मैं कोई ज्योतिषी या भविष्यवक्ता नहीं हूँ, पर इतना जानता हूँ कि यदि कोई अनाड़ी तैराक किसी गहरी नदी के भंवर में नहाने लगे तो अवश्य ही डूबेगा.
मैं इंदिरा गाँधी के आपद्काल का प्रत्यक्षदर्शी और भुक्तभोगी रहा हूँ. उस काल में अनेक विचारकों व सभ्य नागरिकों ने उसकी तारीफ़ में यह भी कहा था कि “यह अनुशासन पर्व है.” ऐसे नारे भी जगह जगह लिखे मिलते थे कि ‘समय का अनुशासन क्या केवल रेलों के लिए ही है?’ यानि प्रशासन में चुस्ती और पाबंदी का बोध जागृत हुआ सा लगने लगा था. इंदिरा जी और उनके सिपहसालारों को लग रहा था कि इस हथियार से वे जनता को बखूबी हांक सकते हैं. जनसंपर्क वाले कर्मचारियों ने अतिउत्साहित होकर परिवार नियोजनार्थ जो नसबंदी का दौर चलाया वह आम लोगों के लिए भयकारक था. लोग दु:खी हो गए थे और उस व्यवस्था से निजात चाहते थे. अत: सं १९७७ के आम चुनावों में इंदिरा गाँधी की सत्ता का पराभव का कारण बना. ये दीगर बात है कि उसके बाद मोरारजी देसाई की जनता सरकार बिना लगाम के घोड़ों के रथ के सामान चलने के कारण ढाई साल में परास्त हो गयी थी. जब नेतागण जनता के आक्रोश को नहीं समझ पाते हैं या जरूरत ही नहीं समझते हैं तो उनका राजनैतिक पराभव निश्चित होता है.
आज देश में फिर भ्रष्टाचार और निरंकुश मनमाने आर्थिक निर्णय घनघोर घटाओं की तरह उमड़ घुमड़ रहे हैं. जिनके परिणामस्वरूप महंगाई बेलगाम हो गयी है. हर परिवार को मूलभूत आवश्यकता रसोई गैस के दंश को झेलना पड़ रहा है, इससे यह साफ़ लगाने लगा है कि केन्द्र की मौजूदा सरकार के पराभव के लिए यह अकेला कारण ही पर्याप्त होगा.
इस सन्दर्भ में विश्व की आर्थिक मंदी या विकास की बातें कहकर लोगों को सन्तोष नहीं कराया जा सकता है. अब अंदरूनी स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि कोई भी ‘लालीपॉप’ काम करने वाला नहीं लगता है. केवल सैद्धांतिक अर्थशास्त्र या सांख्यिकी से नैया पार नहीं लग सकती है.
पिछली सदी के पूर्वार्ध में जब इलैक्ट्रोनिक मीडिया वजूद में नहीं आया था, अखबारों को ही मीडिया कहा जाता था. तब एक प्रबुद्ध अंग्रेज विचारक ने कहा था, “Give me the press, I will not care who rules the country.” लेकिन आज तो मीडिया अनेक रूपों में प्रबल हो गया है. टेलीविजन के सैकड़ों चेनल्स हैं, जो प्रतिस्पर्धात्मक तरीकों से पत्रकारिता/पीतपत्रकारिता में हद से बाहर जाकर भी मसलों को उछाल रहे हैं. अदालतों के बजाय बहुधा विवेचन व निर्णय सुनाने लगे हैं. इससे कार्यपालिका और न्यायपालिका कुछ सीमा तक प्रभावित भी होने लगी है.
वर्तमान में केन्द्र सरकार के विरुद्ध आग उगलने वाले राजनैतिक प्रतिद्वंदी पार्टियां/नेतागण नेपथ्य में चले गए हैं और जो मुखर हो रहे हैं, उनमें भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाने वाले अन्ना समर्थक, रामलीला मैदान में चोट खाए हुए रामदेव योगी, शीघ्र राजनैतिक पार्टी की घोषणा करने वाले अरविन्द केजरीवाल की ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की टीम तथा जनरल वी.के.सिंह जैसे सरकार से खार खाए हुए प्रभावशाली लोग हैं जो सरकार के लिए कब्र खोदने में दिन रात लगे हुए है.
मेरा दृढ़ विश्वास है कि इन विरोधी हमलों से ज्यादा मारक कारण खाद्य पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी, पेट्रोल-डीजल रसोई गैस में लगी आग होगी, जो वर्तमान सत्ताधारी पार्टियों के पराभव का निमित्त बनेगा.
मैं इंदिरा गाँधी के आपद्काल का प्रत्यक्षदर्शी और भुक्तभोगी रहा हूँ. उस काल में अनेक विचारकों व सभ्य नागरिकों ने उसकी तारीफ़ में यह भी कहा था कि “यह अनुशासन पर्व है.” ऐसे नारे भी जगह जगह लिखे मिलते थे कि ‘समय का अनुशासन क्या केवल रेलों के लिए ही है?’ यानि प्रशासन में चुस्ती और पाबंदी का बोध जागृत हुआ सा लगने लगा था. इंदिरा जी और उनके सिपहसालारों को लग रहा था कि इस हथियार से वे जनता को बखूबी हांक सकते हैं. जनसंपर्क वाले कर्मचारियों ने अतिउत्साहित होकर परिवार नियोजनार्थ जो नसबंदी का दौर चलाया वह आम लोगों के लिए भयकारक था. लोग दु:खी हो गए थे और उस व्यवस्था से निजात चाहते थे. अत: सं १९७७ के आम चुनावों में इंदिरा गाँधी की सत्ता का पराभव का कारण बना. ये दीगर बात है कि उसके बाद मोरारजी देसाई की जनता सरकार बिना लगाम के घोड़ों के रथ के सामान चलने के कारण ढाई साल में परास्त हो गयी थी. जब नेतागण जनता के आक्रोश को नहीं समझ पाते हैं या जरूरत ही नहीं समझते हैं तो उनका राजनैतिक पराभव निश्चित होता है.
आज देश में फिर भ्रष्टाचार और निरंकुश मनमाने आर्थिक निर्णय घनघोर घटाओं की तरह उमड़ घुमड़ रहे हैं. जिनके परिणामस्वरूप महंगाई बेलगाम हो गयी है. हर परिवार को मूलभूत आवश्यकता रसोई गैस के दंश को झेलना पड़ रहा है, इससे यह साफ़ लगाने लगा है कि केन्द्र की मौजूदा सरकार के पराभव के लिए यह अकेला कारण ही पर्याप्त होगा.
इस सन्दर्भ में विश्व की आर्थिक मंदी या विकास की बातें कहकर लोगों को सन्तोष नहीं कराया जा सकता है. अब अंदरूनी स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि कोई भी ‘लालीपॉप’ काम करने वाला नहीं लगता है. केवल सैद्धांतिक अर्थशास्त्र या सांख्यिकी से नैया पार नहीं लग सकती है.
पिछली सदी के पूर्वार्ध में जब इलैक्ट्रोनिक मीडिया वजूद में नहीं आया था, अखबारों को ही मीडिया कहा जाता था. तब एक प्रबुद्ध अंग्रेज विचारक ने कहा था, “Give me the press, I will not care who rules the country.” लेकिन आज तो मीडिया अनेक रूपों में प्रबल हो गया है. टेलीविजन के सैकड़ों चेनल्स हैं, जो प्रतिस्पर्धात्मक तरीकों से पत्रकारिता/पीतपत्रकारिता में हद से बाहर जाकर भी मसलों को उछाल रहे हैं. अदालतों के बजाय बहुधा विवेचन व निर्णय सुनाने लगे हैं. इससे कार्यपालिका और न्यायपालिका कुछ सीमा तक प्रभावित भी होने लगी है.
वर्तमान में केन्द्र सरकार के विरुद्ध आग उगलने वाले राजनैतिक प्रतिद्वंदी पार्टियां/नेतागण नेपथ्य में चले गए हैं और जो मुखर हो रहे हैं, उनमें भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाने वाले अन्ना समर्थक, रामलीला मैदान में चोट खाए हुए रामदेव योगी, शीघ्र राजनैतिक पार्टी की घोषणा करने वाले अरविन्द केजरीवाल की ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की टीम तथा जनरल वी.के.सिंह जैसे सरकार से खार खाए हुए प्रभावशाली लोग हैं जो सरकार के लिए कब्र खोदने में दिन रात लगे हुए है.
मेरा दृढ़ विश्वास है कि इन विरोधी हमलों से ज्यादा मारक कारण खाद्य पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी, पेट्रोल-डीजल रसोई गैस में लगी आग होगी, जो वर्तमान सत्ताधारी पार्टियों के पराभव का निमित्त बनेगा.
***
इन विरोधी हमलों से ज्यादा मारक कारण खाद्य पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी, पेट्रोल-डीजल रसोई गैस में लगी आग होगी, जो वर्तमान सत्ताधारी पार्टियों के पराभव का निमित्त बनेगा.
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा है ....
सब अपने ही मार्ग में आगे बढ़े जा रहे हैं, कोई एक दिशा तो नियत हो सबके लिये।
जवाब देंहटाएं