कुछ लोग बाहर से कुछ होते हैं और अन्दर से कुछ और, लेकिन पण्डित उत्तमचन्द्र पुरोहित, जैसे बाहर से उज्जवल-धवल और निर्विकार दिखते थे, अन्दर से भी बिलकुल वैसे ही थे. एकाएक विश्वास नहीं होता कि इस कलियुग में आज भी ऐसे मनीषी पैदा होते रहते हैं.
बामनिया गाँव लगभग दो सौ घरों वाला पुराना गाँव है, जिसमें अधिकतर घर सनाढ्य ब्राह्मणों के हैं. कथावाचक स्वर्गीय पण्डित दीनदयाल पुरोहित के ज्येष्ठपुत्र उत्तमचन्द्र बचपन से ही धार्मिक संस्कारों में उसी तरह पगे हुए थे, जिस तरह सुनार की भट्टी में सोना निखरता है. प्रारंभिक शिक्षा के लिए उनको हरिद्वार के एक नामी गुरुकुल में भेज दिया गया था और वहाँ से अनेक विद्याओं में पारंगत होकर विद्यावाचस्पति की उपाधि के साथ अपने गाँव लौटे. गाँव लौट कर भी उन्होंने बनारस जाने का निर्णय किया जहाँ अंगरेजी व उर्दू भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और इनके साहित्य का अध्ययन किया. तत्पश्चात अनेक मंसूबे लेकर लौट आये.
पण्डित उत्तमचंद ने एक महान भविष्यदृष्टा की तरह जनसेवा का एक व्यापक मानचित्र अपने मन में बनाया और अपने गाँव में गुरुकुल जैसा ही प्रतिष्ठान स्थापित किया, जिसमें आचार्य रहते हुए उन्होंने गाँव के बच्चों के लिए बहुमुखी शिक्षा की व्यवस्था की. यह उन्हीं का प्रताप है कि उनके बाद वाली पीढ़ियों में बामनिया गाँव में पाँच आई ए एस, आठ आई पी एस, दर्जनों इंजीनियर्स, डॉक्टर्स, वकील, अध्यापक -प्राध्यापक हुए हैं, जो देश-समाज की सेवा में समर्पित हैं.
आजादी के बाद देश में टुच्ची दलगत राजनीति करने वाले या सेवा के नामपर धन बटोरने वाले सेठों/उद्योगपतियों/मठ-महंतों के लिए उनकी यह उपलब्धि ईर्ष्या का सबब हो सकता था, पर उन्होंने शुद्ध रूप से इसे अपने जीवन का निस्वार्थ मिशन बनाया, जिसकी कि आसपास प्रदेशों में कोई समकालीन मिसाल नहीं मिलती है.
पण्डित उत्तमचन्द्र हर दिल अजीज थे. एक अघोषित न्यायाधीश भी थे. गाँव के लोगों में कोई विवाद हो जाये तो लोग थाने या न्यायालय जाने के बजाय उनके पास आकर निपटारा करवा लेते थे. गाँव में नागरिक सुविधाओं के लिए पंचायत उनसे हमेशा मार्गदर्शन लेती रही. उनके जीवन की सरलता में इतनी व्यस्तता थी कि वे आजीवन कुंवारे ही रहे. कई बार विवाह के प्रस्ताव आये पर उन्होंने हमेशा सबको मुस्कुराकर टाल दिया. पैतृक संपत्ति सब उनके भाईयों की देखरेख में थी. उनके बीच वे एक सन्यासी की तरह जीवन जिए. उनकी गरिमा व आभामण्डल विश्वसनीय तथा दर्शनीय थी.
दलगत राजनीति से परे, वे साहित्य व दर्शन पर अपनी लेखनी चलाते रहे. यद्यपि उन्होंने अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं को छपने/छपाने का कोई प्रयास नहीं किया--कारण वे आत्मप्रचार से कोसों दूर रहते थे--लेकिन अब जब वे इस सँसार में नहीं हैं तो उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों के खजाने के प्रकाशन के लिए बहुत से विद्वान/प्रकाशक प्रयासरत हैं. जीवन के अन्तिम २५ वर्षों में उन्होंने भगवदगीता, कुरआन शरीफ तथा बाइबल पर भाष्य लिखे, जो पठनीय हैं. उन्होंने तीनों भाष्यों के अंत में यह वाक्य जरूर लिखा है: ‘सब धर्मों का सार यही है, सत्याचरण और परसुख चिन्तन.’
उम्र के अस्सी बसंत पार करने के बाद उनके मन में आया कि जीवन के शेष दिन हरिद्वार में गंगा मईया के तट पर साधना पूर्वक बिताने चाहिए. गाँव वालों से विदा लेने के लिए प्रस्थान से पूर्व उन्होंने विधिवत अपना श्राद्ध कर्म करवाया. सब को ब्रह्मभोज पर बुलाया. हरिद्वार में एक सुविधाओं वाले वृद्धाश्रम में उन्होंने एक लाख रूपये जमा करके अपने लिए एक सीट बुक करवा रखी थी. गाँव के लोगों ने सजल नेत्रों से इस सम्माननीय बुजुर्ग को विदा किया. एक दर्जन लोग उनके साथ हरिद्वार तक भी गए और छोड़ कर आये.
पुरोहित जी के लिए यह नया अनुभव जरूर था, लेकिन आश्रम के तमाम लोगों से उन्होंने धीरे धीरे स्नेह सम्बन्ध बना लिए. आश्रम का सादगी भरा निर्मल वातावरण उनको खूब भा रहा था, पर अब शरीर पर उम्र का प्रभाव तो था ही, ग्रीष्म व वर्षा ऋतु से लेकर शरद ऋतु तक आबोहवा भी अच्छी लग रही थी, पर जब शिशिर ऋतु आई तो ठण्ड से बहुत कष्ट होने लगा. असह्य होने पर उन्होंने सारी व्यथा अपने भतीजे को लिख डाली क्योंकि उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं था. नतीजा यह हुआ कि व्याकुल-चिंतित स्वजन तुरन्त हरिद्वार आकर उन्हें बामनिया गाँव ले आये. जहाँ वे लगभग दो वर्षों तक और जिए. एक दिन हरि कीर्तन करते हुए हृदयाघात हुआ और वे एकाएक चल दिये.
कृतज्ञ गाँव वासियों ने उनकी स्मृति में एक भव्य वृद्धाश्रम बनवाया है, नाम रखा है ‘उत्तम वृद्धाश्रम.’ आश्रम की मुख्य दीवार पर स्व. पण्डित उत्तमचन्द्र के एक आदमकद चित्र के नीचे लिखा है: "कौन कहता है कि अब इस धरा पर देव तुल्य लोग पैदा नहीं होते हैं?"
बामनिया गाँव लगभग दो सौ घरों वाला पुराना गाँव है, जिसमें अधिकतर घर सनाढ्य ब्राह्मणों के हैं. कथावाचक स्वर्गीय पण्डित दीनदयाल पुरोहित के ज्येष्ठपुत्र उत्तमचन्द्र बचपन से ही धार्मिक संस्कारों में उसी तरह पगे हुए थे, जिस तरह सुनार की भट्टी में सोना निखरता है. प्रारंभिक शिक्षा के लिए उनको हरिद्वार के एक नामी गुरुकुल में भेज दिया गया था और वहाँ से अनेक विद्याओं में पारंगत होकर विद्यावाचस्पति की उपाधि के साथ अपने गाँव लौटे. गाँव लौट कर भी उन्होंने बनारस जाने का निर्णय किया जहाँ अंगरेजी व उर्दू भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और इनके साहित्य का अध्ययन किया. तत्पश्चात अनेक मंसूबे लेकर लौट आये.
पण्डित उत्तमचंद ने एक महान भविष्यदृष्टा की तरह जनसेवा का एक व्यापक मानचित्र अपने मन में बनाया और अपने गाँव में गुरुकुल जैसा ही प्रतिष्ठान स्थापित किया, जिसमें आचार्य रहते हुए उन्होंने गाँव के बच्चों के लिए बहुमुखी शिक्षा की व्यवस्था की. यह उन्हीं का प्रताप है कि उनके बाद वाली पीढ़ियों में बामनिया गाँव में पाँच आई ए एस, आठ आई पी एस, दर्जनों इंजीनियर्स, डॉक्टर्स, वकील, अध्यापक -प्राध्यापक हुए हैं, जो देश-समाज की सेवा में समर्पित हैं.
आजादी के बाद देश में टुच्ची दलगत राजनीति करने वाले या सेवा के नामपर धन बटोरने वाले सेठों/उद्योगपतियों/मठ-महंतों के लिए उनकी यह उपलब्धि ईर्ष्या का सबब हो सकता था, पर उन्होंने शुद्ध रूप से इसे अपने जीवन का निस्वार्थ मिशन बनाया, जिसकी कि आसपास प्रदेशों में कोई समकालीन मिसाल नहीं मिलती है.
पण्डित उत्तमचन्द्र हर दिल अजीज थे. एक अघोषित न्यायाधीश भी थे. गाँव के लोगों में कोई विवाद हो जाये तो लोग थाने या न्यायालय जाने के बजाय उनके पास आकर निपटारा करवा लेते थे. गाँव में नागरिक सुविधाओं के लिए पंचायत उनसे हमेशा मार्गदर्शन लेती रही. उनके जीवन की सरलता में इतनी व्यस्तता थी कि वे आजीवन कुंवारे ही रहे. कई बार विवाह के प्रस्ताव आये पर उन्होंने हमेशा सबको मुस्कुराकर टाल दिया. पैतृक संपत्ति सब उनके भाईयों की देखरेख में थी. उनके बीच वे एक सन्यासी की तरह जीवन जिए. उनकी गरिमा व आभामण्डल विश्वसनीय तथा दर्शनीय थी.
दलगत राजनीति से परे, वे साहित्य व दर्शन पर अपनी लेखनी चलाते रहे. यद्यपि उन्होंने अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं को छपने/छपाने का कोई प्रयास नहीं किया--कारण वे आत्मप्रचार से कोसों दूर रहते थे--लेकिन अब जब वे इस सँसार में नहीं हैं तो उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों के खजाने के प्रकाशन के लिए बहुत से विद्वान/प्रकाशक प्रयासरत हैं. जीवन के अन्तिम २५ वर्षों में उन्होंने भगवदगीता, कुरआन शरीफ तथा बाइबल पर भाष्य लिखे, जो पठनीय हैं. उन्होंने तीनों भाष्यों के अंत में यह वाक्य जरूर लिखा है: ‘सब धर्मों का सार यही है, सत्याचरण और परसुख चिन्तन.’
उम्र के अस्सी बसंत पार करने के बाद उनके मन में आया कि जीवन के शेष दिन हरिद्वार में गंगा मईया के तट पर साधना पूर्वक बिताने चाहिए. गाँव वालों से विदा लेने के लिए प्रस्थान से पूर्व उन्होंने विधिवत अपना श्राद्ध कर्म करवाया. सब को ब्रह्मभोज पर बुलाया. हरिद्वार में एक सुविधाओं वाले वृद्धाश्रम में उन्होंने एक लाख रूपये जमा करके अपने लिए एक सीट बुक करवा रखी थी. गाँव के लोगों ने सजल नेत्रों से इस सम्माननीय बुजुर्ग को विदा किया. एक दर्जन लोग उनके साथ हरिद्वार तक भी गए और छोड़ कर आये.
पुरोहित जी के लिए यह नया अनुभव जरूर था, लेकिन आश्रम के तमाम लोगों से उन्होंने धीरे धीरे स्नेह सम्बन्ध बना लिए. आश्रम का सादगी भरा निर्मल वातावरण उनको खूब भा रहा था, पर अब शरीर पर उम्र का प्रभाव तो था ही, ग्रीष्म व वर्षा ऋतु से लेकर शरद ऋतु तक आबोहवा भी अच्छी लग रही थी, पर जब शिशिर ऋतु आई तो ठण्ड से बहुत कष्ट होने लगा. असह्य होने पर उन्होंने सारी व्यथा अपने भतीजे को लिख डाली क्योंकि उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं था. नतीजा यह हुआ कि व्याकुल-चिंतित स्वजन तुरन्त हरिद्वार आकर उन्हें बामनिया गाँव ले आये. जहाँ वे लगभग दो वर्षों तक और जिए. एक दिन हरि कीर्तन करते हुए हृदयाघात हुआ और वे एकाएक चल दिये.
कृतज्ञ गाँव वासियों ने उनकी स्मृति में एक भव्य वृद्धाश्रम बनवाया है, नाम रखा है ‘उत्तम वृद्धाश्रम.’ आश्रम की मुख्य दीवार पर स्व. पण्डित उत्तमचन्द्र के एक आदमकद चित्र के नीचे लिखा है: "कौन कहता है कि अब इस धरा पर देव तुल्य लोग पैदा नहीं होते हैं?"
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दुर्लभ मानव..
जवाब देंहटाएंउत्तम चरित्र ,उत्तम संस्मरण शैली (सनाढ्य ...),आपकी टिप्पणियों के लिए सादर आभार .
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