मंगलवार, 25 जून 2013

बदरंग जिंदगी

सुन्दरी बहुत सुन्दर तो नहीं थी, पर माता-पिता को उसमें सारी सुंदरता नजर आई थी क्योंकि उन्होंने उसे बड़ी मिन्नतों के बाद पाया था तदनुसार नाम भी रख लिया था. ज्यों ज्यों वह बड़ी होती गयी चँचल व बदमिजाज भी होती गयी. ऐसे बच्चे जब जवान हो जाते हैं तो कभी कभी माता-पिता के वश में भी नहीं रहते हैं.

१५ साल की उम्र होते होते सुन्दरी के पिता दरबानसिंह को ये चिंता सताने लगी थी कि बेटी किसी के साथ रफूचक्कर ना हो जाए इसलिए जल्दी हाथ पीले करने की सोचने लगे. कोशिश करने से क्या नहीं होता है. कुछ दूर की रिश्तेदारी में एक लड़का मिल गया, नाम था खुशाल सिंह.

खुशाल, पान सिंह का बेटा है, पान सिंह मुंबई में नौकरी करता था. नौकरी क्या, भूलेश्वर बाजार में चौकीदारी करता था. उसे वहाँ ‘पानू गोरखा’के नाम से पुकारा जाता था. वैसे वह गढ़वाली था, गोरखा नहीं. मुंबई में कुछ अजीब रिवाज है  सभी पहाड़ी-नेपाली चौकीदारों को गोरखा ही समझा जाता है  और गोरखों को वफादार-ईमानदार भी.

पानसिंह अपने बेटे को छुटपन में ही मुंबई ले गया था. चूंकि उसके पास अपने रहने के लिए अलग से कोई स्थाई खोली नहीं थी, वह कुछ अन्य पहाड़ी लोगों के साथ एक कोठड़ी में बिस्तर-बक्सा रखा करता था. सोने के लिए लाखों लोगों की तरह फुटपाथ का उपयोग करता था. खुशाल को जल्दी ही मुंबई की हवा लग गयी. वह अपने मवाली दोस्तों के साथ बड़ा होने लगा. उसने पैसा कमाने के कई नकारात्मक गुर सीख लिए. वह उठाईगिरी में भी माहिर होता जा रहा था. एक बार अपने पिता के नकली हस्ताक्षर करके उनके बैंक खाते में से एक हजार रूपये निकाल लिए. पिता को मालूम होने पर वह भाग गया और कई महीनों तक गायब रहा. था वह मुंबई में ही.

पान सिंह बेटे सहित दो तीन साल में अपने गाँव जरूर आता था. इस बार जब वे मुलुक (मुंबई वासी घर-गाँव को मुलुक कहा करते हैं) आये तो खुशाल की माँ ने खुश-खबरी बताई कि "कोटद्वार के दरबानसिंह की बेटी सुन्दरी से खुशाल के ब्याह की बात तय कर रखी है." बात आगे बढ़ी और स्थानीय रीति रिवाज से चट मंगनी पट ब्याह भी हो गया. पान सिंह तो जल्दी मुंबई लौट गया और खुशाल दो-तीन महीनों तक गाँव में ही रहा. अब उसका मन यहाँ नहीं लग रहा था. एक दिन वह पत्नी के दो-तीन सोने के कीमती जेवर लेकर रफूचक्कर हो गया. वह मुंबई अपने ठिकाने पर भी नहीं पहुँचा. करीब दो साल तक गायब रहा और एक दिन अचानक गाँव लौट आया. उसने बताया कि बनारस में साडियों की छपाई का काम सीख रहा था. ये बात किसी के गले नहीं उतरी. कुछ दिनों के बाद मुंबई जाने के नाम पर घर से फिर निकला और पहले की तरह लापता हो गया.

पति के इस तरह आवारा व गैरजिम्मेदारीपूर्ण रहने से सुन्दरी को शुरू में मन:स्ताप होता था, पर इतने वर्षों के अंतराल में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए अपने स्वभाव के अनुसार उसने अपने पुरुष मित्र बना लिए. सासू का घर छोड़ कर पिता के घर चली गयी. माता-पिता भी धरती पर हमेशा रहने को नहीं आये थे. उनकी मृत्यु होने के बाद वह पूरी तरह आजाद हो गयी.

आजाद हो गयी तो बदनाम भी होना ही था क्योंकि उसका ग्रामीण परिवेश वाला समाज वर्जनाहीनता को स्वीकार नहीं करता है. पर जैसे को तैसे मिल ही जाया करते हैं. एक बदनाम मन्त्री के चमचे ने उनका सीधा परिचय मन्त्री जी से करवा दिया. सुन्दरी उनकी राजनैतिक पार्टी की सक्रिय कायकर्ता बन गयी. ये नेता लोग कार्यकर्ताओं को इस्तेमाल करना भी खूब जानते हैं. अब सुन्दरी का दायरा बहुत बढ़ गया था. उसका पारिवारिक जीवन नष्टप्राय: हो चुका था. ऐसे में एक दिन ढूंढते-करते खुशाल पुन: प्रकट हो गया. इस बार सुन्दरी ने उसको घास नहीं डाली और झगड़ा करके बाहर निकलवा दिया. खुशाल बहुत भद्दी भद्दी गलियां व धमकियां देकर चला गया था. इधर सुन्दरी की हिमायत में बहुत से लोग थे. सुन्दरी अब गाली या धमकियों की परवाह नहीं करती थी.

कालचक्र घूमता रहता है. बहुत कुछ अपने आप बदलता भी रहता है. राजनीति में जब कभी किसी का ग्राफ ऊपर चढ़ता है तो एकाएक जमीन पर भी आ जाता है. सुन्दरी का अब सब कुछ ढल चुका है. उसकी अपनी पार्टी सत्ता में भी नहीं रही है.अब उसे कोई पूछता भी नहीं है. वह एकांत में बैठी अपनी नीलम के नग वाली अंगूठी को निहार रही है, जो अब उसकी जिंदगी की तरह ही बदरंग हो चुकी है, और अपने गले में लटके बरायनाम मंगलसूत्र को अँगुलियों से मसल रही है; ‘इसे उतार दूँ या यों ही गले में डाली रहूँ?’ इस कशमकश में है 

                                                                 ***

3 टिप्‍पणियां:

  1. लहरों के उछाल पर अभिमान करने से, गर्तों का अपमान भी दिखने लगता है। सीखना तो यह होता है कि किस तरह थिर रहें।

    जवाब देंहटाएं

  2. बहुत खूब ज़िन्दगी के रंग ज़िन्दगी से गुफ्तु गु करती आती है आपकी हर पोस्ट .शुक्रिया आपकी टिप्पणियों का .ॐ शान्ति .

    जवाब देंहटाएं
  3. जन्‍मजात विकृतियों को समय रहते सही दिशा नहीं मिली तो समाज विकृतियों को तोड़-मरोड़ कर और अधिक विकृत करने के लिए कमर कसे हुए रहता है।

    जवाब देंहटाएं