रविवार, 10 मार्च 2013

शिव दर्शन

सनातन धर्म की आस्थाओं में भगवान शिव, त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) में, कल्याणकारी देवता के रूप में जाने व पूजे जाते हैं. वे अजन्मा हैं और अनादि हैं. उनके बारे में तमाम धार्मिक साहित्य भरा पड़ा है. घर घर में उनके चित्र/मूर्तियां तथा प्रत्येक मोहल्ला/गाँव/शहर में उनके मंदिर बने हैं. अनेक दृष्टांत व कथाएं भगवान शिव के बारे में कही जाती हैं. मैंने अपने बचपन में एक रोचक कहानी सुनी थी. यह कथा किस ग्रन्थ में और किस सन्दर्भ कही गयी, यह याद नहीं रहा है.

एक न्यायप्रिय प्रजावत्सल राजा थे, जो भगवान शंकर के अनन्य भक्त थे. हमेशा ही शिवार्चन किया करते थे.  उनसे प्रसन्न होकर एक बार भोले बाबा ने साक्षात प्रकट होकर पूछा, “इतनी साधना क्यों किया करते हो. मुझसे तुम्हारी क्या चाहना है?” राजा ने भगवान को सादर प्रणाम करके कहा, “प्रभो, आपने मुझे सब कुछ दे रखा है! मेरी इच्छा है कि आप हमेशा मुझ पर कृपा बनाये रखें.”

भोले ने कहा, “अच्छा, जो माँगना हो माँग लो.”

राजा ने कहा, “मेरे पास आपका दिया हुआ सब कुछ है. यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आप चलकर मेरे किले के अन्दर रहने वाली सारी प्रजा को दर्शन देकर मोक्ष का भागीदार बना दीजिए.”

इस पर भगवान बोले, “तुम्हारे किले के अन्दर तो चोर, उचक्के, बेईमान, चरित्रहीन सभी तरह के लोग निवास करते हैं. मैं सभी को कैसे दर्शन दे सकता हूँ? मेरे दर्शन की प्राप्ति तो मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार होती है.”

राजा बोले, “आपने कहा है कि कुछ भी माँग लो इसलिए मैंने जो चाहा सो माँगा है, अब आपकी मर्जी है.”

शंकर भगवान ने कुछ सोचकर बीच का रास्ता सुझाया ताकि दोनों की बात रह जाये. उन्होंने कहा, “यहाँ से पाँच मील दूर एक टीले पर मेरा एक छोटा सा मन्दिर बना हुआ है. तुम अपनी प्रजा को अगले सोमवार को प्रात: द्वितीय प्रहर में वहाँ लेकर आ जाओ. मैं प्रत्येक आने वाले को मन्दिर के चबूतरे पर बैठ कर दर्शन दूंगा.” शंकर भगवान ने इसी सन्दर्भ में आगे भी कहा कि “किले के अन्दर से तो तुम लोगों को जोर-जबरदस्ती से बाहर लाकर चलने के लिए प्रेरित कर सकते हो लेकिन अगर कोई रास्ते में से वापस लौटना चहेगा तो उसे रोकना मत.”

राजा ने इस बात पर अपनी सहमति दे दी. तदनुसार किले के निवासियों को सोमवार को शिव-दर्शन के लिए चलने का हुक्म हो गया. डुगडुगी बजा दी गई. सिपाहियों ने लूले-लंगड़े, अंधे-काणे तक को किले के बाहर निकलने को मजबूर कर दिया, और इस प्रकार पूरी बारात सी शिव-दर्शन को चल पड़ी.

कर्मों के अनुसार फल देने के आधार पर भगवान ने अपनी माया फैला दी. सड़क के दोनों तरफ चवन्नियों के ढेर लगा दिये. इतनी सारी दौलत पड़ी देख लोग उसे समेटने में जुट गए. आधी जनसंख्या चवन्नियों का अधिकतम बोझ उठा कर घर को लौट गयी. लोग आगे बढ़े. उनको अगले मील पड़ाव पर अठन्नियों के ढेर मिले तो बहुत से लोग अठन्नियां समेट कर वापस लौट पड़े. इसके बाद अगले मील पड़ाव पर चांदी का कलदार पूरा रुपया देखकर बहुतों को लालच हो आया. अपने अपने कपड़ों के थैले-पोटलिया बना कर जितना उठा सकते थे उठा कर लौट गए. इसी प्रकार अगले पड़ाव पर सोने की गिन्नियां तथा आख़िरी पड़ाव पर असंख्य मणि एवं रत्न पड़े मिले, जिन्हें पाकर अच्छे-अच्छों को उसी में भगवान नजर आने लगे. अंत में जब राजा मन्दिर के चबूतरे तक पहुंचे तो उनके साथ केवल उनकी महारानी और एक साधू बचा रहा.

शंकर भगवान ने राजा का अभिवादन लेते हुए कहा, “ले आये अपनी प्रजा को?”

राजा ने भगवान के चरण पकड़ लिए और कहा, “आपकी माया अपरम्पार है. आपने सच ही कहा था कि मनुष्यों को उनके कर्मों के अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है."
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8 टिप्‍पणियां:

  1. सच में, जिसके मन में जो होता है, वह उसी को ईश्वर समझने लगता है।

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  2. बहुत ही सार्थक प्रस्तुतीकरण.महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ !

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  3. वाह पाण्‍डेय जी बहुत ही प्रेरक प्रसंग जोड़ दिया आपने महाशिवरात्रि त्‍यौहार के उपलक्ष में। अत्‍यन्‍त प्रेरक प्रसंग।

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