रहे हैं.

सवर्णों की तरफ से आवाजें उठने लगी हैं कि अब आरक्षण खतम हो जाने चाहिए. उच्च तबके तक पहुंचे हुए लोगों को आरक्षण से तुरन्त बाहर रखा जाना चाहिए. अभी हाल मे अदालती फैसला भी आया है कि अब पदोन्नतियों में आरक्षण बन्द किया जाना चाहिए. विडम्बना यह है कि आरक्षण का रसगुल्ला, जाट, गूजर, ठाकुर आदि भी प्राप्त करने के लिए लालायित हैं. इनके कर्णधार वोट बैंक की राजनीति पर उतर आये हैं. प्रारम्भ में दलितों को भी केवल दस साल तक आरक्षण की व्यवस्था थी, पर संविधान में बार बार संशोधन करके इसे बढ़ाया जाता रहा है. यह लोकतंत्र के दोषों में से एक है कि बहुमत कई बार न्याय के साथ खिलवाड़ भी कर जाता है.

सबसे प्रसन्नता की बात यह है कि अब आम लोगों में जाति आधारित छुआछूत खतम हो गयी है. कुछ राजनैतिक नेताओं द्वारा अपना जातिगत वोट बैंक बनाए रखने के लिए वर्ग संघर्ष की जैसी संभावनाओं और नारों को जन्म दिया था जिसको लोगों ने नकार दिया है.

अभी हम लोग सामाजिक व राजनैतिक चेतना के संक्रमण काल से गुजर रहे हैं, ऐसे समय में आवश्यकता है कि समाज को परिपक्व नेतृत्व मिले. जाति-धर्म के नाम पर बांटने के प्रयास बन्द हों.

हम एक महान संस्कृति की विरासत के वारिस हैं. सभी विसंगतियों व भेदभावों को समाप्त करने के प्रयास करते हुए आने वाली पीढ़ियों के लिए विष के बीज बो कर ना जाएँ अन्यथा इतिहास हमें कभी भी माफ नहीं करेगा.

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