मोक्षदायिनी, कलिमलहारिणी गंगा नदी अनादिकाल से उत्तर भारत की जीवन रेखा रही है. अनेकों छोटी बड़ी नदियाँ व नाले इसकी सहायक (ट्रिब्यूटरी) रही हैं. पौराणिक गल्पों में इसे स्वर्ग से शंकर की जटाओं के माध्यम से धरती पर लाया गया था. भगीरथ नामक रघुवंशी राजा के साठ हजार पुरखों को तारने के लिए कठोर तपस्या से ये संभव हुआ, ऐसा बताया जाता है.
प्राकृतिक तथा वैज्ञानिक सत्य यह है कि हिमालय पर्वत की बर्फीली चोटियों से निकल कर, ऋषिकेश से मैदानी भाग पर बहने लगती है. यह विशाल नदी अविरल बहते हुए बंगाल में गंगासागर जाकर समुद्र में विसर्जित हो जाती है.
सनातन धर्म की आस्थाओं में इसे ‘गंगा मईया’ कहा गया है. इसका जल पवित्र और अक्षुण्य माना गया है, जिसमें कीटानुरोधक तत्व विद्यमान रहते हैं. सावन के महीने में शैव व वैष्णव मतावलंबी, कल्याणकारी देवता महादेव शंकर की मूर्तियों व स्थापित लिंगों को गंगा जल से अभिषेक करते हैं अर्थात स्नान कराते हैं. गंगा जल के वाहक ‘कावड़’ में जल ढो कर ले जाते हैं इसलिए ‘कावडिये’ कहलाते हैं. यद्यपि यह विश्वास व परमपरा बहुत पुरानी हो सकती है, पर हाल के वर्षों में हरिद्वार में ‘कावड़ मेला’ नया रूप ले चुका है. यह शिव भक्तों का जूनून बन गया है, जिसे पूरी तरह सामाजिक मान्यता भी मिल रही है. कावड़ियों की बड़ी संख्या में आवागमन करने से राजमार्गों पर आम लोगों व अन्य वाहनों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ रहा है.
अखबारों में खबर छपी है कि गंगा का उदगम अब गोमुख से कुछ अलग हट कर हो रहा है. प्रकृति अपने नियम व रास्ते खुद बनाते आई है, इसमें मानवीय छेड़छाड़ या दखलंदाजी जब भी होती है तो परिणाम ठीक नहीं होते हैं.
देश में औद्योगीकरण होने से, जनसंख्या का दबाव बढ़ते रहने से, आस्थाओं के वशीभूत जैविक सामग्री विसर्जित किये जाने से तथा पॉलीथीन जैसे खतरनाक पदार्थ के आविष्कार से सभी नदियों-नालों का बुरा हाल हो गया है, विशेषकर जब नदियाँ बड़े शहरों के पास से बहती हैं तो कूड़ा-कचरा, सीवर की गन्दगी, तथा उद्योगों से निष्काषित रसायन उसमें समा जाते है. इस प्रकार उसका शुद्ध व पवित्र स्वरुप पूर्णतया समाप्त हो जाता है.
गंगा की पवित्रता के विषय में तो सदियों से लोग दैवीय आस्थाएं जमाये हुए हैं. उसमें स्नान करना तो दूर, केवल दर्शन मात्र से ही पाप नाश व मोक्ष की परिकल्पना की जाती है. इसी सन्दर्भ में एक छोटा सा दृष्टांत है कि एक साधु अपने चेले के साथ दूर पश्चिमी भारत से गंगा दर्शन के लिए पैदल चला. उन दिनों आज की तरह सड़कें व परिवहन के साधन नहीं होते थे. चलते चलते पैर सूज गए. शाम होने को आई पर गंगा तक नहीं पहुँच पाए. एक मुकाम पर गुरू ने चेले से कहा, “तुम सामने के ऊंचे पेड़ पर चढ कर देखो कि गंगा अभी कितनी दूर है?” चेला पेड़ पर चढ़ गया और उसे कुछ दूरी पर बहती हुई गंगा दिख गयी. उसने गुरु को बताया, “मुझे गंगा के दर्शन हो गए हैं.” गुरु प्रसन्न हुए और बोले, “गंगा देख कर तुम शुद्ध, तुमको देख कर मैं भी शुद्ध हो गया, अब आगे जाना जरूरी नहीं है.”
ये तो गुजरे जमाने की बात है, अब तो स्थिति यह है कि गंगा बहुत मैली हो चुकी है. वह जितना मैदानी हिस्से में आगे बढ़ती जाती है उतनी ही गन्दगी व कूड़ा-कचरा उसमें बढ़ता जाता है. इलाहाबाद के पवित्र संगम पर तो इसका पानी पीने लायक नहीं रहा है.
नदियाँ तो दक्षिण भारत में भी बड़ी बड़ी हैं, पर इस तरह प्रदूषित होने की उनके बारे में कोई चर्चा सुनने में नहीं आती है. गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की बातें बहुत पहले से होती रही हैं. पर्यावरणविदों ने समय समय पर इस पर चिंताए जताई हैं. पूर्व प्रधान मन्त्री स्वर्गीय राजीव गाँधी ने अपने कार्यकाल मे इस मुहिम को गति दी थी. बहुत धन व संगठनात्मक व्यवस्था भी की. इस प्रदूषण मुक्त गंगा मिशन को कई गैर सरकारी संस्थाओं (N.G.O.) ने भी चलाया. साधु-संतों ने भी आवाजें उठाई, खूब हल्ला होता रहा तथा इस अहम मुद्दे पर राजनीति भी जोर शोर से होने लगी है, पर खेद इस बात का है कि हम जहाँ से चले थे आज भी वहीं हैं. कारण यह है कि सब नागरिक गैर जिम्मेदार हैं, दूसरों को उपदेश करना जानते हैं, पर स्वयं अनुशासित नहीं रहते हैं. बड़ी बात यह भी है कि सरकारी मह्कमें हद दर्जे तक भ्रष्ट हैं.
अभी कुछ दिन पहले मेरे कुछ रिश्तेदार बद्रीनाथ धाम की यात्रा पर गए थे. वापसी मे वहाँ के प्रसाद के साथ एक छोटी बोतल मे शुद्ध गंगा जल भी लेकर आये हैं. इसकी कुछ बूँदें हम शुद्धिकरण मन्त्र,
के साथ अपने आसपास छिड़क कर ढोंग कर सकते हैं, पर जरुरत तो इस बात की है कि गंगा नदी की अविरल धारा ठेठ गंगासागर तक प्रदूषण मुक्त हो. नालों-सीवरों तथा कारखानों से निकलने वाले रसायनों से मुक्त हो. इसमें किसी प्रकार की राजनीति ना हो, आवंटित धन की पूरी निगरानी हो.
प्राकृतिक तथा वैज्ञानिक सत्य यह है कि हिमालय पर्वत की बर्फीली चोटियों से निकल कर, ऋषिकेश से मैदानी भाग पर बहने लगती है. यह विशाल नदी अविरल बहते हुए बंगाल में गंगासागर जाकर समुद्र में विसर्जित हो जाती है.
सनातन धर्म की आस्थाओं में इसे ‘गंगा मईया’ कहा गया है. इसका जल पवित्र और अक्षुण्य माना गया है, जिसमें कीटानुरोधक तत्व विद्यमान रहते हैं. सावन के महीने में शैव व वैष्णव मतावलंबी, कल्याणकारी देवता महादेव शंकर की मूर्तियों व स्थापित लिंगों को गंगा जल से अभिषेक करते हैं अर्थात स्नान कराते हैं. गंगा जल के वाहक ‘कावड़’ में जल ढो कर ले जाते हैं इसलिए ‘कावडिये’ कहलाते हैं. यद्यपि यह विश्वास व परमपरा बहुत पुरानी हो सकती है, पर हाल के वर्षों में हरिद्वार में ‘कावड़ मेला’ नया रूप ले चुका है. यह शिव भक्तों का जूनून बन गया है, जिसे पूरी तरह सामाजिक मान्यता भी मिल रही है. कावड़ियों की बड़ी संख्या में आवागमन करने से राजमार्गों पर आम लोगों व अन्य वाहनों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ रहा है.
अखबारों में खबर छपी है कि गंगा का उदगम अब गोमुख से कुछ अलग हट कर हो रहा है. प्रकृति अपने नियम व रास्ते खुद बनाते आई है, इसमें मानवीय छेड़छाड़ या दखलंदाजी जब भी होती है तो परिणाम ठीक नहीं होते हैं.
देश में औद्योगीकरण होने से, जनसंख्या का दबाव बढ़ते रहने से, आस्थाओं के वशीभूत जैविक सामग्री विसर्जित किये जाने से तथा पॉलीथीन जैसे खतरनाक पदार्थ के आविष्कार से सभी नदियों-नालों का बुरा हाल हो गया है, विशेषकर जब नदियाँ बड़े शहरों के पास से बहती हैं तो कूड़ा-कचरा, सीवर की गन्दगी, तथा उद्योगों से निष्काषित रसायन उसमें समा जाते है. इस प्रकार उसका शुद्ध व पवित्र स्वरुप पूर्णतया समाप्त हो जाता है.
गंगा की पवित्रता के विषय में तो सदियों से लोग दैवीय आस्थाएं जमाये हुए हैं. उसमें स्नान करना तो दूर, केवल दर्शन मात्र से ही पाप नाश व मोक्ष की परिकल्पना की जाती है. इसी सन्दर्भ में एक छोटा सा दृष्टांत है कि एक साधु अपने चेले के साथ दूर पश्चिमी भारत से गंगा दर्शन के लिए पैदल चला. उन दिनों आज की तरह सड़कें व परिवहन के साधन नहीं होते थे. चलते चलते पैर सूज गए. शाम होने को आई पर गंगा तक नहीं पहुँच पाए. एक मुकाम पर गुरू ने चेले से कहा, “तुम सामने के ऊंचे पेड़ पर चढ कर देखो कि गंगा अभी कितनी दूर है?” चेला पेड़ पर चढ़ गया और उसे कुछ दूरी पर बहती हुई गंगा दिख गयी. उसने गुरु को बताया, “मुझे गंगा के दर्शन हो गए हैं.” गुरु प्रसन्न हुए और बोले, “गंगा देख कर तुम शुद्ध, तुमको देख कर मैं भी शुद्ध हो गया, अब आगे जाना जरूरी नहीं है.”
ये तो गुजरे जमाने की बात है, अब तो स्थिति यह है कि गंगा बहुत मैली हो चुकी है. वह जितना मैदानी हिस्से में आगे बढ़ती जाती है उतनी ही गन्दगी व कूड़ा-कचरा उसमें बढ़ता जाता है. इलाहाबाद के पवित्र संगम पर तो इसका पानी पीने लायक नहीं रहा है.
नदियाँ तो दक्षिण भारत में भी बड़ी बड़ी हैं, पर इस तरह प्रदूषित होने की उनके बारे में कोई चर्चा सुनने में नहीं आती है. गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की बातें बहुत पहले से होती रही हैं. पर्यावरणविदों ने समय समय पर इस पर चिंताए जताई हैं. पूर्व प्रधान मन्त्री स्वर्गीय राजीव गाँधी ने अपने कार्यकाल मे इस मुहिम को गति दी थी. बहुत धन व संगठनात्मक व्यवस्था भी की. इस प्रदूषण मुक्त गंगा मिशन को कई गैर सरकारी संस्थाओं (N.G.O.) ने भी चलाया. साधु-संतों ने भी आवाजें उठाई, खूब हल्ला होता रहा तथा इस अहम मुद्दे पर राजनीति भी जोर शोर से होने लगी है, पर खेद इस बात का है कि हम जहाँ से चले थे आज भी वहीं हैं. कारण यह है कि सब नागरिक गैर जिम्मेदार हैं, दूसरों को उपदेश करना जानते हैं, पर स्वयं अनुशासित नहीं रहते हैं. बड़ी बात यह भी है कि सरकारी मह्कमें हद दर्जे तक भ्रष्ट हैं.
अभी कुछ दिन पहले मेरे कुछ रिश्तेदार बद्रीनाथ धाम की यात्रा पर गए थे. वापसी मे वहाँ के प्रसाद के साथ एक छोटी बोतल मे शुद्ध गंगा जल भी लेकर आये हैं. इसकी कुछ बूँदें हम शुद्धिकरण मन्त्र,
ओम अपवित्र:पवित्रोवा सर्वावस्था गतोऽपि वा !
यह स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स् वाह्यांतर सूचि !!
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गंगा ने पापों को नष्ट करने की ठानी है, पापियों ने गंगा को।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसुंदर, सामयिक आलेख... "नमो गंगे."
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